लहू: किसका चुनाव और किसका विवेक?
परिशिष्ट
लहू: किसका चुनाव और किसका विवेक?
लेखक: जे. लॉवेल डिक्सन, MD.
न्यू यॉर्क स्टेट जर्नल ऑफ मेड्सिन, १९८८; ८८:४६३-४६४, की अनुज्ञा से दुबारा छापा गया, मेडिकल सोसाइटी ऑफ द स्टेट ऑफ न्यू यॉर्क द्वारा स्वत्वाधिकार।
चिकित्सक अपने ज्ञान, कौशल और अनुभव को रोग एवं मृत्यु से लडने के लिये लागू करने को वचनबद्ध है। लेकिन यदि एक मरीज़, सलाह दिये उपचार को इन्कार करे तो क्या होगा? ऐसा होने की अधिक संभावना होगी यदि मरीज़ यहोवा का गवाह है और उसका उपचार सम्पूर्ण रक्त (होल ब्लड), समूहित लाल रक्त कण, प्लाज़्मा (प्लाविका), या प्लेटलेट्स (बिम्बाणु) है।
जब लहू के प्रयोग का समय आता है, तो एक चिकित्सक ऐसा सोच सकता है कि मरीज़ का अरक्तीय उपचार का चुनाव एक समर्पित चिकित्सा कर्मचारी के हाथ बाँध देगा। फिर भी, एक व्यक्ति ने यह नहीं भूलना चाहिये कि यहोवा के गवाहों के अलावा दूसरे मरीज़ भी अकसर अपने डॉक्टर की सलाहों को मानने से इन्कार कर देते हैं। एप्पेलबॉम एवं रॉथ1 * के अनुसार, शिक्षण अस्पतालों के १९% मरीज़ों ने कम से कम एक उपचार या प्रक्रिया के लिये मना किया, जब कि ऐसी अस्वीकृतियों में से १५% “जीवन संकट में डालने की संभावना थी।”
इस सामान्य विचार से “डॉक्टर सबसे बेहतर जानता है,” बहुत से मरीज़ अपने चिकित्सक के कौशल और ज्ञान का सम्मान करते हैं। परन्तु यह कितना अधिक संकटपूर्ण होगा यदि एक चिकित्सक इस वाक्यांश को विज्ञान का एक तथ्य मान कर उसके अनुसार ही कार्य करना जारी रखे और मरीज़ का उपचार करे। यह सच है, कि हमारा चिकित्सीय प्रशिक्षण, कार्य करने की अनुज्ञप्ति और अनुभव हमें औषधीय क्षेत्र में विचारणीय विशेषाधिकार देते हैं। परन्तु हमारे मरीज़ों को हक़ है। और, जैसा कि हम संभवतः जानते हैं, कानून (संविधान भी) अधिकारों को अधिक मान्यता देता है।
अधिकतर अस्पतालों की दिवारों पर एक व्यक्ति “मरीज़ के अधिकारों का लेखा” देख सकता है। इनमें से एक अधिकार हे, सूचित स्वीकृति, जिसे और स्पष्ट शब्दों में सूचित चुनाव कहा जा सकता हे। विभिन्ना उपचारों (या उपचार न करवाने) के संभावित परिणामों के बारे में मरीज़ को सूचित करने के बाद, यह उसकी चुनाव है कि वह किसके लिये सहमत हो। त्त्वॉन्क्स, न्यू यॉर्क के एल्बर्ट आयनस्टाइन अस्पताल में रक्त-आधान और यहोवा के गवाहों पर एक ड्राफ्ट नीति में कहा गया: “कोई भी वयस्क मरीज़ को, जो अक्षम नहीं है, उपचार के लिये मना करने का अधिकार है, चाहे वह इन्कार उसके स्वास्थ्य के लिये कितना भी अहितकर क्यों न हो।”2 *
जब कि चिकित्सक नीतियों या दायित्व के बारे में चिन्ता व्यक्त करते हों, अदालतों ने मरीज़ की पसन्द को सबसे ऊपर रखने पर ज़ोर दिया है।3 * द न्यू यॉर्क कोर्ट ऑफ अपील्स ने कहा कि “अपने उपचार के लिये निश्चय करने का मरीज़ का अधिकार सर्वोत्तम [है] . . . यदि [एक] चिकित्सक एक सक्षम वयस्क मरीज़ के औषधीय उपचार को मना करने के अधिकार का सम्मान करता है, तो उस पर अपने कानूनी या व्यवसायिक उत्तरदायित्वों को तोडने का दोष नहीं ठहराया जा सकता है।”4 * न्यायालय ने यह भी ध्यान दिया कि “जब कि चिकित्सीय व्यवसाय की कर्त्तव्यपरक अखण्डता, महत्त्वपूर्ण है, लेकिन यहाँ दावा किए गए मूल व्यक्तिगत अधिकारों से यह अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है। उसे संस्था की माँगे नहीं, परन्तु उस व्यक्ति की आवश्यकताएँ एवं इच्छाएँ सर्वोत्तम है।”5 *
