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पुलिस सुरक्षा—आशा और डर

पुलिस सुरक्षा—आशा और डर

पुलिस सुरक्षा—आशा और डर

इंग्लैंड में 19वीं सदी की शुरूआत में, बहुत-से लोगों ने वरदी-धारी पेशेवर पुलिस-बल की स्थापना करने के प्रस्तावों का विरोध किया। उन्हें यह डर था कि केंद्रीय सरकार के तहत, हथियार लैस पुलिस-बल का होना उनकी आज़ादी के लिए खतरा हो सकता है। कुछ लोगों को डर था कि आखिरकार एक ऐसा वक्‍त आ जाएगा जब हर कहीं जासूसी पुलिस होगी, ठीक जैसे शोज़ेफ फूशे के अधीन फ्राँसीसी पुलिस थी। लेकिन इसके बावजूद, उन्हें मजबूरन अपने आप से यह पूछना पड़ा, ‘पुलिस-बल के बगैर हम क्या करते?’

उन दिनों, लंदन दुनिया का सबसे बड़ा और अमीर शहर था। इस वजह से वहाँ अपराध भी बढ़ते जा रहे थे और बिज़नेस के लिए खतरा पैदा हो गया था। न तो स्वेच्छा से रात में पहरा देनेवाले पहरेदार और न ही चोर पकड़नेवाले पेशेवर लोग, जैसे कि बो स्ट्रीट रन्‍नर्स जिन्हें चंद लोग तनख्वाह पर रखते थे, लोगों की या उनकी संपत्ति की रक्षा कर पा रहे थे। क्लाइव एम्सली अपनी किताब अँग्रेज़ पुलिस: एक राजनीतिक और सामाजिक इतिहास (अँग्रेज़ी) में कहते हैं: “ज़्यादा-से-ज़्यादा लोग चाहते थे कि उनके तरक्की करते समाज में अपराध और गड़बड़ी के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए।” इसलिए लंदनवासियों ने सोचा कि यही सबसे अच्छा उपाय होगा कि सर रॉबर्ट पील * के निर्देशन में, पेशेवर पुलिस-बल का निर्माण किया जाए। सितंबर 1829 में उस शहर की वरदी-धारी पुलिस ने गश्‍त लगाने का काम शुरू किया।

पुलिस का आधुनिक इतिहास बताता है कि इसकी शुरूआत से ही, लोगों के मन में आशा के साथ-साथ डर की भावना पैदा हुई है। आशा इस बात की है कि वे उनकी हिफाज़त करेंगे और डर इस बात का कि शायद वे अपने अधिकार का नाजायज़ फायदा उठाएँ।

अमरीकी पुलिस की शुरूआत

अमरीका में, न्यू यॉर्क पहला शहर था, जहाँ पेशेवर पुलिस-बल की शुरूआत हुई। जैसे-जैसे शहर अमीर होता गया, वैसे-वैसे अपराधों में भी बढ़ोतरी होती गयी। और 1830 के दशक तक पॆन्‍नी प्रेस, एक सस्ता अखबार, जिसकी तभी-तभी शुरूआत हुई थी, उसमें छपे तरह-तरह के अपराध की दिल दहलानेवाली खबरें हर परिवार पढ़ने लगा। जनता में होहल्ला मच गया, और आखिरकार सन्‌ 1845 में न्यू यॉर्क को पुलिस-बल का निर्माण करना पड़ा। तब से ही न्यू यॉर्क के और लंदन के लोग एक-दूसरे के पुलिस-बल से हमेशा आकर्षित रहे हैं।

