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लहू–जीवन के लिये आवश्‍यक

लहू–जीवन के लिये आवश्‍यक

लहू–जीवन के लिये आवश्‍यक

आपके जीवन को लहू कैसे बचा सकता है? निसंदेह इसमें आपकी रूचि होगी क्योंकि लहू आपके जीवन से जुड़ा है। लहू आपके शरीर में ऑक्सीजन ले जाता है, कार्बन डाइऑक्साइड को निकालता है, आपको तापमान परिवर्तनो के अनुकूल बनाता है, और रोग के विरुद्ध लड़ने में आपकी सहायता करता है।

१६२८ में विल्यम हार्वे द्वारा रक्‍तवह-तन्त्र का मानचित्र बनाने से बहुत पहले यह बात जान ली गई थी कि जीवन लहू के साथ जुड़ा है। प्रमुख धर्मों की मूल नीतिशास्त्र एक जीवन-दाता के ऊपर केन्द्रित है, जिसने जीवन और लहू के बारे में अपने विचार व्यक्‍त किए हैं। एक यहूदी-मसीही वकील ने उनके बारे में कहा: “वह स्वयं सब मनुष्यों को जीवन और स्वास और सब कुछ देते हैं। क्योंकि हम उन्ही के द्वारा जीवित रहते और चलते फिरते और अस्तित्व रखते हैं।” *

जो लोग ऐसे जीवन-दाता पर विश्‍वास करते हैं, उन्हें इस बात पर भरोसा है कि उनके निर्देशन हमारे अनन्त भलाई के लिये है। एक इत्त्वानी भविष्यवक्‍ता ने उनका वर्णन ऐसे किया, “जो तुझे तेरे लाभ के लिये शिक्षा देते हैं, और जिस मार्ग में तुझे जाना है उसी मार्ग पर तुझे ले चलते हैं।” न्यू.व.

यशायाह ४८:१७ का वह आश्‍वासन बाइबल का एक भाग है, एक ऐसा पुस्तक जिसके नैतिक मूल्यों, जो सब मनुष्यों के लिये लाभदायक है, के लिए आदर किया जाता है। लहू के मानव प्रयोग के बारे में यह क्या कहती है? क्या यह बताती है कि लहू से जीवन कैसे बचाया जा सकता है? वास्तव में बाइबल स्पष्ट रूप से यह बताती है कि लहू एक जटिल जैविक द्रव से भी अधिक है। यह लहू का ४०० से अधिक बार ज़िक्र करती है और उसमें से कुछ संदर्भ जीवन की रक्षा से सम्बन्धित है।

एक प्रारम्भिक संदर्भ में, सृष्टिकर्ता ने घोषित किया: “सब चलने वाले जन्तु तुम्हारा आहार होंगे। . . . लेकिन तुम उस माँस को नहीं खाना जिसमें जीवन-लहू हो।” उन्होंने आगे कहा: “तुम्हारे जीवन-लहू के लिये मैं निश्‍चय ही लेखा लूँगा।” और फिर उन्होंने हत्या का निंदा किया। (उत्पति ९:३-६, न्यू इंटरनैशनल वर्शन) यह बात उन्होंने नूह से कही, एक सामूहिक पूर्वज जो यहूदियों, मुसलमानों और मसीहियों द्वारा उच्च आदर किया जाता है। इस तरह सृष्टिकर्ता का यह विचार कि लहू जीवन का प्रतिनिधित्व करता है, सारी मानवजाति को सूचित किया गया था। यह एक आहार सम्बन्धी नियम से अधिक था। स्पष्ट रूप से एक नैतिक सिद्धांत शामिल था। मानव लहू का बहुत अधिक महत्त्व है और इसका दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिये। बाद में सृष्टिकर्ता ने अधिक विस्तार से बताया, जिससे हम उन नैतिक मसलों को देख सकते हैं जो उन्होंने जीवन-लहू के साथ जोड़े है।

प्राचीन इस्राएल को नियम संहिता देते समय उन्होंने फिर से लहू का जिक्र किया। जबकि बहुत से लोग उस संहिता की बुद्धिमता और नीतिशास्त्र का आदर करते हैं, बहुत थोड़े लोग उसके लहू सम्बन्धी गम्भीर नियमों से अवगत हैं। उदाहरण के लिये: “फिर इस्राएल के घराने के लोगों में से या उनके बीच रहने वाले परदेसियों में से कोई मनुष्य क्यों न हो, जो किसी प्रकार का लहू खाए, मैं उस लहू खानेवाले के विमुख होकर, उसे उसके लोगों के बीच में से नाश कर डालूँगा। क्योंकि शरीर का प्राण लहू में रहता है।” (लैव्यव्यवस्था १७:१०, ११, तनख) फिर परमेश्‍वर ने बताया कि एक शिकारी ने मृत पशु के साथ क्या करना चाहिये: “वह उसके लहू को उंडेलकर धूलि से ढांप दे . . . किसी प्रकार के प्राणी के लहू को तुम न खाना, क्योंकि सब प्राणियों का प्राण उनका लहू ही है। जो कोई उसको खाए वह नाश किया जाएगा।”—लैव्यव्यवस्था १७:१३, १४, तनख.

