परों की बेमिसाल कारीगरी
परों की बेमिसाल कारीगरी
अपने पंखों को एक ही बार नीचे की तरफ फड़फड़ाकर एक समुद्री पक्षी बड़ी तेज़ी से आसमान की तरफ निकल पड़ता है। जैसे ही वह ऊँचाई पर पहुँचता है, वह चक्कर काटते हुए हवा के सहारे आराम से और भी ऊपर उठता है। अपने पंखों और पूँछवाले परों के कोण में ज़रा-सा फेरबदल करके वह बिना पंख फड़फड़ाए उड़ सकता है। आखिर यह पक्षी इतनी खूबसूरती और बेहतरीन तरीके से यह कलाबाज़ी कैसे दिखा पाता है? यह काफी हद तक उसके परों का कमाल है!
सभी जंतुओं में से सिर्फ पक्षियों के पर होते हैं। ज़्यादातर पक्षियों के शरीर में तरह-तरह के पर होते हैं। एक तरह का पर जो हमें साफ दिखायी देता है, वह है देहपिच्छ (कंटूर फेदर्स्)। ये पर पक्षी के पूरे शरीर में पास-पास सटे हुए पाए जाते हैं। इनसे पक्षियों का ऐसा आकार बनता है, जिससे वे बड़ी आसानी से हवा में उड़ पाते हैं। देहपिच्छ, पक्षी के पंख और पूँछ पर पाए जाते हैं, जो उड़ने के लिए बेहद ज़रूरी होते हैं। एक हमिंगबर्ड में 1,000 से भी कम और एक हंस में 25,000 से भी ज़्यादा देहपिच्छ हो सकते हैं।
पक्षियों के पर वाकई बेमिसाल कारीगरी का सबूत हैं! पर की बीचवाली डंडी को रेकिस कहा जाता है, जो लचीली और काफी मज़बूत होती है। इस डंडी से परों के रेशों (बार्ब्स्) की कतारें निकलती हैं और ये रेशे एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। इस तरह पर के दोनों तरफ का हिस्सा समतल होता है जिसे वेन कहा जाता है। परों के रेशे एक-दूसरे से कैसे जुड़े रहते हैं? हर रेशे में सैकड़ों और भी छोटे-छोटे हुकनुमा रेशे (बार्ब्यूल्स्) होते हैं, जो आस-पास के हुकनुमा रेशों से फँसे होते हैं। ये एक ज़िप की तरह काम करते हैं। जब ये छोटे-छोटे रेशे खुल जाते हैं, तो पक्षी को सिर्फ अपने पंखों को सँवारने की ज़रूरत होती है, जिससे हुकनुमा रेशे दोबारा एक-दूसरे से फँस जाते हैं। अगर आप भी एक बिखरे पर को हलके-से अपनी उँगलियों से सँवारें, तो आप पाएँगे कि उनके रेशे वापस एक-दूसरे से फँस जाते हैं और पर फिर से समतल हो जाता है।
खासकर उड़ान में मदद देनेवाले पर समान आकार के नहीं होते हैं। पर के पीछे का हिस्सा, आगे के हिस्से से ज़्यादा चौड़ा होता है। इस तरह की डिज़ाइन हवाई जहाज़ के पंखों में देखने को मिलती है। इसी डिज़ाइन की वजह से, पक्षी का हरेक पर एक छोटे पंख की तरह काम करता है और उड़ान भरने में मदद देता है। इसके अलावा, अगर आप पक्षियों की उड़ान में मदद देनेवाले एक बड़े पर की जाँच करें, तो आप पाएँगे कि रेकिस के निचले हिस्से में खाँचा बना होता है। इस मामूली-सी डिज़ाइन से रेकिस को मज़बूती मिलती है। इसलिए आप रेकिस को किसी भी तरह मोड़ दीजिए, यह मुड़ी नहीं रहेगी बल्कि वापस सीधी हो जाएगी।
