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परमेश्‍वर को पहली जगह देने से मिली आशीषें

परमेश्‍वर को पहली जगह देने से मिली आशीषें

परमेश्‍वर को पहली जगह देने से मिली आशीषें

पियर वॉरू की ज़ुबानी

“बॉनज़ूर!” पूरी ज़िंदगी मैंने लोगों को इसी शब्द से सलाम किया जो कि फ्रांसीसी भाषा का अभिवादन है। लेकिन सन्‌ 1975 में ऐसा करने की वजह से मुझे गिरफ्तार कर लिया गया। चलिए मैं आपको बताता हूँ कि ऐसा क्यों हुआ और उसके बाद मेरी ज़िंदगी ने क्या मोड़ लिया।

मेरा जन्म 1 जनवरी, 1944 को मध्य बेनिन में सावे शहर के मालेटे उपनगर में हुआ था। * मेरे माता-पिता ने मेरा नाम ऑबीओलॉ रखा जो योरूबा भाषी लोग अकसर रखते हैं। लेकिन बचपन में ही मैंने अपना नाम बदलकर पियर रख लिया। मैं सोचता था कि यह नए ज़माने का नाम है।

हमारे इलाके के सभी बच्चों को प्यार से उनके घर के नाम से बुलाया जाता था। मुझे सभी लोग पास्टर बुलाते थे क्योंकि जन्म के समय मेरा चेहरा वहाँ के पादरी से काफी मिलता था। लेकिन मुझे धर्मविज्ञान की क्लासों में जाने से ज़्यादा फुटबाल खेलना पसंद था।

सन्‌ 1959 में, स्कूल की पढ़ाई जारी रखने के लिए मैं साकेते शहर चला गया जो देश के दक्षिणी हिस्से में है। वहाँ मैं अपने ताऊजी के बेटे सीमोन के साथ रहा जो टीचर था। उसने हाल ही में यहोवा के दो साक्षियों के साथ बाइबल अध्ययन शुरू किया था। पहले-पहल तो उसके साथ अध्ययन में बैठना मुझे बड़ा खलता था। मगर कुछ समय बाद मैंने सीमोन के छोटे भाई मीशेल से अपने साथ अध्ययन में बैठने को कहा, तो वह राज़ी हो गया। यही वह वक्‍त था, जब मैंने पहली बार सुना कि परमेश्‍वर का नाम यहोवा है।

एक दिन रविवार को सीमोन, मीशेल और मैंने फैसला किया कि हम चर्च जाने के बजाय साक्षियों की सभा में जाएँगे। लेकिन वहाँ पहुँचकर हम बड़े निराश हुए क्योंकि सभा में सिर्फ पाँच लोग हाज़िर थे, दो साक्षी और हम तीन भाई! फिर भी हमने यह समझ लिया कि सच्चाई इन्हीं लोगों के पास है। हमने अपना बाइबल अध्ययन जारी रखा। सबसे पहले मीशेल ने बपतिस्मा लेकर परमेश्‍वर के लिए अपना समर्पण ज़ाहिर किया। आज वह एक पायनियर है, यानी पूरे समय परमेश्‍वर की सेवा करनेवाला यहोवा का साक्षी।

फिर सीमोन, देश के उत्तरी भाग में कोकॉरो शहर चला गया और मैं भी उसके साथ गया। कोकॉरो से 220 किलोमीटर दूर वॉनसूगॉ गाँव में साक्षियों ने सर्किट सम्मेलन रखा था। सीमोन तो वहाँ सवारी ढोनेवाली टैक्सी से गया और मैं साइकिल से। हम दोनों ने उसी सम्मेलन में 15 सितंबर, 1961 को बपतिस्मा लिया।