विज्ञानी अब इस बात को मानते हैं कि यहूदी नियम संहिता, स्वास्थ्य के लिये लाभदायक थी। उदाहरण के लिये, नियम की माँग थी कि मलोत्सर्जन का स्थान छावनी के बाहर हो और उसे ढँक दिया जाए, और वे लोग ऐसा माँस नहीं खाँए जिससे रोग की अधिक सम्भावना हो। (लैव्यव्यवस्था ११:४-८, १३; १७:१५; व्यवस्थाविवरण २३:१२,१३) यद्यपि लहू के विषय में नियम के स्वास्थ्य पहलु थे, इस में और भी बहुत कुछ शामिल था। लहू का एक लाक्षणिक अर्थ था। यह सृष्टिकर्ता द्वारा दिए गए जीवन का चिन्ह था। लहू का विशेष सम्मान करने से, लोगों ने जीवन के लिये उन्हीं पर निर्भर रहने को दर्शाया था। जी हाँ, लहू नहीं लेने का उनके लिये मुख्य कारण यह नहीं था कि वह अस्वस्थ्यकर था, परन्तु यह कि परमेश्‍वर के लिये यह विशेष अर्थ रखता था।

नियम में बार-बार, लहू को जीवन पोषण के लिये प्रयोग करने पर, सृष्टिकर्ता द्वारा लगाए गए प्रतिबन्ध का वर्णन किया गया है। “लहू को नहीं खाना; उसे जल की नाईं भूमि पर उंडेल देना। उसे न खाना, इसलिये कि वह काम करने से जो यहोवा की दृष्टि में ठीक है, तेरा और तेरे बाद तेरे वंश का भी भला हो।”—व्यवस्थाविवरण १२:२३-२५, न्यू.इं.व; १५:२३; लैव्यव्यवस्था ७:२६, २७; यहेजकेल ३३:२५. *

आज, जैसे कुछ लोग तर्क करते हैं, उसके विपरीत, परमेश्‍वर के लहू पर नियम की उपेक्षा, तब भी नहीं करनी चाहिये जब कोई आपत्‌स्थिति हो जाए। एक युद्ध कालीन संकट में कुछ इस्राएली सिपाहियों ने जानवरों को मारकर “उनका माँस लहू समेत खाने लगे।” इस आपत्‌स्थिति को देखते हुए क्या उनके लिये अपने जीवन का पोषण करने के लिये लहू खाना उचित था? नहीं। उनके सेनापति ने ध्यान दिलाया कि उनका वह कार्य फिर भी गम्भीर रूप से गलत था। (१ शमूएल १४:३१-३५) इसलिये जीवन के समान बहुमूल्य, अपने स्तरों के बारे में कभी भी जीवन-दाता ने यह नहीं कहा कि आपत्‌स्थिति में उनकी उपेक्षा की जा सकती है।

लहू और सच्चे मसीही

मानव जीवन को लहू से बचाए जाने वाले प्रश्‍न पर, मसीहीयत की क्या स्थिति है?

यीशु सत्यनिष्ठा का एक मनुष्य था, इसलिये उनका गहरा आदर किया जाता है। वह जानते थे कि सृष्टिकर्ता ने कहा कि लहू लेना गलत था, और यह नियम बाध्यकारी था। इसलिये यह विश्‍वास करने का अच्छा कारण है कि इसके विपरीत कार्य करने के दबाव आने पर भी, लहू के उस नियम को यीशु बनाए रखते। यीशु ने “कोई गलती नहीं की, [और] कोई छल की बात उनके मुँह से न निकली।” (१ पतरस २:२२, नॉक्स) इस तरह से उन्होंने अपने अनुयायीयों के लिये एक नमूना रखा, जिसमें जीवन और लहू को आदर भी सम्मिलित था। (हम बाद में यह देखेंगे कि कैसे यीशु का अपना लहू, आपके जीवन पर प्रभाव डालने वाले इस अत्यावश्‍यक विषय में शामिल है।