जब एक गवाह लहू के लिये मना करता है, तो चिकित्सकों को इस संभावना से विवेक वेदना प्रतीत होती होगी कि वे अधिकतम से कम लगने वाला कार्य कर रहे हैं। लेकिन गवाह विवेकी चिकित्सकों से यह माँग करते हैं कि वे उन परिस्थितियों में सबसे उत्तम विकल्प उपचार का प्रबन्ध करें। अधिक रक्तचाप, ऐन्टिबाइओटिक से तीक्ष्ण एलर्जी या कुछ मूल्यवान उपकरणों के उपलब्ध न होने के कारण हमें अकसर इन परिस्थितियों के अनुकूल होने के लिये उपचार को बदलना पडता है। गवाह मरीज़ के साथ चिकित्सकों से यह माँग की जाती है, कि वे औषधीय या शल्यक्रिया सम्बन्धी समस्या को मरीज़ के चुनाव और विवेक, लहू से परे रहने के उसके नैतिक/धार्मिक निर्णय के अनुसार ही हल करें।
गवाह मरीज़ों पर प्रधान शल्यक्रियाओं की अनगिनत रिपोर्ट यह दर्शाती है कि बहुत से चिकित्सक, शुद्ध विवेक से और सफलतापूर्वक, लहू का प्रयोग न करने के निवेदन को मान सकते है। उदाहरण के लिये, १९८१ में कूली ने १,०२६ हृदय-संवहनी सम्बधी ऑपरेशनों का सर्वेक्षण किया जिनमें से २२% बच्चों के थे। उन्होनें निश्चित किया कि, “यहोवा के गवाह समूह के रोगियों में शल्यक्रिया सम्बन्धी जोखिम दूसरे रोगियों से अधिक नहीं है।”6 * केम्बुरिस7 * ने गवाहों पर प्रधान ऑपरेशनों पर रिपोर्ट दी, उनमें से कुछ मरीज़ ऐसे थे जिन्हें “लहू स्वीकार न करने के कारण जरुरी शल्यचिकित्सा मना कर दिया गया था।” उन्होंने कहा: “सभी रोगियों को उपचार से पहले यह आश्वासन दिया गया कि उनके धार्मिक विश्वासों का आदर किया जाएगा, चाहे ऑपरेशन कक्ष में कोई भी परिस्थिति क्यों न हो। इस नीति के कोई अशोभनीय प्रभाव नहीं हुए।”
जब मरीज़ एक यहोवा का गवाह है, तो चुनाव के मामले से अधिक, विवेक सामने आता है। केवल चिकित्सक के विवेक के बारे में नहीं सोचा जा सकता है। मरीज़ के विवेक प्रोरितों के काम १५:२८, २९).8 * इस लिये यदि एक चिकित्सक ऐसे रोगियों की आवश्यकताओं का प्रबन्ध करते हुए उनके गहरे और दीर्घकालीन धार्मिक दृढ़ विश्वासों का उल्लंघन करेगें, तो परिणाम दुखःद हो सकता है। पोप जॉन पॉल II ने ध्यान दिया कि किसी व्यक्ति को अपने विवेक का बलपूर्वक उल्लंघन करने पर मजबूर करना, “मानव प्रतिष्ठा के लिये पीड़ादायक प्रहार होगा। एक अर्थ में यह शारीरिक मृत्यु या हत्या से भी बदतर है।”9 *
के बारे में क्या? लहू द्वारा प्रतिनिधित्व करते हुए जीवन को यहोवा के गवाह परमेश्वर का एक उपहार मानते हैं। वह बाइबल की उस आज्ञा पर विश्वास करते हैं कि मसीहियों कों, “लहू से परे रहना” है। (जब कि यहोवा के गवाह धार्मिक कारणों से लहू लेने से इन्कार करते हैं, अधिक से अधिक गैर-गवाह मरीज़ लहू लेने को इसलिये मना करते हैं क्योंकि इससे एड्स, नॉन-A नॉन-B हेपॅटाइटिस, और प्रतिरक्षा सम्बन्धी प्रतिक्रियाएँ होती है। हम उन्हें अपने विचार प्रस्तुत कर सकते है कि क्या यह जोखिम लाभों की तुलना में कम है या नहीं। लेकिन, जैसे अमेरिकन मेडिकल ऐसोसिएशन ने संकेत किया कि इस बात के लिये मरीज़ “अन्तिम निर्णायक होगा क्या वह चिकित्सक द्वारा परावर्श किए गए उपचार या शल्यचिकित्सा को मानेगा या उसके बिना जीवित रहने का जोखिम उठाएगा। यही एक व्यक्ति का स्वाभाविक अधिकार है, जिसे कानून मानता है।”10 *