पूरे समय की सेवा की चुनौतियाँ

मैं पेंटिंग बनाता और उन्हें बेचता था, साथ ही खेती-बाड़ी भी करता था जिसमें काफी अच्छी फसल होती थी। इस तरह अपना गुज़ारा करता था। एक बार जब सफरी अध्यक्ष फीलीप ज़ानू ने हमारी मंडली का दौरा किया तो उन्होंने मुझे पायनियर सेवा करने का बढ़ावा दिया। इस पर मैंने अपने दोस्त एमानवेल फॉतुंबी से इस बारे में चर्चा की। फिर हम दोनों ने कहा कि हम फरवरी 1966 से सेवा शुरू करने के लिए तैयार हैं। थोड़े समय बाद मैंने सफरी अध्यक्ष के तौर पर सेवा शुरू की और उन मंडलियों का दौरा किया जहाँ फॉन, गून, योरूबा और फ्रांसीसी भाषाएँ बोली जाती थीं।

कुछ समय बीतने पर मेरी मुलाकात एक खूबसूरत लड़की ज़ूईल्यन से हुई। वह भी एक यहोवा की साक्षी थी और मेरी तरह सादगी भरी ज़िंदगी पसंद करती थी। 12 अगस्त, 1971 को मैंने उससे शादी कर ली। अब मंडलियों का दौरा करते वक्‍त वह भी मेरे साथ जाने लगी। 18 अगस्त, 1972 को हमारा पहला बेटा बोलॉ पैदा हुआ। मंडलियों का दौरा करने के लिए मैं साइकिल से जाता था। पीछे मेरी पत्नी हमारे बेटे को अपनी पीठ पर बाँधकर बैठती थी। हमारा सामान अकसर मंडली का कोई साक्षी अपनी साइकिल से पहुँचा देता था। इस तरीके से हमने चार साल मंडलियों का दौरा किया।

एक दिन ज़ूईल्यन की तबियत बहुत खराब हो गयी और हमारी वह रात बड़ी मुश्‍किल से कटी। सुबह होते ही मैं यह सोचकर सड़क पर गया कि शायद कोई सवारी मिल जाए। इत्तफाक से मुझे एक टैक्सी दिखायी दी, जो उस इलाके में दिखना एक अजूबा ही था। मगर उससे भी बड़ा अजूबा यह था कि वह टैक्सी खाली थी! मैंने ड्राइवर को अपनी हालत बतायी और पूछा कि क्या वह हमें यहाँ से 25 किलोमीटर दूर राजधानी पोर्टो नोवो तक छोड़ देगा। वह राज़ी हो गया। वहाँ पहुँचकर उसने मुस्कराकर कहा: “इस यात्रा को मेरी तरफ से तोहफा समझिए। मैं आपसे इकन्‍नी भी नहीं लूँगा।”

ज़ूईल्यन को एक साक्षी के घर रहना पड़ा। वह दो हफ्ते तक बिस्तर से नहीं उठ पायी। डॉक्टर रोज़ाना आकर उसे देख जाता था। वह अपने साथ ज़रूरी दवाएँ भी लाता था। जब वह आखिरी बार ज़ूईल्यन को देखने आया तब मैंने सकुचाते हुए उससे पूछा, आपकी फीस कितनी हुई। उसका जवाब सुनकर मैं उसे देखता रह गया, उसने कहा: “कोई फीस नहीं!”

अनोखे बदलाव

सन्‌ 1975 में डाहोमी देश ने मार्क्सवादी सरकार अपना ली। फिर इस देश का नाम पिपल्स रिपब्लिक ऑफ बेनिन रख दिया गया। तौर-तरीकों में बदलाव आया। सरकार ने नए अभिवादन की शुरूआत की: “पूर लॉ रेवॉल्यूस्यों?” (क्या आप क्रांति के लिए तैयार हैं?) इसके एवज़ में लोगों से इस जवाब की उम्मीद की जाती थी: “प्रे!” (मैं तैयार हूँ!) बाइबल से तालीम पाए हमारे विवेक ने इजाज़त नहीं दी कि हम ऐसे राजनीतिक नारे दोहराएँ। लिहाजा हमें बहुत अत्याचार सहने पड़े।