ध्यान दें, यीशु की मृत्यु के सालों बाद क्या हुआ, जब एक प्रश्‍न उठा कि क्या मसीही बनने पर एक व्यक्‍ति को सारे इस्त्राएली नियमों का पालन करना है या नहीं। मसीही शासी निकाय की एक सभा में इसपर विचार-विमर्श हुआ, जिसमें प्रेरित भी उपस्थित थे। यीशु के सौतेले भाई याकूब ने उन लेखों का उल्लेख किया, जिनमें लहू से सम्बन्धित, नूह और इस्राएल राष्ट्र को दी गई आज्ञाएँ थी। क्या यह आज्ञाएँ मसीहियों पर बाध्यकारी होना था?—प्रेरितों के काम १५:१-२१.

उस सभा ने अपना निर्णय सारी कलीसियों को भेज दिया: मसीहियों के लिये यह आवश्‍यक नहीं है कि वह मूसा को दी गई नियम संहिता का पालन करें, लेकिन उनके लिये यह “आवश्‍यक” है कि “मूरतों के बलि किए हुओं से, और लहू से और गला घोंटे हुओं के माँस से (लहू सहित माँस) और व्यभिचार से परे रहो।” (प्रोरितों के काम १५:२२-२९) प्रोरित केवल एक विधि या एक आहार सम्बन्धी अध्यादेश ही नहीं प्रस्तुत कर रहे थे। इस आज्ञप्ति में मौलिक नीतियों से सम्बन्धित सिद्धान्त थे, जिनका प्रारम्भिक मसीहियों ने अनुपालन किया। लगभग एक दशक बाद भी उन्होंने स्वीकार किया कि उन्हें, “मूरतों के सामने बलि किए हुए माँस से और लहू से . . . और व्यभिचार से बचे रहना” है।—प्ररितों के काम २१:२५.

आप जानते हैं कि लाखों लोग गिरजा जाते हैं। उनमे से अधिकतर शायद इससे सहमत होंगे कि मसीही नीतियों में यह शामिल है कि मूर्तियों की उपासना और अश्‍लील अनैतिकता गलत है। लेकिन हमें यहाँ ध्यान देना है कि प्रोरितों ने लहू से परे रहने को उसी उच्च नैतिक स्तर पर रखा, जिसपर उन अन्य गलत कामों को रखा था, जिनसे दूर रहना है। उनकी आज्ञप्ति के अन्त में कहा गया: “यदि तुम ध्यानपूर्वक अपने आप को इन बातों से दूर रखोगे, तो तुम समृद्ध होंगे। तुम्हे अच्छी सेहत मिले।”—प्रोरितों के काम १५:२९. न्यू.व.

यह प्रोरितीक आज्ञप्ति बहुत समय तक बाध्यकारी समझी जाती रही। यूसीबिअस ने दूसरी शताब्दी के अन्त में, एक युवा स्त्री के बारे में बताया जिसने यातना से मरने के पहले यह कहा कि मसीहियों “को अविवेकी जानवरों का लहू भी खाने की आज्ञा नहीं है।” वह मरने के अधिकार का प्रयोग नहीं कर रही थी। वह जीना चाहती थी, लेकिन अपने सिद्धान्तों से समझौता नहीं कर सकती थी। क्या आप उन लोगों का आदर नहीं करते, जो व्यक्‍तिगत लाभ से ऊँचा दर्जा, सिद्धान्त को देते हैं?

विज्ञानी जोज़फ प्रीस्टली ने निर्णीत किया: “नूह को दिया गया, लहू खाने का निषेध उसकी आने वाली सभी पीढ़ियों के लिये बाध्य मालूम पड़ता है . . . यदि हम प्रारम्भिक मसीहियों के आचरण का अर्थ, प्रोरितों पर लगाए गए प्रतिबन्ध को समझते हैं, और उन मसीहियों को ऐसा नहीं समझा जा सकता कि वह उस बात के सार और विस्तार को न समझे हों, तो हम केवल इसी परिणाम पर पहुँचते हैं, कि इसका अभिप्राय सुनिश्‍चित तथा नित्य था; क्योंकि कई शताब्दियों तक मसीहियों ने लहू को खाने में प्रयोग नहीं किया।”

लहू के औषधीय उपयोग के विषय में क्या?

क्या लहू पर लगाए गए बाइबल-सम्बन्धी निषेध चिकित्सा के सभी उपयोगों को शामिल करता है, जैसे कि रक्‍त-आधान, जो नूह, मूसा, या प्रोरितों के समय में निश्‍चय ही अज्ञात था?