परों के अनेक काम
देहपिच्छ के बीच-बीच में रोमपिच्छ (फाइलोप्लूम्स्) नाम के लंबे और पतले किस्म के पर और पाउडर फेदर्स् भी पाए जाते हैं। माना जाता है कि रोमपिच्छ की जड़ों में कुछ इंद्रियाँ
होती हैं, जो बाहरी परों में किसी तरह की गड़बड़ी पैदा होने पर फौरन पक्षी को खबरदार कर देती हैं। इसके अलावा, इन इंद्रियों की मदद से पक्षी हवा में अपनी रफ्तार का भी पता लगा सकता है। सिर्फ पाउडर फेदर्स् के रेशे लगातार उगते हैं और पक्षी के शरीर से कभी नहीं झड़ते। इसके बजाय, ये रेशे महीन पाउडर बन जाते हैं और पक्षी के शरीर पर जलरोधक का काम करते हैं।पक्षियों के परों का एक और काम है। वे पक्षियों को गरमी, सर्दी और सूरज की खतरनाक किरणों से बचाते हैं। मिसाल के लिए, समुद्री बत्तख महासागर की चुभनेवाली ठंडी हवाओं में पलती-बढ़ती हैं। कैसे? उनके भरे-पूरे देहपिच्छ के नीचे नरम, रोएँदार परों की एक मोटी परत मौजूद होती है। इन परों को कोमलपिच्छ (डाऊन फेदर्स्) कहते हैं। ये पर लगभग 1.7 सेंटीमीटर की मोटाई तक घने हो सकते हैं और इनसे बत्तख का ज़्यादातर शरीर ढका होता है। कोमलपिच्छ, शरीर की गरमी को बाहर न निकलने देने में इतने असरदार होते हैं कि अब तक इंसानों ने ऐसी कोई चीज़ नहीं बना पायी है जो इसकी बराबरी कर सके।
समय के गुज़रते, पक्षियों के पर खराब या नष्ट हो जाते हैं, इसलिए पक्षी अपने पुराने परों को गिरा देते हैं और उनकी जगह नए पर उग आते हैं। ज़्यादातर पक्षियों के पंख और पूँछ के पर एक निश्चित समय में और थोड़े-थोड़े करके झड़ते हैं, जिससे कि उन्हें उड़ने में कोई परेशानी नहीं होती।
“बनावट कुछ ज़्यादा ही अच्छी है”
हवाई जहाज़ों की डिज़ाइन बनाने, उन्हें आकार देने और उन पर कुशलता से काम करने के बाद ही, ये उड़ने के लायक बनते हैं। पक्षियों और उनके परों के बारे में क्या? आज तक ऐसा कोई भी जीवाश्म नहीं पाया गया है, जो साबित करे कि परों का विकास हुआ था। इसलिए विकासवादियों में इस बात को लेकर गरमा-गरम बहस छिड़ी हुई है कि आखिर परों की शुरूआत कैसे हुई। इस पर चर्चा करने के लिए एक सभा रखी गयी थी। लेकिन साइंस न्यूज़ पत्रिका के मुताबिक, इस सभा में विकासवादियों पर “कट्टरपंथियों की तरह पागलपन सवार था,” “गाली-गलौज हो रही थी” और “जीवाश्म के अध्ययन करनेवाले वैज्ञानिक बहुत भड़के हुए थे।” विकासवाद पर अध्ययन करनेवाले जिस जीव-वैज्ञानिक ने उस सभा को आयोजित किया था, उसने कबूल किया: “मैंने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि विज्ञान के किसी विषय को लेकर, वैज्ञानिक इस तरह की बेहूदा हरकत करेंगे और इस कदर ज़हर उगलेंगे।” यह एक सोचनेवाली बात है: अगर विकासवादियों को पक्का यकीन है कि परों का विकास हुआ था, तो उनके विकास को लेकर इतनी बहस क्यों छिड़ी हुई है?