सन्‌ 1975 के आखिर में जब एक दिन मैं रविवार को सेन मीशल नाम के इलाके में घर-घर जाकर खुशखबरी सुना रहा था, तब मुझे गिरफ्तार कर लिया गया। दरअसल, एक आदमी ने मुझसे “पूर लॉ रेवॉल्यूस्यों?” कहा। लेकिन मैंने जवाब में “बॉनज़ूर!” कहा, जैसा कि लेख के शुरू में बताया गया है। इस पर मुझे थाने ले जाया गया और पीटा गया। लेकिन तीसरे दिन उस इलाके के साक्षियों ने मुझे छुड़ा लिया।

मैं ही वहाँ ऐसा पहला साक्षी था जिसे गिरफ्तार किया गया। लेकिन कुछ समय बाद देश-भर में बहुत-से साक्षियों को गिरफ्तार किया गया। जल्द ही सरकार ने हमारे राज्य-घरों पर कब्ज़ा कर लिया और मिशनरियों को देश निकाला दे दिया। यहाँ तक कि शाखा दफ्तर पर भी ताला लगा दिया। बहुत-से साक्षियों को वह देश छोड़ना पड़ा, कुछ पश्‍चिम में टोगो देश भाग गए तो कुछ पूरब में नाइजीरिया।

नाइजीरिया में हमारा परिवार फला-फूला

25 अप्रैल, 1976 को हमारा दूसरा बेटा कोलॉ पैदा हुआ। दो दिन बाद सरकार ने धारा 111 के तहत यहोवा के साक्षियों के काम पर रोक लगा दी। अब हमें भी नाइजीरिया कूच करना पड़ा। जब हम एक राज्य-घर पहुँचे तो हमने देखा कि वह शरर्णार्थियों से खचाखच भरा है। अगले दिन यह इंतज़ाम किया गया कि हम पास की मंडलियों के साथ संगति करें। वहाँ जैसे ही एक सभा खत्म होती, शरर्णार्थियों का दूसरा समूह सभा के लिए हाज़िर हो जाता। नए शर्णार्थियों को ट्रकों के ज़रिए इन दूर-दराज़ की मंडलियों तक पहुँचाया जाता था।

नाइजीरिया के शाखा दफ्तर ने मुझे बेनिन के सभी साक्षियों से मिलने को कहा। उसके बाद, मुझे सफरी अध्यक्ष नियुक्‍त किया गया, जहाँ मैं योरुबा भाषा बोलनेवाली मंडलियों का दौरा करता था। आगे चलकर मुझे गुन भाषा बोलनेवाली मंडलियों का दौरा करने को भी कहा गया। अब हम दौरे पर मोटरबाइक से जाते थे। मेरा बेटा बोलॉ मेरे आगे बैठता था और कोलॉ मेरे और ज़ूईल्यन के बीच बैठता था।

सन्‌ 1979 में हमें एहसास हुआ कि एक बार फिर ज़ूईल्यन की गोद भरनेवाली है। अब हमें अपनी नन्ही-मुन्‍नी जमाइमा की वजह से सफरी काम छोड़ना पड़ा। बेनिन से ज़ूईल्यन की छोटी बहन हमारे साथ रहने के लिए आयी जिसे हम पेपे बुलाते थे। हमारा परिवार बढ़ता गया। हमारे दो और बेटे हुए, 1983 में कालेब और 1987 में सीलॉस। अब हमारे परिवार में 8 सदस्य थे। ज़ूईल्यन और मैं अच्छे माता-पिता बनना चाहते थे, लेकिन हम पूरे समय की सेवा भी नहीं छोड़ना चाहते थे। यह कैसे मुमकिन होता? हमने ठेके पर एक खेत लिया जिसमें हम कसावा, मकई और टैरो (एक किस्म की सब्ज़ी) उगाते थे। फिर हमने ईलोगबो-एरेमी गाँव में एक छोटा-सा घर बना लिया।

