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परमेश्‍वर ने दुष्टता की अनुमति क्यों दी है?

परमेश्‍वर ने दुष्टता की अनुमति क्यों दी है?

अध्याय ११

परमेश्‍वर ने दुष्टता की अनुमति क्यों दी है?

१. (क) आज पृथ्वी पर क्या स्थिति है? (ख) कुछेक लोगों को क्या शिकायत है?

आप दुनिया में जहाँ भी देखते हैं वहाँ अपराध घृणा और विपत्ति है। प्रायः निर्दोष व्यक्‍ति ही इससे दुःख उठाते हैं। कुछ लोग परमेश्‍वर को दोषी ठहराते हैं। वे शायद यह कहें ‘यदि परमेश्‍वर है, तो वह क्यों इन सब भयंकर बातों के होने की अनुमति देता है?’

२. (क) वे कौन हैं जो दुष्ट कार्य कर रहे हैं? (ख) पृथ्वी पर अधिकतर दुःख कैसे रोके जा सकते थे?

फिर भी वे कौन हैं जो दूसरों के साथ दुष्ट कार्य करते हैं? वे मनुष्य हैं न कि परमेश्‍वर। परमेश्‍वर दुष्ट कार्यों की निन्दा करता है। वास्तविकता यह है कि यदि मनुष्य परमेश्‍वर के नियम का पालन करते होते, तो पृथ्वी पर अधिकतर दुःख न होते। वह हमें दूसरों से प्रेम करने का आदेश देता है। वह कत्ल, चोरी, परगमन, लालच, नशा और अन्य अनुचित कार्य जिनसे मनुष्य दुःख उठाते हैं, करने से मना करता है। (रोमियों १३:९; इफिसियों ५:३, १८) परमेश्‍वर ने आदम और हव्वा को एक अद्‌भुत मस्तिष्क और शरीर के साथ बनाया था, और पूर्ण रूप से जीवन का आनन्द उठाने की योग्यता भी दी थी। वह यह कभी नहीं चाहता था कि वे या उनकी सन्तान दुःख उठाये या परेशानी अनुभव करे।

३. (क) दुष्टता के लिये कौन उत्तरदायी हैं? (ख) किस बात से प्रदर्शित होता है कि आदम और हव्वा शैतान के प्रलोभनों का मुकाबला कर सकते थे?

वह शैतान अर्थात्‌ इबलीस था जिसने पृथ्वी पर दुष्टता का आरंभ किया था। परन्तु इसमें आदम और हव्वा का भी दोष था। जब इबलीस ने उनको प्रलोभित किया तब वे इतने कमज़ोर नहीं थे कि उसका मुकाबला नहीं कर सकते थे। वे शैतान को कह सकते थे कि “दूर हो जा” जिस प्रकार आगे चलकर सिद्ध पुरुष यीशु ने कहा था। (मत्ती ४:१०) परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। और इसके परिणामस्वरूप वे अपूर्ण बन गये। उनकी सारी सन्तान ने जिनमें हम भी सम्मिलित हैं उस अपूर्णता को विरासत में प्राप्त किया है जो अपने साथ बीमारी, दुःख और मृत्यु लायी है। (रोमियों ५:१२) परन्तु परमेश्‍वर ने क्यों दुःखों को जारी रहने की अनुमति दी है?

४. किस बात से हमें यह समझने में सहायता मिलती है कि एक स्नेही परमेश्‍वर ने अल्पकाल के लिए दुष्टता की अनुमति दी है?

एक व्यक्‍ति शायद आरंभ में यही सोचे कि परमेश्‍वर के पास इस बात का इतना बड़ा कारण नहीं हो सकता है कि वह उन सारे मानव दुःखों को रहने की अनुमति दे जो शताब्दियों से अनुभव किये जा रहे हैं। फिर भी क्या इस प्रकार का निष्कर्ष निकालना उचित है? क्या वे मां-बाप जो अपने बच्चों को वास्तव में प्यार करते हैं उनकी कोई शारीरिक समस्या को दूर करने के लिये उनका कष्टदायक ऑपरेशन कराने की अनुमति नहीं देते हैं? हाँ, इस अल्पकालिक दुःख उठाने की अनुमति ने बच्चों के लिये आगे जीवन में अच्छे स्वास्थ्य का आनन्द उठाना अक्सर संभव किया है। दुष्टता को रहने की परमेश्‍वर ने जो अनुमति दी है उससे क्या भलाई उत्पन्‍न हुई है?

