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विश्‍व-दर्शन

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गंगा-लाभ की मारी गंगा

इलॆक्ट्रॉनिक टेलिग्राफ कहती है कि “सदियों से हिंदू इस विश्‍वास के साथ अपने मृतजनों को गंगा में बहाते चले आए हैं कि ऐसा करने से उनके मृतजनों को मोक्ष प्राप्त होगा यानी उन्हें पुनर्जन्म के चक्र से मुक्‍ति मिल जाएगी। मगर जब तक 2,500 किलोमीटर लंबी गंगा का पानी गहरा था तब तक कोई परेशानी नहीं थी क्योंकि नदी की तेज़ धाराएँ इन सैकड़ों लाशों को बहा ले जाती थीं। पर पिछले कई सालों से फैक्टरियों ने अपना सारा कचरा गंगा में डालना शुरू कर दिया है जिसकी वज़ह से नदी की गहराई कम हो गई और बहाव भी हलका हो गया है।” इससे क्या हुआ है कि लाशें बह जाने के बजाय “घास-पत्तियों और कचरे में कई हफ्तों तक ऐसे ही फँसकर सड़ती रहती हैं।” इस समस्या से निपटने के लिए सरकार ने 1980 के अंत में, हज़ारों की तादाद में मांसाहारी कछुए गंगा नदी में छोड़े थे ताकि वे इन लाशों का सफाया कर दें। मगर बेहिसाब लाशों के सामने ये कछुए भी कम पड़ गए और-तो-और बेचारे इन कछुओं की अपनी जान के लाले पड़ गए हैं क्योंकि शिकारियों ने जमकर इनका शिकार किया। इसलिए सन्‌ 1994 में इस योजना को बंद करना पड़ा। अब एक नयी योजना में लोगों को अपने रिश्‍तेदारों का दाहसंस्कार करने या उन्हें दफनाने के लिए बढ़ावा दिया जा रहा है।

अपहरण का धंधा

यू.एस. न्यूज़ एण्ड वर्ल्ड रिपोर्ट मैगज़ीन कहती है कि “मेक्सिको, कोलम्बिया, हांग-कांग और रूस में अपहरण का धंधा बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा है। पिछले तीन सालों में, पूरी दुनिया में फिरौती के लिए अपहरण करने की वारदातों ने तो रिकॉर्ड ही तोड़ दिया है।” अब तक तो अपहरण की सबसे ज़्यादा वारदातें लैटिन अमरीका में हुई हैं, यहाँ सन्‌ 1995 से 1998 के बीच 6,755 लोगों का अपहरण हुआ। उसके बाद एशिया और दूर पूर्वी इलाकों में (617), यूरोप में (271), अफ्रीका में (211), मिडल ईस्ट में (118) और दक्षिण अमरीका में (80) लोगों का अपहरण हुआ है। हालाँकि जिन लोगों का अपहरण होता है उनमें से ज़्यादातर व्यापारी और ज़मीनदार होते हैं, विदेशों में काम करनेवाले स्वयंसेवक, बिज़नेस के सिलसिले में घूमनेवाले या पर्यटक जैसे आम लोग भी इस खतरे का शिकार हो सकते हैं। इस वज़ह से अंतर्राष्ट्रीय कंपनियाँ अब ऐसी पॉलिसियाँ निकाल रही हैं जिसमें अपहरण होने पर मुआवज़ा मिलता है। इसमें फिरौती की रकम, साथ ही अपहरणकर्ताओं से बातचीत करने के लिए पेशेवर बिचौलियों और मनोचिकित्सकों की भी सुविधा दी जाती है। लेकिन अपहरण करनेवाले लोग बड़े संगठित रूप से काम करते हैं। पहले तो वे यह जानने की कोशिश करते हैं कि एक आदमी का अपहरण करने में कौन-से फायदे और खतरें होंगे। और वे अपने कैदियों के साथ बढ़िया सलूक करते हैं क्योंकि उन्हें पता हैं कि ऐसा करने पर उनके कैदी भागने की कोशिश नहीं करेंगे और उनको अपने पैसे भी आराम से मिल जाएँगे। यह मैगज़ीन कहती है कि “दुनिया भर में अपहरण की वारदातों में 10 लोगों में से सिर्फ एक की मौत होती है।” लेकिन यह मैगज़ीन चेतावनी भी देती है: “अपने इलाके के पुलिसवालों से सावधान रहिए क्योंकि इस धंधे में वह भी बराबर के हिस्सेदार हो सकते हैं।”