बच्चों को सुबह स्कूल भेजने के बाद मैं और ज़ूईल्यन प्रचार के लिए जाते थे। और बच्चों के लौटने से पहले ही हम वापस घर आ जाते थे, ताकि पूरा परिवार साथ मिलकर खाना खा सके। फिर थोड़ी झपकी लेने के बाद हम खेत में काम करने के लिए जाते थे। खेत में जो भी उगता उसे ज़ूईल्यन और पेपे बाज़ार में जाकर बेच आती थीं। हम सबने बहुत मेहनत की। यहोवा का लाख-लाख शुक्र है कि उन सालों में हम कभी बीमार नहीं पड़े।

बिना ऊँची शिक्षा के भी आशीषें

हमने कभी अपने बच्चों को ऊँची शिक्षा हासिल करने का बढ़ावा नहीं दिया। हम जानते थे कि परमेश्‍वर की सेवा को पहली जगह देना, मसीही गुण पैदा करना और मेहनत से काम करना ही कामयाब ज़िंदगी का राज़ है। हमने ये उसूल अपने बच्चों के दिल में उतारने की कोशिश की। मैंने उनके साथ बाइबल अध्ययन किए। हमें यह देखकर बड़ी खुशी मिली कि उन्होंने यहोवा से प्यार करना सीखा और उसकी सेवा करने के लिए अपना जीवन समर्पित किया और बपतिस्मा लिया!

पेपे हमारे बच्चों से बड़ी थी और वही सबसे पहले घर से विदा हुई। जब वह हमारे साथ रहने आयी थी तो मैंने उसे पढ़ना सिखाया। हालाँकि उसकी स्कूली पढ़ाई ज़्यादा नहीं हुई थी, फिर भी वह बाइबल अध्ययन और दूसरी आध्यात्मिक बातों पर पूरा ध्यान देती थी। कुछ समय पायनियर सेवा करने के बाद मन्डे आकिनरॉ से उसकी शादी हो गयी, जो एक सफरी अध्यक्ष था। सफरी काम में पेपे ने उसका साथ निभाया। उनके अब एक बेटा है, जिसका नाम तिमोथी है। पेपे और मन्डे ने पूरे समय की सेवा जारी रखी। मन्डे को सम्मलनों में काफी ज़िम्मेदारियाँ दी जाती हैं।

हमारा बड़ा बेटा बोलॉ एक बड़ी कंपनी में खाना पकाने के लिए अप्रिंटिस (सीखनेवाले) के तौर पर काम करने लगा। जल्द ही उसकी कंपनी के एक अधिकारी ने उसकी अच्छी आदतों, उसकी ईमानदारी और दूसरे मसीही गुणों पर गौर किया। कुछ समय बाद कंपनी में उसे एक बड़ा ओहदा दिया गया। इससे भी बढ़कर वह अपनी प्यारी पत्नी जेन का अच्छा पति, तीन बच्चों का बढ़िया पिता है। साथ ही, वह नाइजीरिया के लोगोस इलाके में यहोवा के साक्षियों की मंडली में ज़िम्मेदार प्राचीन है।

कोलॉ एक दरज़ी के पास अप्रिंटिस (सीखनेवाले) के तौर पर काम करने लगा। और उसने पायनियर सेवा भी शुरू की। नाइजीरिया में रहते हुए उसने अँग्रेज़ी सीख ली थी, इसलिए 1995 में उसे यहोवा के साक्षियों के शाखा दफ्तर में अनुवाद के काम के लिए बुलाया गया। वहाँ उसने 13 साल सेवा की।