सरकारी अधिकार में हथियारबंद पुलिस-बल के होने का डर जिस तरह ब्रिटेन के लोगों को खाए जा रहा था, वही डर अमरीका के लोगों में भी था। मगर इन दोनों राष्ट्रों ने इससे निपटने के लिए अपनी-अपनी तरकीब निकाली। ब्रिटेन के लोगों ने फैसला किया कि उनकी पुलिस एक लंबी टोपी पहननेवाली सज्जन पुलिस होगी और उनकी वरदी गहरे नीले रंग की होगी। यह पुलिस अपने साथ लकड़ी का सिर्फ एक छोटा डंडा रखती थी जो लोगों को नज़र नहीं आता था। और आज तक ब्रिटिश बॉबीज़, सिर्फ अचानक आए संकट के दौरान ही पिस्तौल अपने साथ लेती है। लेकिन जैसा कि एक रिपोर्ट बताती है, “लोगों को पूरा यकीन है . . . कि एक समय ज़रूर आएगा जब ब्रिटेन की पुलिस पूरी तरह हथियार से लैस होगी।”

दूसरी तरफ अमरीका ने, इस डर से कि सरकार अपनी ताकत का दुरुपयोग कर सकती है, अपने संविधान में दूसरा सुधार प्रस्ताव पारित किया। और वह था कि “जनता को अपने साथ हथियार रखने और कहीं भी ले जाने का अधिकार है।” नतीजतन, पुलिस ने पिस्तौल रखने की माँग की। और कुछ समय बाद, इसका नतीजा यह हुआ कि खुलेआम सड़कों पर गोलियाँ चलने लगीं और यह अमरीकी चोर-पुलिस की एक खासियत बन गयी। लोगों पर तो ऐसी छाप पड़ ही गयी थी कि जहाँ चोर-पुलिस होंगे वहाँ खून-खराबा ज़रूर होगा। अमरीकी लोगों का अपने साथ पिस्तौल रखने की एक और वजह थी। अमरीका के पहले पुलिस-बल का निर्माण, एक ऐसे माहौल में हुआ था जो लंदन के माहौल से बिलकुल अलग था। न्यू यॉर्क शहर में जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गयी, वहाँ गड़बड़ी और अशांति फैलती गयी। सन्‌ 1861-65 में गृह युद्ध के शुरू होने के बाद से, जब यूरोप और एफ्रो-अमरीकी आप्रवासी हज़ारों की तादाद में आने लगे, तो वहाँ जाति के नाम पर हिंसा शुरू हो गयी। पुलिस को लगने लगा कि अब सख्ती से पेश आना ज़रूरी है।

इसीलिए पुलिस को अकसर एक मुसीबत समझा जाता था, जिसे गले लगाने के सिवा कोई चारा भी नहीं था। कभी-कभी वे अपनी हद पार कर देते, फिर भी जनता उन्हें बरदाश्‍त कर लेती, इस उम्मीद से कि इससे कुछ तो शांति और सुरक्षा कायम रहेगी। मगर संसार के कुछ भागों में एक अलग तरह की पुलिस-बल उभर रही थी।

खौफनाक पुलिस

उन्‍नीसवीं सदी की शुरूआत में, जब आधुनिक पुलिस-बल का निर्माण हो रहा था, तब दुनिया का काफी हिस्सा यूरोपीय सम्राटों के शासन के अधीन था। और आम तौर पर यूरोप की पुलिस, जनता की नहीं बल्कि शासक की हिफाज़त के लिए होती थी। यहाँ तक कि ब्रिटेन के लोग, जिन्हें अपने देश में हथियार-धारी मिलिट्री-पुलिस बिलकुल पसंद नहीं थी, वे भी अपने उपनिवेशों में लोगों पर अपना दबदबा बनाए रखने के लिए इनका इस्तेमाल करते थे। और ऐसा करते समय, लगता नहीं कि उनके विवेक ने उन्हें ज़रा-भी कचोटा होगा। रॉब मॉबी अपनी किताब, पुलिस के ज़रिए संसार भर में नियंत्रण (अँग्रेज़ी) में कहते हैं: “अँग्रेज़ों के राज्य में जहाँ भी पुलिस-दस्ते मौजूद थे, वहाँ उनके क्रूर और भ्रष्ट होने, हिंसा, हत्या और अपने अधिकार का नाजायज़ फायदा उठाने जैसी घटनाएँ लगभग हर दशक में होती आयी हैं।” फिर उन पुलिस के कुछ फायदे बताने के बाद वही किताब आगे कहती है कि उनके कारनामों की वजह से “संसार भर के राष्ट्रों को ऐसा लगने लगा कि पुलिस जनता की सेवा के लिए नहीं बल्कि सरकार की सेवा के लिए है।”

