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जीवन कहानी

माता-पिता से मिली अनमोल विरासत से मैं खूब फला-फूला

माता-पिता से मिली अनमोल विरासत से मैं खूब फला-फूला

रात का घना अँधेरा था। हम नाइजर नदी के सामने खड़े थे। करीब डेढ़ किलोमीटर चौड़ी यह विशाल नदी तेज़ी से बह रही थी। उन दिनों नाइजीरिया में गृह-युद्ध चल रहा था। ऐसे में नदी को पार करना खतरे से खाली नहीं था, जान भी जा सकती थी। फिर भी हमें यह जोखिम उठाना पड़ा, वह भी एक बार नहीं, कई बार। आखिर हमने यह जोखिम क्यों उठाया? चलिए मैं आपको शुरू से बताता हूँ।

मेरे पिताजी का नाम जॉन मिल्ज़ था। उन्होंने 1913 में 25 साल की उम्र में न्यू यॉर्क सिटी में बपतिस्मा लिया। भाई रसल ने उनके बपतिस्मे का भाषण दिया था। कुछ ही समय बाद पिताजी ट्रिनिडाड द्वीप चले गए। फिर एक जोशीली बहन कॉन्सटन्स फार्मर से उनकी शादी हो गयी। वहाँ पिताजी अपने दोस्त विलियम आर. ब्राउन की मदद किया करते थे, जो लोगों को “सृष्टि का चलचित्र” (फोटो-ड्रामा ऑफ क्रिएशन) दिखाते थे। वे साथ मिलकर काफी समय तक यह काम करते रहे। फिर 1923 में भाई और बहन ब्राउन को पश्‍चिम अफ्रीका में सेवा करने के लिए भेजा गया। लेकिन मेरे माता-पिता ट्रिनिडाड में ही सेवा करते रहे। उन दोनों को स्वर्ग में जीने की आशा थी।

हमारे माता-पिता को हमसे बहुत प्यार था

हम नौ भाई-बहन थे। हमारे सबसे बड़े भाई का नाम भाई रदरफर्ड के नाम पर रखा गया, जो उस समय वॉच टावर बाइबल एंड ट्रैक्ट सोसाइटी के अध्यक्ष थे। उसके बाद 30 दिसंबर, 1922 में मेरा जन्म हुआ। मेरा नाम भाई वुडवर्थ के नाम पर रखा गया, जो स्वर्ण युग  यानी सजग होइए!  के संपादक थे। मेरे माता-पिता ने हम सबको बुनियादी शिक्षा दिलवायी, लेकिन उन्होंने खासकर हमें यहोवा की सेवा में लक्ष्य रखने का बढ़ावा दिया। माँ शास्त्र से तर्क करने और दलीलें देकर यकीन दिलाने में बहुत माहिर थीं। वहीं पिताजी हम बच्चों को बड़े शौक से बाइबल की कहानियाँ सुनाते थे। वे हाव-भाव करके इस तरह कहानी सुनाते थे कि हमें लगता था, वह घटना हमारी आँखों के सामने हो रही है।

उनकी मेहनत रंग लायी। हम पाँच भाइयों में से तीन भाई गिलियड स्कूल गए और चार बहनों में से तीन ने कई सालों तक ट्रिनिडाड और टोबेगो में पायनियर सेवा की। मेरे माता-पिता ने अपनी शिक्षाओं और अच्छी मिसाल से हम बच्चों की इस तरह परवरिश की, मानो हमें पौधे की तरह “यहोवा के भवन में” लगाया गया हो। वे हमेशा हमारी हिम्मत बँधाते थे, जिस वजह से हम ‘परमेश्‍वर के आँगनों में फल-फूल’ रहे हैं।​—भज. 92:13.

