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दाँत दर्द की कहानी सदियों पुरानी

दाँत दर्द की कहानी सदियों पुरानी

दाँत दर्द की कहानी सदियों पुरानी

मध्य युग का समय है। एक नगर के चौक में बाज़ार लगा हुआ है। वहाँ एक नीम-हकीम तड़क-भड़कवाले कपड़े पहने हुए घूम रहा है। वह शेखी बघारता है कि वह बिना दर्द पहुँचाए दाँत निकाल सकता है। तभी वह एक आदमी को आगे आने के लिए कहता है, जो दरअसल उससे मिला हुआ है। वह आदमी झिझकने का नाटक करते हुए आगे आता है और नीम-हकीम उसकी दाढ़ निकालने का ढोंग करता है। इसके बाद, नीम-हकीम सबको खून से रंगा हुआ एक दाँत दिखाता है। देखते-ही-देखते, दाँत दर्द से परेशान लोगों का ताँता लग जाता है और वे पैसा देकर अपना दाँत निकलवाते हैं। इसी दौरान ढोल-मजीरे बजाए जाते हैं, ताकि जिनके दाँत निकाले जा रहे हैं, उनकी चीखें सुनकर दूसरे डर के मारे भाग न जाएँ। कुछ दिनों बाद, दाँत उखड़वानेवालों में से कई लोगों को खतरनाक इंफेक्शन हो जाता है। मगर तब तक वह नीम-हकीम उनके पैसे लेकर वहाँ से चंपत हो जाता है।

आज दाँत दर्द के शिकार लोगों को शायद ही ऐसे जालसाज़ों से अपना इलाज करवाने की ज़रूरत पड़े। क्योंकि आजकल के दाँतों के डॉक्टर या डेंटिस्ट दाँत दर्द का इलाज कर सकते हैं। इतना ही नहीं, ज़्यादातर मामलों में, वे दाँतों को गिरने से भी बचा सकते हैं। फिर भी, कई लोग डेंटिस्ट के पास जाने से घबराते हैं। आइए देखें कि बीते ज़माने में, डेंटिस्ट ने कैसे अपने मरीज़ों को दर्द से राहत पहुँचाना सीखा। इससे शायद हम उस इलाज की अहमियत समझ पाएँ, जो आज के डेंटिस्ट करते हैं।

कहा जाता है कि सर्दी-ज़ुकाम के बाद, दाँतों का सड़ना इंसानों में सबसे आम बीमारी है। यह सिर्फ आज के ज़माने की बीमारी नहीं है। राजा सुलैमान की कविता से ज़ाहिर होता है कि प्राचीन इस्राएल में भी दाँतों का सड़ना और उनका गिरना बुज़ुर्ग लोगों की आम परेशानी थी।—सभोपदेशक 12:3.

दाँत के दर्द ने राजा-रानियों को भी नहीं बख्शा

हालाँकि एलिज़बेथ प्रथम इंग्लैंड की रानी थी, मगर वे भी दाँत दर्द से नहीं बच सकीं। एक बार, रानी के यहाँ जर्मनी से आए एक मेहमान ने देखा कि रानी के दाँत काले थे। इस मेहमान ने बाद में लिखा कि यह “समस्या अँग्रेज़ों में बहुत आम है, क्योंकि वे मीठी चीज़ें ज़्यादा खाते हैं।” सन्‌ 1578 के दिसंबर में, रानी का वो हाल हो गया कि वे दिन-रात दाँत दर्द से कराहने लगीं। उनके डॉक्टरों ने खराब दाँत को उखड़वाने की सलाह दी। मगर रानी ने शायद इस डर से इनकार कर दिया कि उखड़वाते समय बहुत दर्द होगा। रानी को मनाने के लिए, लंदन के बिशप जॉन ऐलमर ने रानी के सामने अपना एक दाँत उखड़वाया जो शायद सड़ गया था। उसने क्या ही दिलेरी और त्याग का काम किया, क्योंकि उसके थोड़े ही दाँत रह गए थे!