एक महत्वपूर्ण विषय का फैसला किया जाना

५. (क) शैतान ने कैसे परमेश्‍वर के कथन का खंडन किया? (ख) शैतान ने हव्वा को क्या वचन दिया?

अदन के बाग में परमेश्‍वर के विरुद्ध जो विद्रोह हुआ था उसने एक महत्वपूर्ण विषय अथवा प्रश्‍न उठाया था। यह समझने के लिये कि परमेश्‍वर ने दुष्टता को क्यों रहने की अनुमति दी है, हमें इसकी जाँच-पड़ताल करने की आवश्‍यकता है। यहोवा परमेश्‍वर ने आदम को उद्यान के एक निश्‍चित वृक्ष में से खाने के लिये मना किया था। यदि आदम उसमें से खाता तो क्या घटित होता? परमेश्‍वर ने कहा: “तू अवश्‍य ही मर जायेगा।” (उत्पत्ति २:१७) तथापि शैतान ने यथार्थ रूप से उसके विपरीत बात कही। उसने आदम की पत्नी हव्वा से कहा कि वह आगे बढ़कर उस निषिद्ध वृक्ष से खा ले। “तू अवश्‍य नहीं मरेगी” शैतान ने कहा। वास्तव में वह हव्वा से यह कहने लगा: “क्योंकि परमेश्‍वर जानता है कि जिस दिन तुम उसमें से खाओगे तुम्हारी आँखें खुल जायेंगी और तुम्हें भले-बुरे का ज्ञान हो जायेगा और तुम परमेश्‍वर के तुल्य हो जाओगे।”—उत्पत्ति ३:१-५.

६. (क) हव्वा ने परमेश्‍वर की आज्ञा का उल्लंघन क्यों किया था? (ख) निषिद्ध वृक्ष से खाने का क्या अर्थ था?

हव्वा ने परमेश्‍वर की आज्ञा का उल्लंघन किया और उसमें से खा लिया। क्यों? इसलिए कि हव्वा ने शैतान पर विश्‍वास किया। उसने स्वार्थ रूप से यह सोचा कि वह परमेश्‍वर की अवज्ञा करके लाभान्वित होगी। उसने मन में यह तर्क किया कि अब उसे या आदम को परमेश्‍वर के प्रति जवाबदेही करने की आवश्‍यकता नहीं रहेगी। फिर उन्हें कभी उसके नियमों की अधीनता को स्वीकार नहीं करना पड़ेगा। वे अपने लिये स्वयं निर्णय कर सकते हैं कि उनके लिये क्या “अच्छा” है और क्या “बुरा” है। आदम ने हव्वा को साथ दिया और उसमें से खा लिया। परमेश्‍वर के विरुद्ध मनुष्य के प्रारंभिक पाप पर विचार-विमर्श करते हुए जेरूसलम बाइबल में दी हुई पाद-टिप्पणी यह कहती है: “क्या अच्छा है और क्या बुरा है इस विषय में उसका अपने लिये निर्णय करने और उसके अनुसार कार्य करने की क्षमता पूर्ण नैतिक स्वतंत्रता का दावा करना है . . . यह प्रथम पाप परमेश्‍वर की प्रभुसत्ता पर एक आक्रमण था।” इसका यह अर्थ है कि वह परमेश्‍वर का मनुष्य पर निरपेक्ष शासक अथवा उच्च अधिकारी होने के अधिकार पर आक्रमण था।

७. (क) मनुष्य की अवज्ञा से क्या वाद-विषय उठा था? (ख) इस वाद-विषय से संबंधित किन प्रश्‍नों का उत्तर देना आवश्‍यक है?