भाई-बहन हमारे घर पर प्रचार के लिए मिलते थे। जब पायनियर हमारे यहाँ इकट्ठा होते थे, तो वे अकसर भाई जॉर्ज यंग के बारे में बात करते थे। वे कनाडा के रहनेवाले एक मिशनरी थे और ट्रिनिडाड में सेवा कर चुके थे। मेरे माता-पिता, भाई और बहन ब्राउन के बारे में बड़े जोश से बताते थे, जो उस समय पश्‍चिम अफ्रीका में सेवा कर रहे थे। इन सबकी बातें सुनकर मेरे अंदर जोश भर आया और मैंने दस साल की उम्र में प्रचार करना शुरू कर दिया।

शुरूआती सेवा

उन दिनों हमारी पत्रिकाएँ झूठे धर्म, लालची व्यापार जगत और भ्रष्ट सरकारों का सीधे-सीधे परदाफाश करती थीं। इस वजह से 1936 में पादरियों ने ट्रिनिडाड के राज्यपाल को भड़काया कि वह द्वीप में वॉच टावर के कोई भी प्रकाशन न आने दे। हमने सारी किताबें-पत्रिकाएँ छिपा दीं, लेकिन हम प्रचार में इन्हें तब तक देते रहे, जब तक ये खत्म नहीं हो गयीं। हम अलग-अलग तरीकों से प्रचार करते थे। जैसे, गले में पोस्टर लटकाकर पैदल चलना या एक-साथ साइकिल पर निकलना और लोगों में परचे बाँटना। टूनापूना से प्रचारकों का एक समूह लाउडस्पीकरवाली गाड़ी लेकर आया था। हमने उनके साथ ट्रिनिडाड के दूर-दराज़ इलाकों में भी प्रचार किया। हमें बहुत मज़ा आया! इन कामों से मुझमें जोश भर आया और मैंने 16 साल की उम्र में बपतिस्मा ले लिया।

टूनापूना से प्रचारकों का एक समूह लाउडस्पीकरवाली गाड़ी के साथ

इस तरह के अनुभवों से और मेरे माता-पिता ने बचपन से जिस तरह मुझे सिखाया, उसकी वजह से मुझमें मिशनरी बनने का जज़्बा पैदा हुआ। सन्‌ 1944 में मैं अरूबा द्वीप चला गया और वहाँ भाई एडमंट डब्ल्यू. कमिंग्स के साथ सेवा करने लगा। लेकिन मुझमें मिशनरी बनने का जज़्बा अब भी था। हम यह देखकर बहुत खुश हुए कि 1945 में अरूबा में दस लोग स्मारक में आए। अगले साल इस द्वीप पर पहली मंडली बन गयी।

औरिस से शादी करके मेरी ज़िंदगी में एक नया मोड़ आया

कुछ समय बाद मैंने अपनी एक सहकर्मी औरिस विलियम्स को गवाही दी। उसने अपनी शिक्षाओं को सही ठहराने की पूरी कोशिश की। लेकिन जब उसने बाइबल अध्ययन करना शुरू किया, तो उसे पता चला कि असल में सच्चाई क्या है। फिर 5 जनवरी, 1947 में उसने बपतिस्मा ले लिया। कुछ समय बाद हम दोनों को प्यार हो गया और हमारी शादी हो गयी। नवंबर 1950 से औरिस पायनियर सेवा करने लगी। औरिस से शादी करके मेरी ज़िंदगी में एक नया मोड़ आया और हम खुशी-खुशी सेवा करने लगे।

नाइजीरिया में सेवा करने की खुशी

सन्‌ 1955 में हमें गिलियड स्कूल में जाने का खास सम्मान मिला। इसके लिए हम दोनों ने अपनी नौकरी छोड़ दी, घर और दूसरी चीज़ें बेच दीं और अरूबा से रवाना हो गए। उनतीस जुलाई, 1956 में हम गिलियड की 27वीं क्लास से ग्रैजुएट हुए। हमें नाइजीरिया में सेवा करने के लिए भेजा गया।