उन दिनों, आम इंसान अपने दाँत निकलवाने के लिए नाई या लोहार के पास जाते थे। मगर जब और भी लोगों के पास मीठी चीज़ें खरीदकर खाने के पैसे आ गए, तो दाँत दर्द की परेशानी बढ़ने लगी। इसके साथ ही, दाँत निकालने में हुनरमंद लोगों की माँग भी बढ़ने लगी। इसलिए कुछ डॉक्टरों और सर्जनों ने खराब दाँतों का इलाज करने में दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया। मगर इस हुनर को हासिल करने के लिए उन्हें खुद मेहनत करनी थी। क्योंकि जो इस काम में माहिर थे, वे नहीं चाहते थे कि दूसरों को दाँत निकालने का तरीका बताकर वे अपना धंधा चौपट कर लें। उस समय, दाँतों पर किताबें भी बहुत कम लिखी गयी थीं।

एलिज़बेथ प्रथम के साथ हुए अनुभव के करीब सौ साल बाद, लुई चौदहवाँ फ्रांस के राजा थे। वे अपनी ज़िंदगी के ज़्यादातर साल दाँत दर्द से तड़पते रहे। और सन्‌ 1685 में, उन्हें अपने ऊपर के बायीं तरफ के सभी दाँत निकलवाने पड़े। कुछ लोग दावा करते हैं कि दाँत दर्द की परेशानी की वजह से ही राजा ने उस साल एक ऐसा फैसला किया जिसका अंजाम बहुत बुरा निकला। उन्होंने एक फरमान जारी किया, जिससे फ्रांस में उपासना करने की आज़ादी को रद्द कर दिया गया। नतीजा यह हुआ कि छोटे-छोटे धर्मों के खिलाफ वहशियाना तरीके से ज़ुल्म ढाने का सिलसिला शुरू हो गया।

डेंटिस्ट के ज़रिए दाँतों के इलाज की शुरूआत

राजा लुई चौदहवाँ जिस शाही ठाठ-बाट से रहते थे, उसका असर पैरिस समाज पर पड़ा। नतीजा, दाँतों के इलाज के पेशे का जन्म हुआ। उन दिनों, राज दरबार और समाज में लोगों की हैसियत इस बात से आँकी जाती थी कि वे दिखने में कैसे हैं। इसलिए लोग खाने के लिए नहीं, बल्कि दिखाने के लिए नकली दाँत लगवाने लगे। इस बढ़ती माँग की वजह से सर्जनों यानी डेंटिस्ट का एक नया दल उभरकर आया, जो सिर्फ बड़े-बड़े रईसों के लिए काम करते थे। पैरिस का सबसे मशहूर डेंटिस्ट था, पियर फॉशेर। उसने फ्रांस की नौसेना में सर्जरी करना सीखा था। फॉशेर ने ऐसे सर्जनों की कड़ी निंदा की, जो दाँत निकालने का काम नाकाबिल नाइयों या नीम-हकीमों पर छोड़ देते थे। वह ऐसा पहला शख्स था, जिसने खुद को ‘दाँतों का डॉक्टर’ कहा।