येल यूनिवर्सिटी की पक्षीविज्ञान की किताब—पक्षियों की बनावट और काम (अँग्रेज़ी) कहती है: “बहस की असली वजह यह है कि परों की बनावट कुछ ज़्यादा ही अच्छी है।” पक्षियों के परों से ऐसा कोई सुराग नहीं मिलता कि इन्हें कभी सुधारे जाने की ज़रूरत पड़ी थी। दरअसल, वैज्ञानिकों को मिले “अब तक के सबसे पुराने परों के जीवाश्म और आज के पक्षियों * फिर भी, विकासवाद का सिद्धांत सिखाता है कि धीरे-धीरे जानवरों के अंगों में बदलाव होते-होते पर आ गए और इस तरह परों का विकास हुआ। इसके अलावा, पक्षीविज्ञान की किताब यह भी कहती है: “परों का विकास हो ही नहीं सकता, क्योंकि इसके लिए हर पीढ़ी के पक्षी के परों में सुधार होने की ज़रूरत है, जबकि ऐसा नहीं हुआ था।”
के परों में कोई फर्क नहीं है।”दूसरे शब्दों में कहें तो विकासवाद के सिद्धांत के मुताबिक, एक भी पर वजूद में नहीं आ सकता, जब तक कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी होनेवाले बदलाव के हर चरण में, पर की बनावट में कोई बड़ा सुधार न हुआ हो और इससे पक्षी के बचने की गुंजाइश न बढ़ी हो। यहाँ तक कि कई विकासवादियों को यह बात मानना नामुमकिन लगता है कि बढ़िया तरीके से काम करनेवाले पेचीदा परों का कभी इस तरह विकास हो सकता है।
इसके अलावा, अगर एक लंबे समय के दौरान परों का धीरे-धीरे विकास हुआ था, तो उसके बीच के चरणों के कुछ जीवाश्म तो होने चाहिए। लेकिन आज तक ऐसा एक भी जीवाश्म नहीं मिला है, बल्कि पूरे-के-पूरे पर के कुछ अवशेष मिले हैं। पक्षीविज्ञान की किताब कहती है: “विकासवाद के सिद्धांत के लिए, पक्षियों के पर बहुत ही पेचीदा हैं।”
उड़ने के लिए सिर्फ पक्षियों के पर काफी नहीं
विकासवादियों के लिए सिर्फ यह एक मुश्किल नहीं कि परों की बनावट में कोई खोट नहीं है। क्योंकि देखा जाए तो पक्षी का एक-एक अंग उड़ने के लिए ही बना है। मिसाल के लिए, पक्षियों की हड्डियाँ हलकी और खोखली होती हैं और उनकी साँस लेने की व्यवस्था बहुत ही अनोखी और बढ़िया है। इतना ही नहीं, उनके शरीर में खास किस्म की माँस-पेशियाँ होती हैं, जो पंखों को फड़फड़ाने और उन्हें काबू में रखने में मदद देती हैं। यहाँ तक कि पक्षियों में कई ऐसी माँस-पेशियाँ भी हैं, जो हरेक पर को अपनी जगह में बनाए रखती हैं। यही नहीं, पक्षियों की नसें हर माँस-पेशी को उनके मस्तिष्क से जोड़े रखती हैं। यह मस्तिष्क है तो छोटा, मगर बड़ा बेमिसाल है, क्योंकि यह पक्षियों के उड़ने की सारी व्यवस्था को एक-साथ, अपने आप और ठीक-ठीक काबू में रखता है। जी हाँ, पक्षियों को उड़ने के लिए सिर्फ परों की नहीं, बल्कि इन सभी अंगों की ज़रूरत होती है।