सन्‌ 1957 में नाइजीरिया के लागोस में बेथेल परिवार के साथ

उन दिनों के बारे में औरिस का कहना था, “एक मिशनरी की ज़िंदगी में कई उतार-चढ़ाव आते हैं, लेकिन यहोवा की पवित्र शक्‍ति की मदद से वह बदलते हालात में खुद को ढाल लेता है। मैं अपने पति की तरह नहीं थी, मैं कभी मिशनरी नहीं बनना चाहती थी। मैं चाहती थी कि मेरा अपना एक घर हो और मेरे बाल-बच्चे हों। लेकिन स्कूल के दौरान मुझे एहसास हुआ कि प्रचार करना कितना ज़रूरी है। इससे मेरी सोच बदलने लगी। जब स्कूल खत्म होने पर आया, तब मैं मिशनरी सेवा के लिए पूरी तरह तैयार थी। फिर वह दिन आया, जब हमें नाइजीरिया के लिए रवाना होना था। हम क्वीन मैरी  जहाज़ पर सवार हुए कि तभी भाई नॉर के साथ काम करनेवाले भाई वर्थ थॉर्नटन हमें अलविदा कहने आए। उन्होंने हमें बताया कि नाइजीरिया में हमें बेथेल में सेवा करनी है। यह सुनकर मैं थोड़ी निराश हो गयी। लेकिन बेथेल पहुँचने के बाद जल्द ही मैंने वहाँ के माहौल में खुद को ढाल लिया। मुझे बेथेल सेवा से लगाव हो गया। वहाँ मैंने अलग-अलग विभागों में काम किया। मेरा मनपसंद काम था, रिसेप्शन में लोगों का स्वागत करना। मुझे लोगों से मिलना-जुलना पसंद है और इस काम की वजह से मैं नाइजीरिया के अलग-अलग भाई-बहनों से मिल पायी। कई लोग जब बेथेल पहुँचते थे, तो वे धूल-मिट्टी से सने होते थे, थके और भूखे-प्यासे होते थे। उन्हें कुछ खाने-पीने के लिए देना और उनकी हिम्मत बढ़ाना मुझे अच्छा लगता था। यह सब यहोवा के लिए मेरी पवित्र सेवा थी और इसी वजह से मुझे सच्ची खुशी और संतुष्टि मिलती थी।” वाकई, बेथेल में हमें जो भी काम मिला, उससे हम पौधे की तरह बढ़ने और फलने-फूलने लगे।

सन्‌ 1961 में जब हम अपने परिवार से मिलने ट्रिनिडाड गए, तो हमें भाई ब्राउन भी मिले। उन्होंने हमें कुछ रोमांचक अनुभव बताए जो उन्हें अफ्रीका में मिले थे। हमने उन्हें नाइजीरिया में होनेवाली बढ़ोतरी के बारे में बताया। भाई ब्राउन ने बड़े प्यार से मेरे कंधे पर हाथ रखा और पिताजी से कहा, “जॉनी, देख तेरे बेटे ने अफ्रीका जाने का तेरा सपना पूरा कर दिया।” तब पिताजी ने मुझसे कहा, “शाबाश बेटे! ऐसे ही करते रहो।” लंबे समय के इन जोशीले सेवकों की बातों से मेरा यह इरादा और मज़बूत हो गया कि मैं अपनी सेवा अच्छी तरह पूरी करूँ।

विलियम “बाइबल” ब्राउन और उनकी पत्नी आन्टोन्या ने हमारा बहुत हौसला बढ़ाया

सन्‌ 1962 में मुझे गिलियड की 37वीं क्लास में और भी प्रशिक्षण पाने के लिए बुलाया गया, जो दस महीने का कोर्स था। फिर गिलियड की 38वीं क्लास के लिए भाई विलफ्रेड गूच को बुलाया गया, जो उस समय नाइजीरिया के शाखा निगरान थे। क्लास के बाद उन्हें इंग्लैंड में सेवा करने के लिए भेजा गया। इस वजह से नाइजीरिया में शाखा निगरान की ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी गयी। मैंने भाई ब्राउन की तरह अलग-अलग जगहों का दौरा किया। इस दौरान मुझे नाइजीरिया के बहुत-से भाई-बहनों को करीब से जानने का मौका मिला। हालाँकि इन भाई-बहनों के पास अमीर देशों के मुकाबले कम चीज़ें थीं, फिर भी वे खुश और संतुष्ट रहते थे। इससे पता चलता है कि खुशहाल रहने के लिए पैसा या सुख-सुविधा की चीज़ें होना ज़रूरी नहीं है। ज़्यादा कुछ न होने के बावजूद वे साफ-सुथरे और सलीकेदार कपड़े पहनकर सभाओं में आते थे। यह देखकर मुझे बहुत खुशी होती थी। अधिवेशन के लिए बहुत-से भाई-बहन बड़े-बड़े ट्रकों और बोलाकेजस  * (ऐसी बसें जो दोनों तरफ से खुली होती थीं) में सफर करते थे। अकसर इन बसों पर कुछ दिलचस्प बातें लिखी होती थीं। उनमें से एक थी, “बूँद बूँद से सागर भरता है।”