सन्‌ 1728 में, फॉशेर ने एक किताब लिखी, जिसमें उसने इलाज के उन सभी तरीकों के बारे में बताया जिनके बारे में उसे जानकारी थी। इस तरह उसने अपने धंधे के राज़ को राज़ रखने का दस्तूर तोड़ दिया। नतीजा यह हुआ कि उसे “दंत चिकित्सा का जन्मदाता” कहा गया। वह पहला डेंटिस्ट था, जिसने अपने मरीज़ को ज़मीन पर बिठाने के बजाय, खासकर मरीज़ों के लिए तैयार की गयी कुर्सी पर बिठाया। इसके अलावा, फॉशेर ने दाँत निकालने के पाँच औज़ार भी तैयार किए। मगर वह सिर्फ दाँत निकालनेवाला ही नहीं, बल्कि उससे भी बढ़कर डॉक्टर था। उसने डेंटिस्ट के इस्तेमाल के लिए ड्रिल मशीन और दाँतों पर बने गड्ढों को भरने के तरीके भी ईजाद किए। इतना ही नहीं, फॉशेर ने दाँतों का रूटकैनाल ट्रीटमेंट करना और जड़ में नकली दाँत लगाना सीखा। मरीज़ों को वह जो नकली दाँत लगाते थे, वे हाथी दाँत से गढ़कर बनाए जाते थे। और ऊपर के नकली दाँतों को अपनी जगह पर रखने के लिए वह दाँतों में एक किस्म का स्प्रिंग लगाता था। इस तरह फॉशेर ने एक डेंटिस्ट के नाते दाँतों का इलाज करने का पेशा शुरू किया। उसका असर अमरीका तक भी फैल गया।

अमरीका के पहले राष्ट्रपति की छटपटाहट

लुई चौदहवाँ के सौ साल बाद, अमरीका में जॉर्ज वॉशिंगटन दाँत दर्द से छटपटा रहे थे। बाईस साल की उम्र से, उन्हें लगभग हर साल एक दाँत उखड़वाना पड़ता था। और जब वे अँग्रेज़ों के खिलाफ अपनी अमरीकी सेना की अगुवाई कर रहे थे, तो क्या आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि वे किस कदर दाँत दर्द से बेहाल हो उठे होंगे? सन्‌ 1789 में, जब वे अमरीका के पहले राष्ट्रपति बने, तब तक उनके करीब-करीब सारे दाँत उखड़ चुके थे।

जॉर्ज वॉशिंगटन को इस पीड़ा के साथ-साथ मानसिक पीड़ा भी सहनी पड़ी। क्यों? क्योंकि दाँत गिरने की वजह से उनका चेहरा बिगड़ गया था और उन्होंने जो नकली बत्तीसी लगवायी, वह मुँह में ठीक से नहीं बैठ रही थी। वे अपनी शक्ल-सूरत पर बहुत ज़्यादा ध्यान देने लगे, क्योंकि अब वे राष्ट्रपति जो बन गए थे। और जनता के सामने उन्होंने अपनी एक अच्छी छवि पेश करने की बहुत कोशिश की। उस ज़माने में, नकली बत्तीसी को तैयार करने के लिए जबड़े का नाप लेकर उसे साँचे में ढालकर नहीं बनाया जाता था, बल्कि उसे हाथी दाँत से गढ़कर बनाया जाता था। इसलिए उसका सही तरह से मुँह में बैठना बहुत मुश्‍किल होता था। नकली दाँतों को लेकर वॉशिंगटन को जो दिक्कत होती थी, वही दिक्कत अँग्रेज़ लोगों को भी होती थी। कहा जाता है कि जब अँग्रेज़ मज़ाक करते हैं, तो वे खुद नहीं हँसते। वह इसलिए क्योंकि अगर वे खुलकर हँसें, तो लोगों को पता चल जाएगा कि उनके दाँत नकली हैं।

यह कहानी सदियों से चली आयी है कि वॉशिंगटन लकड़ी के बने नकली दाँत लगाते थे। मगर ऐसा मालूम होता कि यह बात सच नहीं। दरअसल वे हाथी दाँत के, सीसे के और इंसानों के दाँत लगाते थे, न कि लकड़ी के। मुमकिन है कि उनके डेंटिस्ट कब्र लूटनेवाले डाकुओं से दाँत खरीदते थे। दाँतों के व्यापारी लड़ाई के मैदान में सैनिकों के पीछे-पीछे जाते थे और मुरदों के और दम तोड़नेवालों के दाँत उखाड़ लेते थे। उन दिनों नकली दाँत लगवाना सिर्फ रईसों के बस की बात थी। सन्‌ 1850 के दशक में, सख्त रबर (vulcanized rubber) की ईजाद हुई और उसे नकली दाँतों का आधार बनाने में इस्तेमाल किया जाने लगा। तब से आम लोगों के लिए नकली दाँत लगवाना मुमकिन हो गया था। हालाँकि वॉशिंगटन के डेंटिस्ट इस पेशे में आला दर्जे के थे, मगर फिर भी वे पूरी तरह समझ नहीं पाए कि आखिर दाँत दर्द होता क्यों है।