फिर बेनिन में सेवा

हमें यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि 23 जनवरी, 1990 को सरकार ने साक्षियों के काम पर से पाबंदी हटा दी। बहुत-से शरर्णार्थी अपने वतन लौट आए। बेनिन में कुछ नए मिशनरी आए और शाखा दफ्तर फिर से खोला गया। सन्‌ 1994 में हमारा परिवार भी वापस बेनिन आ गया। मगर पेपे, बोलॉ और उनके परिवार नाइजीरिया में ही रहे।

मुझे बेनिन में पार्ट टाइम नौकरी मिल गयी। नाइजीरिया में बने हमारे घर से हमें थोड़ा किराया मिलता था और हमारा बेटा बोलॉ भी हमारी मदद करता था। इससे हमने बेनिन में एक छोटा-सा घर बनाया जिसमें हम पाँच लोग आराम से रह सकते थे। हमारा घर शाखा दफ्तर के करीब ही है। जमाइमा ने 6 साल से ज़्यादा पायनियर सेवा की। वह अपना खर्चा चलाने के लिए सिलाई करती थी। फिर उसकी शादी कॉकू आहूमेनू से हो गयी और अब वे बेनिन के शाखा दफ्तर में काम करते हैं। कालेब और सीलॉस की स्कूल की पढ़ाई खत्म होनेवाली है। मुझे और ज़ूईल्यन को परमेश्‍वर की सेवा में 40 साल से भी ऊपर हो गए हैं, जो कि परमेश्‍वर की मेहरबानी और परिवार के सहयोग से मुमकिन हुआ है।

बेनिन में हमारे काम पर परमेश्‍वर ने आशीषों की बौछार की है। सन्‌ 1961 में जब मेरा बपतिस्मा हुआ था तब वहाँ सिर्फ 871 साक्षी राज की खुशखबरी सुना रहे थे। मेरी गिरफ्तारी के साल में यह गिनती बढ़कर 2,381 हो गयी। फिर सन्‌ 1994 में जब हम बेनिन वापस आए, तब साक्षियों की गिनती बढ़कर 3,858 हो गयी, इसके बावजूद कि खुशखबरी सुनाने के काम पर 14 साल तक पाबंदी लगी रही। आज यह गिनती तब से दो गुना से ज़्यादा हो गयी है। आज वहाँ 9,000 से ज़्यादा साक्षी हैं। 2008 में मसीह की मौत के स्मारक में 35,752 लोग हाज़िर हुए!

कभी-कभी मैं उस जगह जाता हूँ, जहाँ मुझे 30 साल पहले गिरफ्तार किया गया था और सारी पुरानी बातें याद करता हूँ। मैं यहोवा को खासकर इस बात के लिए धन्यवाद देता हूँ कि उसने हमारे परिवार को आशीषों से नवाज़ा है। हमें कभी किसी चीज़ के लाले नहीं पड़े। मैं आज भी जब किसी को सलाम करता हूँ तो कहता हूँ “बॉनज़ूर!” (g 3/09)

[फुटनोट]

^ उस वक्‍त बेनिन, डाहोमी के नाम से जाना जाता था और पश्‍चिम अफ्रीका के फ्राँस का हिस्सा था।

[पेज 27 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

वह मुस्कराते हुए बोला, “इस यात्रा को मेरी तरफ से तोहफा समझिए। मैं आपसे इकन्‍नी भी नहीं लूँगा।”

[पेज 28 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

हमने कभी अपने बच्चों को ऊँची शिक्षा हासिल करने का बढ़ावा नहीं दिया

[पेज 29 पर तसवीर]

सन्‌ 1970 में सफरी अध्यक्ष के तौर पर

[पेज 29 पर तसवीर]

सन्‌ 1976 में अपने दो बेटों बोलॉ और कोलॉ के साथ

[पेज 29 पर तसवीर]

आज अपने पूरे परिवार के साथ—मेरी पत्नी, मेरे पाँच बच्चे, तीन पोते-पोतियाँ और पेपे का परिवार