तानाशाही सरकारों ने अपने इस डर से कि कहीं लोग क्रांति पर न उतर आएँ, देश के नागरिकों की जासूसी के लिए लगभग हमेशा ही खुफिया पुलिस का इस्तेमाल किया। यह पुलिस लोगों को सता-सताकर उनसे जानकारी उगलवाती और जिन पर भी इन्हें देशद्रोही होने का शक हो जाता, उन्हें बिना मुकद्दमा ही गिरफ्तार कर लेती या फिर उनकी हत्या कर देती। नात्ज़ियों की खुफिया पुलिस थी गेस्टापो, रूस की केजीबी और पूर्वी जर्मनी की श्‍टाज़ी थी। हैरत की बात है कि श्‍टाज़ी ने, अपने 1.6 करोड़ की आबादी पर निगरानी रखने के लिए 1,00,000 अफसर और लगभग पाँच लाख भेदिए रखे। ये अफसर चौबीसों घंटे फोन पर लोगों की बातें सुनते थे। इस तरह इन्होंने एक तिहाई आबादी की एक फाइल बना रखी थी। अपनी किताब श्‍टाज़ी में जॉन कौलर का कहना है: “श्‍टाज़ी अफसर न तो अपनी हद पहचानते थे, ना ही उन्हें कोई शर्म थी। . . . भेदिए के रूप में काम करने के लिए बड़ी तादाद में पादरी, साथ ही प्रोटेस्टैंट और कैथोलिक चर्च के बड़े-बड़े अधिकारियों को रखा गया था। उनके दफ्तरों और चर्च में पाप स्वीकार करनेवाले कमरों में हर कहीं गुप्त उपकरण लगा रखे थे ताकि उनकी हर बात सुनी जा सके।”

मगर ऐसी खौफनाक पुलिस सिर्फ तानाशाह सरकारों के शासन में ही नहीं थी। बड़े शहरों की पुलिस पर भी लोगों में आतंक फैलाने का इलज़ाम लगाया गया है, क्योंकि वह बहुत कड़ाई से लोगों पर नियम और कानून मानने का ज़ोर डालती है, खासकर तब, जब वह अल्पसंख्यकों को अपना निशाना बनाती है। लॉस ऐन्जलस में उनकी एक ओछी करतूत जिसके चर्चे हर जगह थे, उसके बारे में एक साप्ताहिक पत्रिका कहती है कि इस बदनामी ने “दिखा दिया कि पुलिसवाले अपने आचरण में एकदम गिर चुके हैं और इसीलिए उन्हें एक नया नाम दिया गया है: पुलिस के भेस में गुंडे।”

इसलिए सरकारी अधिकारी ये पूछते आए हैं कि अपने नाम पर लगे कलंक को मिटाने के लिए पुलिस विभाग क्या कर सकता है? और इस सिलसिले में कई पुलिस-बलों ने जनता को यह दिखाने की पूरी कोशिश की है कि उनकी सेवा जनता के लिए ही है और इसी वजह से वे जनता का ध्यान उन पहलुओं की तरफ खींच रहे हैं जिनसे समाज को फायदा पहुँचा है।