दाँत दर्द के बारे में सच्चाई

पुराने ज़माने में लोग सोचते थे कि दाँत में कीड़े लगने की वजह से दाँत दर्द होता है। और यह धारणा सन्‌ 1700 के दशक तक बनी रही। सन्‌ 1890 में, जर्मनी के बर्लिन विश्‍वविद्यालय में काम कर रहे एक अमरीकी डेंटिस्ट, विलबी मिलर ने दाँतों के सड़ने की वजह का पता लगाया। और यही दाँत दर्द की सबसे बड़ी वजह है। विलबी ने पता लगाया कि एक तरह के कीटाणु होते हैं, जो खासकर मीठी चीज़ों पर पनपते हैं। इन कीटाणुओं से अम्ल बनता है, जो दाँतों पर हमला करता है। लेकिन दाँतों को सड़ने से कैसे बचाया जा सकता है? दरअसल इसका जवाब भी इत्तफाक से मिल गया।

अमरीका के कॉलराडो राज्य में, कई सालों से डेंटिस्ट को इस बात ने चक्कर में डाल रखा था कि वहाँ के बहुत-से लोगों के दाँतों पर धब्बे क्यों होते हैं। आखिरकार, पता चला कि पानी में फ्लोराइड की मात्रा ज़्यादा होने की वजह से ऐसा होता है। मगर उस समस्या का अध्ययन करने के दौरान, खोजकर्ताओं ने इत्तफाक से एक और अहम सच्चाई का पता लगाया, जिससे दुनिया-भर में दाँत दर्द की रोकथाम की जा सकती है। वह सच्चाई यह है कि जिन जगहों में पीने के पानी में सही मात्र में फ्लोराइड नहीं होता, वहाँ के लोगों के दाँत ज़्यादा सड़ते हैं। बहुत-सी जगहों के पानी में फ्लोराइड कुदरती तौर पर पाया जाता है, जो दाँतों के इनैमल (दाँतों की ऊपरी परत) का एक अंश होता है। जिन लोगों के पानी में फ्लोराइड की मात्रा कम होती है, उनके पानी में अगर सही मात्रा में फ्लोराइड मिलाया जाए, तो दाँतों के सड़ने की गुंजाइश 65 प्रतिशत कम हो जाएगी।

इस तरह दाँत दर्द का राज़ पता चल गया। ज़्यादातर मामलों में, दाँतों के सड़ने की वजह से ही दाँत दर्द होता है। मीठी चीज़ें ज़्यादा खाने से दाँत जल्दी सड़ते हैं। फ्लोराइड दाँतों को सड़ने से बचाता है। मगर, यह बात भी सच है कि फ्लोराइड, ब्रश और फ्लॉसिंग करने की जगह नहीं ले सकता।

बिना दर्द के दाँतों के इलाज की तलाश करना

जब तक एनस्थिज़िया की खोज नहीं हुई थी, तब तक दाँतों का इलाज करते समय मरीज़ को ज़बरदस्त दर्द सहना पड़ता था। डेंटिस्ट तेज़ धारवाले औज़ारों से मरीज़ के कमज़ोर और सड़े हुए दाँत में गड्ढा करते थे और खाली जगह में फिलिंग के तौर पर गरम, पिघली हुई धातु भर देते थे। जब किसी दाँत के मज्जे में इंफेक्शन हो जाता था, तो वे तपते हुए लोहे की छड़ को दाँत में चुभोकर उसकी जड़ को जला देते थे, क्योंकि उनके पास इलाज का कोई दूसरा तरीका नहीं था। खास औज़ारों के बनने और एनस्थिज़िया की खोज होने से पहले, दाँतों को निकलवाना बेहद दर्दनाक अनुभव होता था। फिर भी, लोग इस दर्द को बरदाश्‍त करने के लिए इसलिए तैयार हो जाते थे, क्योंकि दाँत का दर्द इससे भी भयंकर होता था। हालाँकि अफीम, भाँग और दूदाफल जैसी जड़ी-बूटियों का सदियों से इस्तेमाल किया जाता था, मगर इनसे सिर्फ कुछ हद तक ही दर्द कम होता था। क्या डेंटिस्ट कभी ऐसी सर्जरी कर पाते जिसमें ज़रा-भी दर्द न होता?