अतः निषिद्ध फल खाकर आदम और हव्वा ने अपने आपको परमेश्‍वर की शासकता की अधीनता से हटा लिया। वे अपनी मरजी के मालिक बन गये और अपने निजी निर्णयों के अनुसार क्या “अच्छा,” क्या “बुरा” कार्य करने लगे। अतः वह महत्वपूर्ण विषय अथवा प्रश्‍न जो उठा वह यह था: क्या परमेश्‍वर को मानवजाति पर निरपेक्ष शासक होने का अधिकार है? दूसरे शब्दों में क्या यहोवा परमेश्‍वर ही वह व्यक्‍ति है जो मनुष्यों के लिये क्या अच्छा, क्या बुरा होने का फैसला करता है? क्या वही वह व्यक्‍ति है जो यह बताता है कि क्या उचित आचरण है और क्या उचित नहीं है? या क्या मनुष्य अपने आप पर शासन करने का कार्य अच्छी तरह कर सकता है? किसकी शासन-रीति उत्तम है? क्या मनुष्य शैतान के अदृश्‍य निर्देशन के अधीन, यहोवा परमेश्‍वर के निर्देशन के बिना सफलतापूर्वक शासन कर सकता है? क्या उस न्याययुक्‍त राज्य की स्थापना के लिये जो पृथ्वी पर स्थायी शांति लायेगा, परमेश्‍वर के पथ-प्रदर्शन की आवश्‍यकता है? इस प्रकार के ये सब प्रश्‍न परमेश्‍वर की प्रभुसत्ता पर, अर्थात्‌ उसके मानवजाति का केवल एकमात्र और निरपेक्ष शासक होने के अधिकार पर इस आक्रमण के द्वारा उठे थे।

८. यहोवा ने तुरन्त उन विद्रोहियों को क्यों नहीं नष्ट किया था?

निश्‍चय ही, जब विद्रोह हुआ था तब उसी समय यहोवा परमेश्‍वर उन तीनों विद्रोहियों को नष्ट कर सकता था। इसमें कोई सन्देह नहीं था कि वह शैतान अथवा आदम और हव्वा से अधिक शक्‍तिशाली था। परन्तु उनको नष्ट कर देने से इन विषयों का फैसला उत्तम तरीके से नहीं हो पाया। उदाहरणतया, उससे इस प्रश्‍न का उत्तर नहीं मिलता कि क्या मनुष्य परमेश्‍वर की सहायता के बिना सफलतापूर्वक स्वयं पर शासन कर सकते थे। अतः यहोवा परमेश्‍वर ने इस महत्वपूर्ण वाद विषय का निर्णय करने के लिये जो उठा था, समय की अनुमति दी।

वाद विषय का निर्णय किया जाना

९, १०. परमेश्‍वर के पथ-प्रदर्शन के बिना मनुष्यों का अपने आप पर शासन करने के प्रयत्नों के क्या परिणाम हुए हैं?

अब जब इतना समय बीत चुका है तब उसका परिणाम क्या रहा है? आप इस विषय में क्या कहेंगे? क्या इतिहास के गत ६,००० वर्षों ने प्रदर्शित किया है कि मनुष्य परमेश्‍वर के पथ-प्रदर्शन के बिना स्वयं पर शासन करने में सफल रहे हैं? क्या मनुष्यों ने सब लोगों की आशीष और खुशी के लिये एक अच्छी सरकार प्रदान की है? और क्या इतिहास के अभिलेख ने यह प्रदर्शित किया है कि यिर्मयाह नबी के ये शब्द सही है: “मनुष्य जो चलता है परन्तु वह अपने कदमों का निर्देशन नहीं कर सकता है।”—यिर्मयाह १०:२३.