समाज-सेवी पुलिस से आशा

जापान की पुलिस जिस तरह सदियों से अपने समाज की सेवा करती आयी है, उससे विदेशी हमेशा आकर्षित हुए हैं। परंपरा के अनुसार, जापान के हर इलाके में एक पुलिस चौकी यानी कोबान होता है जिसमें करीब दर्जन भर अफसर शिफ्ट ड्यूटी में काम करते हैं। ब्रिटेन के फ्रैंक लाइशमन जो अपराध-विज्ञान के प्रोफेसर और लंबे अरसे से जापान के नागरिक रहे हैं, वे कहते हैं: “यह बात तो सारी दुनिया जानती है कि कोबान अफसरों का मकसद है, लोगों की बड़े प्यार से मदद करना, जैसे कि जापान के ज़्यादातर बेनाम सड़कों के पते बताना; बारिश में भीग रहे लोगों को ऐसा छाता उधार देना जिसका कोई मालिक न हो; नशे में धुत्त सारारीमान [यानी बिज़नेसमैन] को घर पहुँचने में मदद के लिए आखिरी ट्रेन में बिठाना; और ‘नागरिकों की समस्याओं’ के बारे में सलाह देना।” हर इलाके में ऐसी पुलिस होने की वजह से जापानी लोग सड़कों पर बेखौफ घूम सकते थे, जिसकी तमन्‍ना बाकी देश भी किया करती थी।

पुलिस की ऐसी सेवा क्या दूसरी जगहों पर असरदार हो सकती है? अपराध-विज्ञान के कुछ विद्यार्थियों ने अध्ययन के ज़रिए कुछ जानकारी हासिल की है। आज संचार के क्षेत्र में जो तरक्कियाँ हुई हैं, इससे जनता और जनता की सेवा करनेवाली पुलिस के बीच फासले बढ़े हैं। अब कई शहरों में, अकसर संकट की घड़ी के दौरान ही पुलिस कार्यवाही करने पहुँचती है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि शुरू-शुरू में अपराध रोकने की बात पर जो ज़ोर दिया जाता था, अब उसका असर खत्म हो गया है। ऐसे चलन को रोकने के लिए पड़ोसियों में जागरूकता बढ़ाने की ज़रूरत को फिर से महसूस किया जा रहा है।

पड़ोसियों में जागरूकता

वेल्स के एक पुलिस कॉन्सेटबल, दूई ने अपने काम के बारे में कहा: “पड़ोसियों में जागरूकता फैलाना वाकई कारगर है; इससे अपराध कम होते हैं। पड़ोसियों में जागरूकता का मतलब है, एक-दूसरे की हिफाज़त करने के लिए लोगों को सचेत करना। हम सभाएँ रखते हैं ताकि पड़ोसी एक-दूसरे को जान सकें, नाम और टेलिफोन नंबर दे सकें और सीख सकें कि अपराध को कैसे रोका जा सकता है। मुझे यह काम अच्छा लगता है क्योंकि इससे पड़ोसियों में अपनेपन की भावना पैदा होती है। अकसर लोग यह तक नहीं जानते कि उनके पड़ोसी कौन हैं। यह योजना असरदार है क्योंकि इससे लोगों में जागरूकता बढ़ती है।” इससे पुलिस और जनता का आपसी रिश्‍ता भी सुधरता है।

इस संबंध में दूसरा कदम यह उठाया गया कि पुलिसवालों को अपराध के शिकार लोगों के साथ और भी हमदर्दी से पेश आने के लिए उकसाया गया। अपराध के शिकार लोगों पर अध्ययन करनेवाले, जाने-माने डचवासी, यॉन वॉन डेक लिखते हैं: “पुलिस अफसरों को यह सिखाया जाना चाहिए कि जिस तरह एक डॉक्टर का अपने मरीज़ के साथ ठीक से पेश आना ज़रूरी होता है, उसी तरह ज़रूरी है कि एक पुलिस अफसर भी अपराध के शिकार व्यक्‍तियों के साथ अच्छी तरह पेश आए।” बहुत-सी जगहों में आज भी घर में हो रही हिंसा या बलात्कार को अपराध नहीं माना जाता। लेकिन रॉब मॉबी कहते हैं: “हाल के सालों में घरेलू हिंसा और बलात्कार को लेकर पुलिस का रवैया काफी हद तक सुधर गया है। लेकिन अभी-भी काफी सुधार की ज़रूरत है।” अपने अधिकार का नाजायज़ फायदा उठाना एक और क्षेत्र है, जहाँ लगभग हर पुलिस-बल को सुधार लाने की ज़रूरत है।