सन्‌ 1772 में, अँग्रेज़ रसायन-विज्ञानी जोसेफ प्रीस्टली ने नाइट्रस ऑक्साइड या लाफिंग गैस का आविष्कार किया। उसके थोड़े समय बाद पता चला कि इस गैस में दर्द से राहत पहुँचाने के गुण हैं। लेकिन सन्‌ 1844 तक किसी ने एनस्थिज़िया के तौर पर उसका इस्तेमाल नहीं किया। उसी साल, 10 दिसंबर को हॉरेस वेल्स नाम का एक डेंटिस्ट एक भाषण सुनने गया, जहाँ लाफिंग गैस का प्रदर्शन किया जा रहा था। वेल्स अमरीका के कनेटिकट राज्य के हार्टफर्द शहर से था। उसने देखा कि जिस शख्स को यह गैस सुँघायी गयी, उसे भारी-भरकम बेंच से ठोकर लगने पर भी दर्द का एहसास नहीं हुआ। वेल्स के मन में फौरन यह विचार कौंधा कि क्यों न नाइट्रस ऑक्साइड को एनस्थिज़िया के तौर पर इस्तेमाल किया जाए। उसे यह बात इसलिए सूझी क्योंकि वह एक हमदर्द इंसान था और मरीज़ों के इलाज के दौरान उससे उनका दर्द नहीं देखा जाता था। लेकिन दूसरों पर इस गैस को इस्तेमाल करने से पहले उसने खुद पर आज़माने का फैसला किया। अगले दिन, वह ऑपरेशनवाली कुर्सी पर बैठ गया और तब तक गैस सूँघता रहा, जब तक वह बेहोश न हो गया। इसके बाद, उसके एक सहकर्मी ने उसकी अक्ल दाढ़ निकाली, जो काफी समय से उसे परेशान कर रही थी। यह इतिहास की एक अहम घटना थी। आखिरकार बिना दर्द के दाँतों का इलाज करना मुमकिन हो गया! *

तब से लेकर आज तक, दाँतों के इलाज के क्षेत्र में कई तकनीकी सुधार हुए हैं। इसलिए, आप पाएँगे कि बीते ज़माने के मुकाबले आज डेंटिस्ट के पास जाना डरावना अनुभव बिलकुल नहीं है। (9/07)

[फुटनोट]

^ पैरा. 22 आजकल नाइट्रस ऑक्साइड से ज़्यादा लोकल एनस्थिज़िया का इस्तेमाल किया जाता है।

[पेज 28 पर तसवीर]

अमरीका के पहले राष्ट्रपति, जॉर्ज वॉशिंगटन के नकली दाँत, जो हाथी दाँत से बनाए गए थे

[चित्र का श्रेय]

Courtesy of The National Museum of Dentistry, Baltimore, MD

[पेज 29 पर तसवीर]

एक चित्रकार की तसवीर: सन्‌ 1844 में, दाँतों का पहला ऑपरेशन, जिसमें नाइट्रस ऑक्साइड को एनस्थिज़िया के तौर पर इस्तेमाल किया गया था

[चित्र का श्रेय]

Courtesy of the National Library of Medicine

[पेज 27 पर चित्र का श्रेय]

Courtesy of the National Library of Medicine