१० सम्पूर्ण इतिहास में सब प्रकार की सरकारें आज़मायी गयी हैं परन्तु उनमें कोई भी उन सब के लिये जो उनके शासन के अधीन थे, वास्तविक खुशी और असुरक्षा नहीं लायी। कुछ व्यक्‍ति शायद उन्‍नति के चिन्हों की ओर संकेत करें। परन्तु जब तीर-कमान के स्थान पर परमाणु बम का प्रयोग हुआ है और जब दुनिया एक दूसरे विश्‍वयुद्ध के भीषण भय में ग्रस्त है तो क्या एक व्यक्‍ति इसको वास्तविक उन्‍नति कह सकता है? यह किस प्रकार की उन्‍नति है कि जब मनुष्य चाँद पर चल सकते हैं, परन्तु पृथ्वी पर एक दूसरे के साथ शान्तिपूर्वक नहीं रह सकते हैं? मनुष्यों का हर प्रकार की आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित घरों के निर्माण करने से क्या फायदा जब उनमें रहने वाले परिवारों के मध्य समस्याओं के कारण फूट पड़ी है? क्या दंगे-फसाद संपत्ति और जानों का विनाश और विस्तृत अराजकता इत्यादि ऐसी परिस्थितियाँ हैं जिनपर गर्व किया जा सकता है? बिल्कुल नहीं! परन्तु ये सब मनुष्यों का परमेश्‍वर से अलग होकर स्वयं शासन करने के प्रयत्नों का प्रतिफल है।—नीतिवचन १९:३.

११. अतः प्रत्यक्षतः मनुष्यों को किस बात की आवश्‍यकता है?

११ इसका प्रमाण सभी पर स्पष्ट होना चाहिये? मनुष्य के परमेश्‍वर से स्वतंत्र होकर स्वयं पर राज्य करने के प्रयत्न भयंकर रूप से असफल रहे हैं! इससे अत्यधिक मानव दुःख उत्पन्‍न हुए हैं। बाइबल व्याख्या करती है: “मनुष्य ने मनुष्य पर अधिकारी होकर उसे हानि पहुँचायी है।” (सभोपदेशक ८:९) स्पष्ट है कि मनुष्यों को अपने कार्यों का संचालन करने के लिये परमेश्‍वर के पथ-प्रदर्शन की आवश्‍यकता है। जिस प्रकार परमेश्‍वर ने मनुष्य को भोजन खाने और पानी पीने की आवश्‍यकता के साथ सृष्ट किया, उसी प्रकार मनुष्य को परमेश्‍वर के नियमों का पालन करने की आवश्‍यकता के साथ बनाया गया था। यदि मनुष्य परमेश्‍वर के नियमों की उपेक्षा करता है, तो वह उसी प्रकार विपत्ति में पड़ेगा जिस प्रकार यदि वह अपने शरीर की आवश्‍यकता अर्थात्‌ भोजन और पानी की उपेक्षा करे तो वह निश्‍चय दुःख उठायेगा।—नीतिवचन ३:५, ६.

इतनी देर क्यों?

१२. परमेश्‍वर ने क्यों इस वाद-विषय का फैसला करने के लिए इतने लंबे समय की अनुमति दी?

१२ तथापि, एक व्यक्‍ति शायद यह पूछे, ‘परमेश्‍वर ने इस वाद विषय का फैसला करने के लिये इतना अधिक समय व्यतीत होने की अनुमति क्यों दी है जो अब लगभग ६,००० वर्ष हो चुक हैं? क्या बहुत समय पहले सन्तोषप्रद रीति से उसका फैसला नहीं किया जा सकता था?’ वस्तुतः नहीं। यदि परमेश्‍वर बहुत समय पहले हस्तक्षेप करता तो यह इल्ज़ाम लगाया जा सकता था कि मनुष्यों को शासन में तजुर्बा प्राप्त करने को काफ़ी समय नहीं मिला। परन्तु जैसा कि हम देखते हैं, मनुष्यों को ऐसा राज्य विकसित करने का पर्याप्त समय मिला है, जो प्रजा की तमाम आवश्‍यकताओं को पूरा करता और इसके साथ ही साथ वैज्ञानिक आविष्कार करता जो सबकी समृद्धि में सहायक सिद्ध हो सकते थे। शताब्दियों से मनुष्य ने लगभग प्रत्येक प्रकार की सरकार को आज़माया है। और विज्ञान के क्षेत्र में उनकी उन्‍नति उल्लेखनीय रही है। उन्होंने परमाणु का प्रयोग किया है और चन्द्रमा पर गये हैं। परन्तु इन सब का परिणाम क्या रहा है? क्या ये सब मानवजाति की आशीष के लिये एक महान नयी व्यवस्था लाये हैं?