भ्रष्ट पुलिस का डर

जहाँ हर कहीं पुलिस की भ्रष्टता के चर्चे हों, वहाँ यह उम्मीद करना कि पुलिस हमारी रक्षा करेगी सरासर बेवकूफी लगे। और पुलिस के भ्रष्ट होने की खबरें, तो पुलिस के इतिहास की शुरूआत से ही मिल रही हैं। सन्‌ 1855 के साल की तरफ इशारा करते हुए किताब एनवायपीडीशहर और उसकी पुलिस (अँग्रेज़ी) कहती है कि “न्यू यॉर्क के बहुत-से निवासियों की यह राय है कि कौन पुलिस है और कौन ठग, यह पहचानना मुश्‍किल हो रहा है।” डंकन ग्रीन की लिखी किताब, लातिन अमरीका के अनेक चेहरे (अँग्रेज़ी) कहती है कि वहाँ पुलिस-बल के बारे में “यह धारणा आम है कि वे भ्रष्टता से सराबोर हैं, नाकाबिल हैं और मानव अधिकारों की कदर नहीं करते।” चौदह हज़ार जनों से बनी लातिन-अमरीकी पुलिस-बल के मुख्य अफसर ने कहा: “जब पुलिसवालों की तनख्वाह हर माह [5,000 रुपए] से भी कम हो, तो आप भला उनसे और क्या उम्मीद कर सकते हैं? ऐसे में अगर उन्हें कोई घूस दे तो वे क्या करेंगे?”

भ्रष्टाचार की समस्या आखिर कितनी गंभीर है? इसका जवाब इस पर निर्भर करेगा कि यह सवाल आप किससे पूछते हैं। उत्तर अमरीका का एक पुलिस, जिसने 1,00,000 आबादीवाले एक शहर में सालों से गश्‍त लगाने का काम किया था, वह यूँ जवाब देता है: “हाँ, इसमें शक नहीं कि यहाँ कुछ पुलिस अफसर बेईमान हैं, लेकिन ज़्यादातर अफसर ईमानदार हैं। जी हाँ, यह मैं अपने तजुर्बे से कह सकता हूँ।” दूसरी तरफ, एक और देश में 26 सालों से अपराध की तफतीश करनेवाला एक अफसर कहता है: “मेरे ख्याल से भ्रष्टाचार तो लगभग दुनिया के हर कोने में देखा जा सकता है। पुलिसवालों में ईमानदारी बहुत कम पायी जाती है। अगर कोई पुलिसवाला किसी ऐसे घर की तलाशी ले रहा है जहाँ चोरी हुई है और अगर उसे वहाँ पर पैसे मिल जाए तो इसमें शक नहीं कि वह पैसे अपनी जेब में डाल लेगा। और अगर उसे चोरी की हुई कीमती चीज़ें मिल जाए तो वह उसका थोड़ा-सा हिस्सा बेशक अपने लिए रख लेगा।” आखिर कुछ पुलिसवाले भ्रष्ट क्यों हो जाते हैं?

कुछ लोग जब पुलिस की नौकरी शुरू करते हैं, तो उनके उसूल बड़े ऊँचे होते हैं। लेकिन जल्द ही भ्रष्ट सहकर्मियों और चोर-बदमाशों के गिरे हुए स्तरों के रंग में वे भी रंग जाते हैं। पुलिसवालों को क्या पता है (अँग्रेज़ी) इस किताब में शिकागो के एक पहरेदार की राय लिखी गयी है: “जहाँ तक पुलिस अफसरों की बात है, वे बुराइयों को एकदम करीब से देखते हैं। वे उन्हीं के बीच रहते हैं। उन्हें छूते हैं . . . चखते हैं . . . सूँघते हैं . . . सुनते हैं . . . उनसे निपटते हैं।” उनका नैतिकता में गिरे हुए लोगों के साथ इतने करीब का वास्ता होता है कि वे बड़ी आसानी से उनके प्रभाव में आ जाते हैं।