यद्यपि आधुनिक चिकित्सा में लहू का प्रयोग, उस समय में नहीं था, परन्तु लहू का औषधीय प्रयोग आधुनिक नहीं है। लगभग २,००० वर्षों तक मिस्रा तथा अन्य देशों में मानव “लहू कोढ़ के लिये सर्वश्रेष्ठ उपचार समझा जाता था।” जब अश्‍शूर राष्ट्र शिल्पविज्ञान में अग्रसर था तब एक चिकित्सक ने इस इलाज को बताया था, जो राजा इसर-हेद्दन के पुत्र पर किया गया था: “[राजकुमार] अब पहले से बेहतर है; मेरे प्रभु, जहाँपनाह, खुश हो सकते हैं। २२वे दिन से मैं (उसे) लहू पीने को दूँगा, वह (उसे) तीन दिन तक पियेगा। और तीन दिन मैं (उसे लहू) आन्तरिक भागों पर लेप के लिये दूँगा।” इसर-हेद्दन के इस्राएलियों के साथ व्यवहारिक सम्बन्ध थे। फिर भी, इस्राएलियों के पास परमेश्‍वर के नियम होने की वजह से, वह कभी भी लहू को दवाई की तरह नहीं पी सकते थे।

क्या रोमी समयों में लहू का औषधीय उपयोग किया जाता था? प्रकृतिवादी प्लाइनी (प्रोरितों कर समकालीन) और दूसरी शताब्दी का चिकित्सक, आर्टियुस ने बताया कि मानव लहू मिरगी रोग का इलाज़ था। टर्टूलियन ने बाद में यह लिखा: “ध्यान दें कि अखाड़े के प्रदर्शन पर लालची प्यास वाले लोग, क्रूर अपराधियों के ताज़े लहू को लेते थे . . . और उसे अपने मिरगी रोग के निवारण के लिये ले जाते थे।” उसने उन्हें मसीहियों से विपरीत दिखाया जो “(अपने) भोजन में जानवरों का लहू भी उपयोग नहीं करते थे . . . मसीहियों के परीक्षणों में तुम उन्हें लहू से भरे सॉसेज (गुलमा) देते हो। तुम इस बात से निश्‍चय ही विश्‍वस्त हो कि (यह) उनके लिये अवैध है।” इसलिये प्रारम्भिक मसीही लहू लेने के बजाय, मृत्यु का जोखिम उठा लेते थे।

माँस और लहू (Flesh and Blood) नामक पुस्तक बताती है: “लहू का औषधीय और जादुई सामग्री के रूप में . . . दैनिक उपयोग में चलन मिट नहीं गया। उदाहरण के लिये, १४८३ में फ्रांस का लोइस XI मर रहा था। ‘प्रतिदिन उसकी हालत बिगड़ती गई, और उन दवाईयों से उसे कोई लाभ नहीं हुआ, जो विचित्र दंग की थी; क्योंकि वह बड़ी उत्सुकता से यह आशा कर रहा था कि उस मानव लहू से वह स्वस्थ हो जाएगा जो उसने कुछ बच्चों का लेकर पिया था।’”

लहू को शरीर में आधान करने के बारे में क्या? १६वीं शताब्दी के आरम्भ में इसपर प्रयोग शुरू किए गए। कोपेनहेगन विश्‍वविद्यालय के शरीररचना-विज्ञान के प्रोफ़ेसर, थॉमस बार्थोलिन (१६१६-८०) ने आपत्ति किया: ‘जो लोग मानव लहू को रोगों के आन्तरिक उपचार के लिये, शरीर के अन्दर लेते हैं वे इसका दुरूपयोग और घोर पाप करते हुए प्रतीत होते हैं। नरभक्षियों की निंदा की जाती है। मानव लहू से अपनी आहार-नली दूषित करने वालों से हम घृणा क्यों नहीं करते हैं? यह कटी हुई नस से पराया लहू लेने के समान है, चाहे वह मुँह से हो या आधान के उपकरणों द्वारा हो। इस प्रकार के संचालन आरम्भ करने वालों को, दैव्य नियम के अन्तर्गत जिसमें लहू को खाना निषेध है, आतंक का सामना करना पड़ेगा।’

इसलिये, बीती शताब्दियों में सोच-विचार करने वाले व्यक्‍तियों ने इस बात को महसूस किया कि बाइबल का नियम लहू को मुँह अथवा नसों से शरीर के अन्दर लेने के लिये लागू होता है। बार्थोलिन ने अन्त में कहा: “किसी भी तरीके से (लहू) लेने का एक ही उद्देश्‍य है कि उस लहू के द्वारा, एक रोगी शरीर को पोषण या पुनःस्वास्थ्य प्राप्त हो।”