इसी से सम्बन्धित, एक जोखिम/लाभ विषय को मैकलिन11 * ने सामने लाया जिसमें एक गवाह ने “बिना रक्त-आधान के रक्तस्राव से मृत्यु तक जोखिम उठाया।” एक चिकित्सीय छात्र ने कहा: “उसकी विचार-शक्ति प्रक्रियाएँ अखण्ड थी। यदि धार्मिक विश्वास उपचार के एक मात्र स्त्रोत के विरूद्ध हो तो आप क्या करेंगे?” मैकलिन ने तर्क किया: “हम शायद यह पूरा विश्वास करते हो कि यह आदमी एक गलती कर रहा है। लेकिन यहोवा के गवाह ऐसा विश्वास करते हैं कि रक्त-आधान से . . . अनन्त विनाश [हो सकता] है। हमें चिकित्सा-शास्त्र में जोखिम/लाभ विशलेषण करने का प्रशिक्षण दिया जाता है, लेकिन यदि आप, अनन्त विनाश को पृथ्वी पर शेष जीवन से तुलना करें तो यह विशलेषण एक अलग दृष्टिकोण अपनाता है।”11 *
जर्नल पत्रिका के इस अंक में वरसिलो और डुप्रो12 * ने इन रे ऑसबॉर्न का हवाला दिया है जिससे आश्रितों की सुरक्षा निश्चय करने की रूचि को प्रकाशमय किया जा सके, परन्तु वह मामला कैसे सुलझाया गया? यह एक गम्भीर रूप से घायल दो छोटे बच्चों के पिता से सम्बन्धित था। न्यायालय ने फैसला किया कि यदि उसकी मृत्यु हो जाती है, तो उसके बच्चों की भौतिक और आत्मिक देखभाल रिश्तेदार करेंगे। इसी तरह से, हाल ही में अन्य मामलों में भी,13 * न्यायालय ने ऐसा कोई विवश करने वाली शासन अभिरूचि को नहीं पाया, जिससे मरीज़ के उपचार चुनाव को रद्द करना न्यायसंगत हो; उसके अत्याधिक आपत्तिजनक उपचार को प्राधिकृत करने के लिये न्यायिक हस्तक्षेप को अनुचित प्रमाणित किया गया।14 * विकल्प उपचार से मरीज़ स्वस्थ हो गया और उसने अपने परिवार की देखभाल फिर से आरम्भ कर दी।
क्या यह सच नहीं कि चिकित्सकों द्वारा सामना किए गए, या सम्भावित करने वाले, अधिकतम मामलों को लहू के बिना सम्भाला जा सकता है? हमने जो कुछ अध्ययन किया है या जो हम सबसे बेहतर जानते है, वह चिकित्सीय समस्याओं से सम्बन्धित है, फिर भी मरीज़ इन्सान है जिनके व्यक्तिगत मूल्यों और लक्ष्यों की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। अपनी प्राथमिकताओं, अपने नैतिक मूल्यों और विवेक के बारे में वह सबसे बेहतर जानते हैं, जिससे उनका जीवन सार्थक होता है।
गवाह रोगियों के धार्मिक विवेक का आदर करना हमारी निपुणताओं के लिये एक चुनौती हो सकती है। लेकिन जब हम इस चुनौती का सामना करते हैं, तो हम उन मूल्यवान मुक्तियों को महत्त्व देते हैं जो हम सब को प्रिय है। जैसे जॉन स्टुअर्ट मिल ने उपयुक्त ढ़ंग से लिखा: “कोई भी समाज जहाँ इन स्वतंत्रताओं का पूर्ण रूप से आदर नहीं किया जाता, वह स्वतंत्र नहीं है, चाहे उसकी सरकार का कोई भी रूप क्यों न हो . . . प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वास्थ्य का सही संरक्षक है चाहे वह शारीरिक, मानसिक या आत्मिक हो। मानवजाति को इस बात से अधिक लाभ होगा यदि वे एक दूसरे को अपनी पसन्द के अनुसार जीने दे, बजाय इसके कि जैसा दूसरों को भाता हो वैसा ही जीने के लिये मजबूर करें।”15 *
[REFERENCES]
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