हालाँकि पुलिस हमारे लिए अमूल्य सेवा प्रदान करती है, मगर यह हमारी उम्मीद पर पूरी तरह खरी नहीं उतरती। क्या हम उससे बेहतर की कुछ अपेक्षा कर सकते हैं?(g02 7/8)

[फुटनोट]

^ पुलिस-बल की स्थापना करनेवाले सर रॉबर्ट (बॉबी) पील के नाम पर ब्रिटेन की पुलिस को बॉबीज़ कहा जाने लगा।

[पेज 8, 9 पर बक्स/तसवीरें]

“वाह, ब्रिटिश बॉबीज़ के क्या कहने!”

पेशेवर पुलिस-बल का बड़ा खर्च उठानेवाले सबसे पहले ब्रिटेन के लोग ही थे। वे चाहते थे कि उनका समाज पूरी तरह व्यवस्थित हो—उनके यातायात के लिए किए गए घोड़ागाड़ी के इंतज़ाम की तरह जो वक्‍त का एकदम पाबंद था। सन्‌ 1829 में गृह सचिव, सर रॉबर्ट (बॉबी) पील ने संसद को कायल करके, लंदन मेट्रोपॉलिटन पुलिस का निर्माण किया और स्कॉटलैंड यार्ड को उनका मुख्यालय बनाने के लिए राज़ी करवाया। शुरू-शुरू में लोग पुलिस से खुश नहीं थे, क्योंकि पुलिस ने बड़ी कड़ाई से पियक्कड़ों और सड़कों पर जुआ खेलनेवालों की धरपकड़ शुरू कर दी थी, मगर धीरे-धीरे यही बॉबीज़ लोगों के चहेते बन गए।

अँग्रेज़ों ने जो कड़ी मेहनत करके कामयाबियाँ हासिल की थीं, उसे दिखाने के लिए सन्‌ 1851 में लंदन ने एक शानदार प्रदर्शनी लगायी और बड़े गर्व से इसमें आने के लिए पूरी दुनिया को न्यौता दिया। जब मेहमान पहुँचे तो वहाँ का नज़ारा देखकर दंग रह गए, क्योंकि सड़कें एकदम साफ-सुथरी थीं। न तो वहाँ कोई शराबी था, न कोई वेश्‍या और ना ही कोई आवारा। काबिल पुलिस भीड़ को रास्ता दिखा रही थी, यात्रियों के सामान उठा रही थी, सड़क पार करने में लोगों की मदद कर रही थी, यहाँ तक कि बुज़ुर्ग महिलाओं को उठाकर टैक्सी तक ले जा रही थी। इसीलिए वहाँ के अँग्रेज़ों और दूर देश से आए विदेशियों के मुँह से यह सुनना ताज्जुब की बात नहीं थी, “वाह, ब्रिटिश बॉबीज़ के क्या कहने!”

अपराध को रोकने में ये पुलिस इतनी माहिर नज़र आ रही थी कि सन्‌ 1873 में चेस्टर शहर के मुख्य कॉनस्टेबल ने एक ऐसे समय की कल्पना की जब पेशेवर अपराधियों का नामोनिशान लगभग पूरी तरह मिट जाएगा! पुलिस ने एम्बुलेंस और दमकल विभाग भी संगठित किए। उन्होंने गरीबों के लिए जूते-कपड़ों का इंतज़ाम करके दान-धर्म का काम किया। कुछ पुलिस-बलों ने लड़कों के लिए क्लब खोले और सिखाने के मकसद से उन्हें खास-खास जगह दिखायी और लंबी छुट्टी पर सैर कराने ले गए।

