यीशु के नक्शेकदम पर चलिए
करुणा कीजिए
यीशु परिपूर्ण था, इसलिए उसने ऐसी बहुत-सी तकलीफें नहीं झेलीं जो बाकी लोग झेल रहे थे। फिर भी वह दूसरों का दुख-दर्द समझता था। वह आगे बढ़कर उनकी मदद करता था। उसने उनकी खातिर ऐसे काम भी किए जो इतने ज़रूरी नहीं लगते। बेशक, लोगों के लिए करुणा होने की वजह से उसने यह सब किया। अध्याय 32, 37, 57 और 99 में बतायी घटनाओं पर ध्यान दीजिए।
मिलनसार बनिए
छोटे-बड़े, सभी उम्र के लोग यीशु के पास बेझिझक जाते थे, क्योंकि वह घमंडी नहीं था और खुद को दूसरों से बड़ा नहीं समझता था। वह हर किसी का खयाल रखता था, इसलिए लोगों को उसके पास रहना अच्छा लगता था। इसकी कुछ मिसालें अध्याय 25, 27 और 95 में दी गयी हैं।
प्रार्थना में लगे रहिए
दिल खोलकर अपने पिता से प्रार्थना करना यीशु की आदत थी। वह अकेले में भी प्रार्थना करता था और तब भी जब वह दूसरों के साथ होता था। वह सिर्फ खाने से पहले नहीं, बल्कि दूसरे मौकों पर भी प्रार्थना करता था। वह प्रार्थना में अपने पिता का धन्यवाद करता था और उसकी तारीफ करता था। कोई भी बड़ा फैसला लेने से पहले वह मार्गदर्शन के लिए अपने पिता से प्रार्थना करता था। यीशु की कुछ प्रार्थनाओं के बारे में अध्याय 24, 34, 91, 122 और 123 में बताया गया है।
दूसरों की सोचिए
कभी-कभी जब यीशु को आराम की ज़रूरत थी, तब भी उसने लोगों की सेवा की। वह यह नहीं कहता था कि पहले मैं अपने बारे में सोचूँ, फिर दूसरों के बारे में सोचूँगा। यीशु के इस बढ़िया आदर्श पर चलने की हम पूरी कोशिश कर सकते हैं। वह कैसे दूसरों की खातिर खुद को दे देता था, यह जानने के लिए अध्याय 19, 41 और 52 देखिए।
माफ कीजिए
यीशु ने सिखाया कि हमें दूसरों को माफ करना चाहिए। उसने खुद भी चेलों और दूसरों की गलतियाँ माफ कीं। माफी के बारे में अध्याय 26, 40, 64, 85 और 131 में जो बताया गया है उस पर मनन कीजिए।
जोश से सेवा कीजिए
शास्त्र में पहले से बताया गया था कि ज़्यादातर यहूदी यीशु को मसीहा नहीं मानेंगे और उसके दुश्मन उसे मार डालेंगे। यीशु चाहता तो सोच सकता था कि मैं लोगों की खातिर थोड़ा-बहुत करूँगा, ज़्यादा कुछ नहीं करूँगा, क्योंकि वैसे भी ज़्यादातर लोग मुझे मसीहा नहीं माननेवाले। मगर यीशु ने ऐसा नहीं सोचा। उसने पूरे जोश से काम किया और सच्ची उपासना को आगे बढ़ाने के लिए उसने बहुत कुछ किया। यीशु से उन मसीहियों को बहुत हिम्मत मिल सकती है जिनके संदेश पर लोग ध्यान नहीं देते या जिनका लोग विरोध करते हैं। अध्याय 16, 72 और 103 देखिए।
नम्र बनिए
यीशु कई मामलों में अपरिपूर्ण इंसानों से श्रेष्ठ था। उसके पास उनसे ज़्यादा ज्ञान और बुद्धि थी। परिपूर्ण होने की वजह से उसमें बाकी लोगों से ज़्यादा दमखम था और उसका दिमाग भी दूसरों से तेज़ था। लेकिन फिर भी उसने खुद को दूसरों से बड़ा नहीं समझा बल्कि उनकी सेवा की। अध्याय 10, 62, 66, 94 और 116 में नम्रता के बारे में समझाया गया है।
सब्र रखिए
जब यीशु के चेले और दूसरे लोग उसके जैसा व्यवहार नहीं करते या उसने जैसा बताया वैसा नहीं करते, तो वह भड़क नहीं जाता था। वह सब्र रखता था और उन्हें फिर से वही बातें सिखाता था ताकि वे यहोवा के करीब आ सकें। अध्याय 74, 98, 118 और 135 में यीशु के सब्र के बारे में जो लिखा है, उस पर मनन कीजिए।