इस विचार का निरीक्षण करने से आप, यहोवा के गवाहों द्वारा ली गई समझौता न करने के योग्य स्थिति को समझ सकते हैं। वे जीवन को बहुत मूल्यवान समझते हैं और अच्छी चिकित्सा की खोज करते हैं। लेकिन वे दृढ़ हैं कि वे परमेश्‍वर के उस स्तर का कभी भी उल्लघन नहीं करेंगे, जो अनुकूल रहा है: जो सृष्टिकर्ता द्वारा दिए गए उपहार के रूप में जीवन का आदर करते हैं, वे लहू द्वारा जीवन का पोषण करने की कोशिश नहीं करते हैं।

फिर भी, कई वर्षों से यह दावे किए जा रहे हैं कि लहू जीवन को बचाता है। डॉक्टर ऐसे अनुभवों को बता सकते हैं जिसमें किसी व्यक्‍ति को बहुत अधिक रक्‍तस्राव हुआ हो और लहू देने के बाद उसकी हालत में तुरन्त सुधार आया हो। इसलिये आप सोच सकते हैं, ‘चिकित्सीय रूप में, यह कितनी बुद्धिमानी या मूर्खता है?’ लहू रोगोपचार को बढ़ावा देने के लिये डॉक्टरी प्रमाण दिए जाते हैं। इसलिये यह आप पर निर्भर है कि आप उन तथ्यों को प्राप्त करें, जिससे आप लहू के बारे में एक सूचित चुनाव कर सकें।

[फुटनोट]

^ पौलुस, प्रोरितों के काम १७:२५, २८ में, न्यू वर्ल्ड ट्रान्सलेशन ऑफ द होलि स्क्रिपचर्स.

^ समरूप निषेधाज्ञाएँ बाद में क़ुरान में लिखी गई।

[पेज 4 पर बक्स]

“यह उपदेश जो सुस्पष्ट तथा सुव्यवस्थित ढंग से [प्रोरितों के काम १५ में] दिए गए हैं, अनिवार्य माने जाते हैं, इस बात का ठोस सबूत देते हुए कि प्रोरितों के मनों में यह अस्थायी व्यवस्था या एक अनन्तिम उपाय नहीं था।”—प्रोफेसर एडोआर्ड रिअस, युनिवर्सिटी ऑफ स्टैर्सबर्ग।

[पेज 5 पर बक्स/तसवीर]

प्रेरितीक आज्ञप्ति का तात्पर्य को मार्टिन लूथर ने संकेत किया: “अब यदि हम एक ऐसा चर्च चाहते हैं जो इस सभा के अनुसार काम करे, . . . तो हमें यह सिखाना और आग्रह करना होगा कि अबसे कोई भी राजकुमार, शासक, नागरिक या किसान, लहू में पकाए गए हंस, हरिनी, हिरन या सूअर के माँस को न खाए . . . और नागरिकों एवं किसानों को विशेष रूप से लाल सॉसेज और लहू के सॉसेज से दूर रहना है।”

[चित्र का श्रेय]

Woodcut by Lucas Cranach

[पेज 6 पर बक्स]

“परमेश्‍वर और मनुष्य, वस्तुओं को बहुत अलग दृष्टि से देखते हैं। जो हमारी नज़र में अत्यावश्‍यक प्रतीत होता है वह अधिकतर, अनन्त बुद्धि की तुलना में कुछ भी मूल्य नहीं रखता है; और जो हमारे लिये नगण्य है वह अधिकतर परमेश्‍वर के लिये बहुत अधिक महत्त्व रखता है। यह आरम्भ से ऐसा है।”—“ऐन इंक्वाइरी इनटू द लौफुलनेस्‌ ऑफ इटिंग ब्लड,” एलेक्ज़ेन्डर पीरी, १७८७.

[पेज 3 पर तसवीर]

Medicine and the Artist by Carl Zigrosser/Dover Publications

[पेज 4 पर तसवीर]

एक ऐतिहासिक सभा में मसीही शासी निकाय ने यह पुष्ठि किया कि लहू के विषय में परमेश्‍वरीय नियम, अभी भी बाध्यकारी है।

[पेज 7 पर तसवीर]

चाहे कोई भी परिणाम क्यों न हो, प्रारम्भिक मसीहियों ने लहू के परमेश्‍वरीय नियम का उल्लंघन करने से इन्कार किया

[चित्र का श्रेय]

Painting by Gérôme, 1883, courtesy of Walters Art Gallery, Baltimore