नए-नए शुरू हुए इस पुलिस विभाग में बेशक भ्रष्टता और क्रूरता की समस्याएँ आती रहीं। मगर ज़्यादातर पुलिसवालों ने इस बात पर गर्व किया कि वे कम-से-कम पुलिस-बल के ज़रिए शहर में शांति और व्यवस्था बनाए हुए हैं। सन्‌ 1853 में, विगन लैंकशायर में जब खान कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी और दंगा किया, तो पुलिस को मामला अपने हाथ में लेना पड़ा। उस समय एक साहसी पुलिस सारजेंट ने खान के मालिक की पिस्तौल इस्तेमाल करने से साफ इनकार कर दिया, जबकि उसके पास सिर्फ 10 आदमी थे। बाद में, सन्‌ 1886 में जब उस सारजेंट का बेटा, हेक्टर मैक्लौयड भी पुलिस में भरती हुआ, तो बेटे का हौसला बढ़ाते हुए उसने एक खत लिखा। किताब, अँग्रेज़ पुलिस (अँग्रेज़ी) में उसी खत का हवाला दिया गया है: “अगर हम कठोर बनते हैं, तो हम जनता का विश्‍वास और समर्थन खो देते हैं . . . मैंने हमेशा जनता को पहला दर्जा दिया है क्योंकि हम तो समाज के सेवक हैं, जहाँ हमें कुछ समय तक काम करने के लिए रखा गया है, और यह हमारा फर्ज़ है कि हम पब्लिक और अपने कमांडिंग अफसर दोनों को खुश रखें।”

मेट्रोपॉलिटन पुलिस के रिटायर्ड इंस्पेक्टर, हेडन कहते हैं: “हमें सिखाया जाता था कि हम हमेशा ठंडे दिमाग से काम लें क्योंकि काम में सफलता पाने के लिए समाज का सहयोग पाना बहुत ज़रूरी है। और जब हमारी हर कोशिश नाकाम हो जाती, तब कहीं जाकर हम अपने छोटे डंडे का इस्तेमाल करते और कई अफसरों ने उसे भी अपने पूरे करियर में कभी इस्तेमाल नहीं किया।” ब्रिटिश बॉबी, एक लोकप्रिय टी.वी. धारावाहिक, डिक्सन ऑफ डॉक ग्रीन की वजह से भी सबके चहेते बन गए थे। यह धारावाहिक तकरीबन 21 सालों तक चला जिसमें एक ऐसे ईमानदार पुलिस कॉनस्टेबल की कहानी थी जो अपने इलाके के हर इंसान को पहचानता था। उस कॉनस्टेबल की तरह बनने के लिए हो सकता है, इसी धारावाहिक ने पुलिसवालों का हौसला बढ़ाया हो। लेकिन इसमें शक नहीं कि इस धारावाहिक ने ब्रिटेन के लोगों में पुलिसवालों के लिए प्यार ज़रूर पैदा किया।

सन्‌ 1960 के दशक में ब्रिटेन के लोगों का रवैया बदला और जिस पुलिस पर पूरा देश गर्व करता था, उसी पर से उनका भरोसा उठने लगा। हालाँकि पुलिस ने पड़ोसियों में जागरूकता की योजना अपनाने के ज़रिए जनता से सहयोग पाने की पूरी कोशिश की, फिर भी 1970 के दशक में, पुलिस के भ्रष्टाचार और जाति-भेद की खबरों ने उनकी छवि पर बदनुमा दाग लगा दिया। पुलिसवालों पर जाति-भेद के कई इलज़ाम लगाए गए और यह भी कि वे झूठे सबूत पेश करके दूसरों को दोषी ठहराते हैं। लेकिन हाल में इन्होंने एक बार फिर अपने व्यवहार में सुधार लाने का सच्चे दिल से प्रयास किया है।

[चित्र का श्रेय]

ऊपर दिखायी गयी तसवीर: http://www.constabulary.com

[पेज 10 पर बक्स/तसवीर]

न्यू यॉर्क में चमत्कार?