कैंसर का जवाब टमाटर

अमेरिकन एसोसिएशन फॉर कैंसर रिसर्च ने हाल में किए गए अध्ययनों से पता किया है कि टमाटर प्रोस्टेट कैंसर को बढ़ने से रोक सकता है। इन अध्ययनों के मुताबिक टमाटर में लाल रंग का पदार्थ, लिकोपीन न सिर्फ कैंसर को रोक सकता है बल्कि शरीर के दूसरे अंगों में ट्यूमर को फैलने से भी रोक सकता है। साथ ही, यू.एस. नैशनल कैंसर इंस्टिट्यूट ने अपने अध्ययन में बताया कि “यह पता किया गया है कि टमाटर में पाए जानेवाले सभी पदार्थ न सिर्फ प्रोस्टेट कैंसर को बढ़ने से रोकते हैं बल्कि पैंक्रियस (अग्न्याशय), फेफड़े और कोलन (बृहदंत्र) के कैंसर को भी बढ़ने से रोक सकते हैं।”

माँ का मोल

इसमें कोई शक नहीं कि हम सब की माँ घर का सारा काम करती है। मगर इन सब कामों के लिए अगर उसे तनख्वाह देनी पड़ती तो यह कितनी होती? द वॉशिंगटन पोस्ट अखबार रिपोर्ट करता है कि अध्ययन से यह पता लगाने की कोशिश की गई है कि इन कामों के लिए लोगों को औसतन कितनी तनख्वाह दी जाती है। इस अखबार ने करीब 17 ऐसे कामों का हिसाब लगाया है जैसे बच्चों की देख-भाल के लिए 13,000, बस ड्राइवर के लिए 32,000, मनोवैज्ञानिक के लिए 29,000, जानवरों की देख-भाल करने के लिए 17,000, नर्स के लिए 35,000 डॉलर, खाना बनाने के लिए 40,000 और ऑफिस का काम-काज सँभालने के लिए 19,000 डॉलर। बाप रें! इस हिसाब के मुताबिक तो ये सब काम करने के लिए हर माँ को सालाना 5,08,700 डॉलर मिलने चाहिए। यह अध्ययन फायनैन्शल सर्विसेस कंपनी ने चलाया था और उस कंपनी के अध्यक्ष रिक एडलमॆन के मुताबिक ये हिसाब फिर भी कम है। ऐसा क्यों? क्योंकि इसमें सोश्‍यल सिक्योरिटी और रिटायरमेन्ट के बाद जो फायदे मिलने चाहिए उनका हिसाब नहीं लगाया गया है।

बाँस में फूल आना मुसीबत बना

भारत में मनीपुर और मीज़ोरम का प्रदेश बाँस के जंगलों से भरा हुआ है। और इन इलाकों में एक खास किस्म के पौधे, मौतंग को बड़ा होने में 50 साल लग जाते हैं। अब जब इनमें फूल आने का वक्‍त होता है तो यहाँ के लोगों में डर पैदा होने लगता है। आखिर क्यों? क्योंकि ऐसे समय पर सब जगह चूहे-ही-चूहे नज़र आने लगते हैं। और इन पेड़ों के फूल को खाने से ये चूहे और भी ज़्यादा चूहे पैदा करते हैं। तब ये सब मिलकर पूरी-की-पूरी फसलों को चट कर जाते हैं। इसका अंजाम होता है अकाल। द टाइम्स ऑफ इंडिया मैगज़ीन के मुताबिक जब 1954/55 में इन पेड़ों पर फूल आए थे तब सन्‌ 1957 में अकाल पड़ा था। तो इस बार वैसी ही तबाही को रोकने के लिए मीज़ोरम सरकार ने चूहों को मारने की योजना बनायी। उन्होंने हर एक चूहे की पूँछ के बदले में एक रुपए का इनाम रखा। नतीजा? सन्‌ 1999 के अप्रैल तक सरकार को 90,000 चूहों की पूँछ मिली हैं और इस कार्यक्रम को जारी रखने के लिए सरकार और भी पैसा जमा करने का इंतज़ाम कर रही है।