१३. (क) मनुष्य की सारी वैज्ञानिक उन्‍नति के बावजूद आज स्थिति क्या है? (ख) स्पष्टतया यह क्या सिद्ध करता है?

१३ बिल्कुल नहीं! इसकी अपेक्षा, पृथ्वी पर पहले से कई ज्यादा दुःख और मुसीबतें पैदा हो गयी हैं। वास्तविकता यह है, कि अपराध, प्रदूषण, युद्ध पारिवारिक जीवन की समाप्ति और अन्य समस्याएं उस ख़तरनाक स्थिति पर पहुँच गयी हैं कि वैज्ञानिक ये विश्‍वास करने लगे हैं कि स्वयं मनुष्य का अस्तित्व खतरे में है। हाँ, स्वशासन में करीब ६,००० वर्षों का तजुर्बा प्राप्त करने के बाद, और वैज्ञानिक “उन्‍नति” के शिखर पर पहुँचने के बाद मानवजाति के सम्मुख स्वनाश है! यह बात कितनी स्पष्ट हो जाती है कि मनुष्य परमेश्‍वर से अलग होकर सफलतापूर्वक स्वयं शासन नहीं कर सकते हैं! न ही कोई अब यह शिकायत कर सकता है कि परमेश्‍वर ने इस वाद विषय निर्णय करने के लिये पर्याप्त समय नहीं दिया

१४. एक अन्य महत्वपूर्ण वाद-विषय की जाँच-पड़ताल करने के लिए जिसे शैतान ने उठाया था, हमें क्यों प्रोत्साहित होना चाहिये?

१४ निश्‍चय परमेश्‍वर के पास इस बात का उचित कारण रहा है कि उसने शैतान के शासन की अधीनता में मनुष्यों को वह दुष्टता उत्पन्‍न करने की अनुमति दी जो इतने समय से मौजूद रही है। शैतान ने अपने विद्रोह से एक दूसरा वाद-विषय उठाया जिसका निर्णय करने के लिए भी समय की आवश्‍यकता है। इस वाद विषय की जाँच-पड़ताल हमें यह समझने में अतिरिक्‍त सहायता प्रदान करेगी कि क्यों परमेश्‍वर ने दुष्टता के रहने की अनुमति दी। आपको विशेष रूप से इस वाद विषय में रुचि लेनी चाहिए क्योंकि आप वैयक्‍तिक रूप से इसमें अंतर्ग्रस्त हैं।

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज १०० पर तसवीरें]

एक उचित कारण से माता-पिता अपने प्रिय बालक के लिए कष्टदायक ऑपरेशन होने की अनुमति देंगे। परमेश्‍वर के पास भी उचित कारण है कि वह मनुष्यों को अल्पकाल के लिये दुःख उठाने की अनुमति देता है

[पेज १०१ पर तसवीरें]

आदम और हव्वा ने उस निषिद्ध फल को खाकर परमेश्‍वर की शासकता को त्याग दिया। वे क्या भला है और क्या बुरा है, इस संबंध में स्वयं अपने निर्णय करने लगे

[पेज १०३ पर तसवीरें]

जिस प्रकार मनुष्य भोजन खाने और जल पीने की आवश्‍यकता के साथ सृष्ट किया गया था उसी प्रकार वह परमेश्‍वर का पथ-प्रदर्शन लेने की आवश्‍यकता के साथ भी सृष्ट किया गया था