जब पुलिस अपराध को रोकने के लिए खास मेहनत करती है, तो नतीजे देखने लायक हो सकते हैं। लंबे अरसे से, न्यू यॉर्क को संसार के सबसे खतरनाक शहरों में से एक माना जाता था। सन्‌ 1980 के दशक के आखिर में यूँ लगने लगा कि पुलिस के हौसले पस्त हो चुके हैं, क्योंकि हालात उनके काबू से बाहर हो गए थे। इसके अलावा, आर्थिक तंगी की वजह से शहर की सरकार ने मजबूर होकर पुलिस की तनख्वाह बढ़ानी बंद कर दी और पुलिस स्टाफ में भी कटौती कर दी। मौके का फायदा उठाकर ड्रग्स के व्यापारियों ने शहर में अपना जाल फैलाना शुरू कर दिया, इसके साथ ही खून-खराबे का सिलसिला शुरू हो गया। यह आम बात हो गयी थी कि शहर के बीच रहनेवाले लोग, रात को सोते वक्‍त गोलियों की धाँय-धाँय सुना करते थे। और सन्‌ 1991 में जाति के नाम पर जब भारी मारकाट हुई तब खुद पुलिस अपनी शिकायत की सुनवाई के लिए धरना दिए बैठी थी।

लेकिन तभी एक नए पुलिस प्रमुख ने अपने अफसरों की हौसला-अफज़ाई करने में दिलचस्पी दिखायी। उसने उनके साथ लगातार कई सभाएँ आयोजित कीं ताकि उनके एक-एक इलाके का अच्छी तरह जायज़ा लिया जा सके। जेम्स लार्डनर और थॉमस रपेटो अपनी किताब एनवायपीडी में बताते हैं: “हालाँकि जासूसों के प्रमुख या नार्कोटिक विभाग के अध्यक्ष के बारे में, हर इलाके के पुलिस अफसर अखबारों में पढ़ा करते थे, मगर उनके दर्शन उन्होंने शायद ही कभी किए थे। लेकिन अब वे घंटों साथ बैठकर स्थिति पर काबू पाने के बारे में विचार-विमर्श कर रहे थे।” अपराध की वारदातों में तेज़ी से गिरावट आ गयी। हत्या की दर सन्‌ 1993 में जहाँ 2,000 हुआ करती थी धीरे-धीरे घटकर अब सन्‌ 1998 में 633 हो गयीं, जो पिछले 35 सालों में हत्या की दरों में सबसे कम थी। पूरे न्यू यॉर्क शहर में इस चमत्कार की चर्चा होने लगी। और पिछले आठ सालों में दर्ज़ की गयी अपराध की शिकायतों में 64 प्रतिशत की गिरावट आयी है।

यह सुधार मुमकिन कैसे हुआ? जनवरी 1,2002 के न्यू यॉर्क टाइम्स का कहना है कि इसकी कामयाबी का श्रेय कॉम्पस्टैट को जाता है। दरअसल इसमें “कंप्यूटर की मदद से अपराध के बारे में पूरी खोज-खबर रखी जाती है। हर हफ्ते एक-एक क्षेत्र में हुए अपराध का डेटा निकालकर उसकी अच्छी तरह जाँच की जाती है और समस्या की जड़ तक पहुँचा जाता है ताकि भविष्य में होनेवाले अपराधों पर तुरंत काबू पाया जा सके।” भूतपूर्व पुलिस कमिश्‍नर, बरनार्ड कैरक कहते हैं: “हम गौर करते हैं कि अपराध कहाँ हो रहा है, क्यों हो रहा है और फिर वहाँ ज़्यादा-से-ज़्यादा हथियारबंद सैनिकों [पुलिस] को भेजते हैं और ज़रूरी साधनों का इंतज़ाम करते हैं ताकि उन इलाकों पर कड़ी नज़र रखी जा सके। और यही वजह है कि हम अपराध की दरें कम कर पाएँ हैं।”

[पेज 7 पर तसवीर]

जापान की एक आम पुलिस चौकी

[पेज 7 पर तसवीर]

हांगकांग की ट्रैफिक पुलिस

[पेज 9 पर तसवीर]

इंग्लैंड में सॉकर मैच के दौरान भीड़ को काबू में रखने के लिए

[पेज 9 पर तसवीर]

दुर्घटना के शिकार व्यक्‍ति की मदद करना भी पुलिस का फर्ज़ बनता है