यह कहावत कितनी सच है! नाइजीरिया में जो तरक्की हुई है, उसमें हर भाई-बहन की मेहनत लगी है। हमने भी अपनी तरफ से मेहनत की। सन्‌ 1974 के आते-आते नाइजीरिया अमरीका के बाद दूसरा देश था, जिसमें प्रचारकों की गिनती एक लाख तक पहुँच गयी थी। सच में, प्रचार काम खूब फला-फूला!

इसी दौरान 1967 से 1970 तक नाइजीरिया में गृह-युद्ध चला। नाइजर नदी के दूसरी तरफ बायफ्रा इलाके में रहनेवाले हमारे भाई कई महीनों तक शाखा दफ्तर से संपर्क नहीं कर पाए। इस वजह से हमें ही  प्रकाशन और संगठन से मिलनेवाले निर्देश उन तक पहुँचाने होते थे। जैसे मैंने शुरू में बताया था, हमने प्रार्थना करके और यहोवा पर भरोसा रखकर कई बार नाइजर नदी पार की।

मुझे आज भी वे दिन याद हैं। हमें अपनी जान पर खेलकर उस नदी को पार करना होता था! एक तरफ सरकारी सैनिक तैनात थे, जो हमें शक की नज़र से देखते थे और बहुत पूछताछ करते थे। ये कभी-भी गोली चला देते थे। वहीं दूसरी तरफ बायफ्रा में उग्रवादियों के दलों से बचकर निकलना खतरे से खाली नहीं था। इतना ही नहीं, बीमारियों का डर और दूसरे खतरे भी थे। एक बार रात में मैं एक छोटी नाव से असाबा शहर से ओनीचा शहर गया। फिर वहाँ से मैं एनूगू शहर गया, ताकि वहाँ निगरानी करनेवाले भाइयों की हिम्मत बँधा सकूँ। एक और मौके पर मैं आबा कसबे में प्राचीनों का हौसला बढ़ाने गया। वहाँ के अधिकारियों ने आदेश दिया था कि दुश्‍मनों से बचने के लिए रात को सभी लोग अपने घरों की बत्तियाँ बुझा दें। जब हम पोर्ट हारकर्ट शहर में एक सभा चला रहे थे, तब शहर के बाहर सरकारी सैनिक बायफ्रा उग्रवादियों की मोरचाबंदी तोड़कर अंदर आ गए। इस वजह से हमें प्रार्थना करके जल्दी सभा खत्म करनी पड़ी।

इस तरह की सभाएँ बहुत ज़रूरी थीं। इनसे भाइयों को यकीन हुआ कि यहोवा उनकी परवाह करता है। उन्हें यह भी सलाह दी गयी कि उन्हें निष्पक्ष रहना है और एकता बनाए रखनी है। युद्ध के उस भयानक दौर का हमारे भाई-बहनों ने अच्छे से सामना किया। जहाँ एक तरफ एक कबीले के लोग दूसरे कबीले से नफरत कर रहे थे, वहीं हमारे भाई-बहन एक-दूसरे से प्यार करते रहे और उनमें एकता बनी रही। उस मुश्‍किल दौर में उनके साथ होना बड़े सम्मान की बात थी।