यह भी ध्यान रखिए कि हर पक्षी की शुरूआत एक छोटी-सी कोशिका से होती है। उस कोशिका में, उसके बढ़ने और उसकी सहज-बुद्धि की तमाम जानकारी दी होती है, ताकि एक दिन वह बड़ा होकर आसमान में उड़ सके। अब सवाल उठता है कि क्या पक्षी और उनके पर इत्तफाक से आ गए? या क्या इसका आसान-सा जवाब ही सबसे तर्कसंगत और विज्ञान के हिसाब से सही है, यानी उन्हें एक बहुत ही बुद्धिमान रचनाकार ने बनाया है? सबूत खुद सच्चाई बयान करते हैं।—रोमियों 1:20. (g 7/07)
[फुटनोट]
^ पैरा. 12 परों का जो जीवाश्म मिला, वह आर्किऑप्टेरिक्स नाम के एक लुप्त जंतु का है। इसे कभी-कभी रेंगनेवाले जंतुओं और आज के पक्षियों की “खोयी हुई कड़ी” कहा जाता है। लेकिन जीवाश्म का अध्ययन करनेवाले ज़्यादातर वैज्ञानिक इसे आज के पक्षियों का पूर्वज नहीं मानते।
[पेज 24 पर बक्स/तसवीर]
“सबूत” जो झूठा निकला
कुछ समय पहले, एक जीवाश्म (फॉसिल) को “सबूत” के तौर पेश किया गया था और बढ़-चढ़कर यह दावा किया गया था कि पक्षियों का विकास दूसरे जानवरों से हुआ है। मिसाल के लिए, सन् 1999 में नैशनल जिओग्राफिक पत्रिका ने अपने एक लेख में एक परवाले जंतु के जीवाश्म का ज़िक्र किया था, जिसकी पूँछ डायनासोर जैसी थी। पत्रिका ने कहा कि यह जंतु “वाकई डायनासोर और पक्षियों के बीच की खोयी हुई कड़ी है।” मगर बाद में पता चला कि यह सबूत झूठा है। दरअसल यह जीवाश्म दो अलग-अलग जानवरों के जीवाश्मों को जोड़कर बनाया गया था। देखा जाए तो आज तक, ऐसी कोई “खोयी हुई कड़ी” पायी ही नहीं गयी है।
[चित्र का श्रेय]
O. Louis Mazzatenta/National Geographic Image Collection
[पेज 25 पर बक्स]
पक्षी की पैनी नज़र
पक्षियों के चटकीले और सतरंगे पर, अकसर इंसान का मन मोह लेते हैं। मगर इंसानों से कहीं ज़्यादा ये पर दूसरे पक्षियों को दिलचस्प लगते हैं। क्यों? क्योंकि कुछ पक्षियों की आँखों में रंगों का पता लगानेवाली चार किस्म की कोशिकाएँ (शंकु के आकार की) होती हैं, जबकि इंसान की आँखों में सिर्फ तीन किस्म की ऐसी कोशिकाएँ होती हैं। इसलिए पक्षी पराबैंगनी किरणें (अल्ट्रा-वायलेट लाइट) देख सकते हैं, जबकि इंसान इन्हें बिलकुल भी नहीं देख सकते। इंसानों को पक्षियों की कुछ जातियों के नर और मादा दिखने में एक-जैसे लगते हैं, मगर पक्षियों को इस फर्क का पता होता है। वह कैसे? नर और मादा के परों से निकलनेवाली पराबैंगनी किरणों में हलका-सा फर्क होता है और यह फर्क पक्षी देख पाते हैं। और शायद यही बात उन्हें अपने लिए साथी चुनने में मदद देती है।
[पेज 23 पर रेखाचित्र]
(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)
परों का रेशा
छोटे-छोटे हुकनुमा रेशे
रेकिस
[पेज 24 पर तसवीर]
देहपिच्छ
[पेज 24 पर तसवीर]
रोमपिच्छ
[पेज 25 पर तसवीर]
पाउडर फेदर
[पेज 25 पर तसवीर]
कोमलपिच्छ
[पेज 24, 25 पर तसवीर]
बड़ा जलपक्षी