सन्‌ 1969 में न्यू यॉर्क के यैंकी स्टेडियम में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन रखा गया, जिसका विषय था, “पृथ्वी पर शांति।” इस सम्मेलन के चेयरमैन भाई मिल्टन जी. हेन्शल थे और मैं उनका सहायक था। यह अनुभव मेरे बहुत काम आया, क्योंकि 1970 में हमने नाइजीरिया के लागोस शहर में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन रखा। उसका विषय था, “परमेश्‍वर को खुश करनेवाले लोग।” गृह-युद्ध खत्म हुए कुछ ही समय हुआ था। इतने कम समय में सम्मेलन की सारी तैयारियाँ करना और उसका अच्छे से हो पाना, यहोवा की मदद से ही मुमकिन था। यह सम्मेलन वाकई एक यादगार घटना थी! यह 17 भाषाओं में रखा गया था और इसमें 1,21,128 लोग हाज़िर हुए थे। भाई नॉर, भाई हेन्शल, साथ ही अमरीका और इंग्लैंड से दूसरे बहुत-से भाई-बहन आए हुए थे। इसमें 3,775 लोगों ने बपतिस्मा लिया, जो पिन्तेकुस्त के बाद अब तक की काफी बड़ी संख्या थी। इस अधिवेशन का इंतज़ाम करना शायद मेरी ज़िंदगी का सबसे व्यस्त समय था। यहाँ दूसरे देशों के मुकाबले बड़ी तेज़ी से प्रचारकों में बढ़ोतरी हुई!

“परमेश्‍वर को खुश करनेवाले लोग” अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में 1,21,128 लोग आए और यह ईबो को मिलाकर 17 भाषाओं में था

मैंने नाइजीरिया में 30 से भी ज़्यादा साल तक सेवा की। इस दौरान मुझे पश्‍चिम अफ्रीका में कभी-कभी सफरी निगरान और ज़ोन निगरान के तौर पर सेवा करने का भी सम्मान मिला। जब मैं मिशनरियों से निजी तौर पर मिलकर उनका हौसला बढ़ाता था, तो वे इसकी बहुत कदर करते थे। उन्हें इस बात का यकीन दिलाने से मुझे खुशी होती थी कि संगठन को उनकी बहुत परवाह है! इस काम से मैंने सीखा कि लोगों में निजी दिलचस्पी लेना कितना ज़रूरी है। इससे वे यहोवा की सेवा में फलते-फूलते हैं, संगठन मज़बूत होता है और उसमें एकता बनी रहती है।

गृह-युद्ध और बीमारियों की वजह से हम पर जो परेशानियाँ आयीं, उनका सामना हम यहोवा की मदद से ही कर पाए। हम साफ देख पाए कि हम पर यहोवा की आशीष है। औरिस ने बताया:

“हम दोनों को कई बार मलेरिया हुआ। एक बार मेरे पति की हालत इतनी खराब हो गयी कि वे बेहोश हो गए और उन्हें लागोस के एक अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। डॉक्टरों ने कहा कि इनका बचना मुश्‍किल है। मगर शुक्र है कि वे बच गए! जब उन्हें होश आया, तो वे उस पुरुष नर्स को गवाही देने लगे, जो उनकी देखभाल कर रहा था। उसका नाम था, न्वामबीवे। बाद में उसकी दिलचस्पी बढ़ाने के लिए मैं अपने पति के साथ उससे मिलने गयी। उसने सच्चाई स्वीकार कर ली और आगे चलकर वह आबा कसबे में एक प्राचीन बना। मुझे भी कई लोगों को सच्चाई सिखाने का मौका मिला, ऐसे लोगों को भी जो कट्टर मुस्लिम थे। बाद में वे यहोवा के वफादार सेवक बने। हमें बहुत खुशी हुई कि हमें नाइजीरिया के लोगों को, उनकी संस्कृति, भाषा और उनके दस्तूर जानने का मौका मिला। हमें उन लोगों और उनकी संस्कृति से प्यार हो गया था।”

यह हमारे लिए एक और सीख थी: दूसरे देश में सेवा करते वक्‍त फलने-फूलने के लिए ज़रूरी था कि हम भाई-बहनों से प्यार करें, भले ही उनका रहन-सहन हमसे अलग है।

सेवा की नयी ज़िम्मेदारियाँ

नाइजीरिया के बेथेल में सेवा करने के बाद 1987 में हमें नयी ज़िम्मेदारी दी गयी। हमें पूरे समय प्रचार करनेवाले मिशनरी के तौर पर कैरिबियन के एक खूबसूरत द्वीप सेंट लुसिया भेजा गया। यहाँ सेवा करना काफी मज़ेदार था, पर कुछ मुश्‍किलें भी थीं। यहाँ के लोग अफ्रीका से अलग थे। वहाँ एक आदमी की कई  पत्नियाँ होती थीं, लेकिन यहाँ आदमी-औरत शादी किए बिना ही  एक-साथ रहते थे। इन मुश्‍किलों के बावजूद हमारे कई बाइबल विद्यार्थियों ने ज़िंदगी में ज़रूरी बदलाव किए और यह परमेश्‍वर के वचन की ज़बरदस्त ताकत से ही मुमकिन हो पाया।

मैंने और औरिस ने 68 साल एक-साथ गुज़ारे, मुझे उससे बहुत प्यार था

धीरे-धीरे उम्र ढलने के साथ-साथ हमारा दमखम कम होने लगा। शासी निकाय ने हमारे हालात पर ध्यान दिया और 2005 में हमें विश्‍व मुख्यालय, ब्रुकलिन में बुला लिया। मैं आज भी हर दिन यहोवा का शुक्रिया अदा करता हूँ कि उसने मुझे औरिस जैसा साथी दिया। सन्‌ 2015 में हमारे दुश्‍मन मौत ने उसे मुझसे छीन लिया। उसे खोने का गम शब्दों में बयान करना मुश्‍किल है। वह एक बेमिसाल हमसफर और प्यार करनेवाली पत्नी थी। उसमें कई मनभावने गुण थे। हमने 68 साल एक-साथ गुज़ारे, मुझे उससे बहुत प्यार था। हमने सीखा है कि शादीशुदा ज़िंदगी हो या मंडली, खुश रहने का राज़ है, मुखियापन का आदर करना, दिल खोलकर दूसरों को माफ करना, नम्र रहना और पवित्र शक्‍ति के गुण ज़ाहिर करना।

जब कभी हमारी उम्मीदें पूरी नहीं हुईं या किसी वजह से हम निराश हुए, तो हमने यहोवा से मदद माँगी, ताकि हम उसकी सेवा करते रहें। हम अपनी सोच में सुधार करते रहे और हमने पाया कि चीज़ें और बेहतर हो रही हैं। आनेवाला समय और भी अच्छा होगा!​—यशा. 60:17; 2 कुरिं. 13:11.

ट्रिनिडाड और टोबेगो में यहोवा ने मेरे माता-पिता और दूसरे भाई-बहनों की मेहनत पर आशीष दी। आज वहाँ 9,892 लोग सच्ची उपासना कर रहे हैं। अरूबा में मैं जिस मंडली में था, उसे मज़बूत करने में बहुत-से भाई-बहनों ने मेहनत की। आज उस द्वीप पर 14 मंडलियाँ फल-फूल रही हैं। नाइजीरिया की बात करें तो वहाँ आज 3,81,398 लोगों की एक बड़ी भीड़ यहोवा की महिमा कर रही है। सेंट लुसिया द्वीप पर 783 लोग यहोवा के राज का ऐलान कर रहे हैं।

आज मैं 96 साल का हो गया हूँ। जो लोग यहोवा के भवन में पौधे की तरह लगाए गए हैं, उनके बारे में भजन 92:14 बताता है, “ढलती उम्र में भी वे फलेंगे-फूलेंगे, जोशीले और ताज़ादम बने रहेंगे।” यहोवा ने मुझे सेवा करने का जो मौका दिया, उसके लिए मैं बहुत एहसानमंद हूँ। मुझे अपने माता-पिता से जो अनमोल विरासत मिली, उसकी वजह से मैं तन-मन से यहोवा की सेवा कर पाया। सच में, यहोवा ने अपने अटल प्यार की वजह से मुझे ‘अपने आँगनों में फलने-फूलने’ दिया।​—भज. 92:13.

^ पैरा. 18 8 मार्च, 1972 की सजग होइए! (अँग्रेज़ी) के पेज 24-26 देखें।