अपने “उद्धार की आशा” को बरकरार रखिए!
अपने “उद्धार की आशा” को बरकरार रखिए!
‘उद्धार की आशा का टोप पहिने रहिए।’—1 थिस्सलुनीकियों 5:8.
1. “उद्धार की आशा” कैसे हमारी मदद करती है?
मान लीजिए कि बीच समुंदर में एक व्यक्ति की नाव डूब जाती है और वह किसी लकड़ी के सहारे टिका हुआ है। जब उसे पता चलता है कि लोग उसे बचाने के लिए निकल पड़े हैं तो उसमें उम्मीद जग जाती है जिसके बल पर वह बड़ी-से-बड़ी लहर का भी सामना कर पाता है। इसी तरह परमेश्वर के लोगों ने भी “उद्धार की आशा” के बल पर हर मुसीबत का डटकर सामना किया है। (निर्गमन 14:13; भजन 3:8; रोमियों 5:5; 9:33) पौलुस हमसे “उद्धार की आशा” को “टोप” की तरह पहनने के लिए कहता है। जिस तरह टोप एक सैनिक के सिर की रक्षा करता है, उसी तरह “उद्धार की आशा” हमारे सोच-विचार की रक्षा करती है, यानी हर विरोध, तकलीफ, और प्रलोभन के दौरान सोच-समझकर काम करने में मदद करती है।—1 थिस्सलुनीकियों 5:8; इफिसियों 6:17.
2. यहोवा के भक्तों के लिए “उद्धार की आशा” क्यों बहुत ज़रूरी है?
2 एक बाइबल शब्दकोश के मुताबिक पहली सदी में गैर-मसीहियों के पास उद्धार की ऐसी कोई आशा नहीं थी। सिर्फ मसीहियों के पास ऐसी आशा थी। (इफिसियों 2:12; 1 थिस्सलुनीकियों 4:13) यहोवा के भक्तों के लिए “उद्धार की आशा” बहुत ज़रूरी है। क्यों? पहला, क्योंकि उनके उद्धार से यहोवा की महिमा होती है, वह अपने नाम की खातिर उनका उद्धार करता है। भजनहार आसाप ने कहा: ‘हे हमारे उद्धारकर्त्ता परमेश्वर, अपने नाम की महिमा के निमित्त हमारी सहायता कर और हमें छुड़ा।’ (भजन 79:9; यहेजकेल 20:9) उद्धार पर विश्वास करना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि विश्वास के बिना यहोवा के साथ रिश्ता कायम नहीं किया जा सकता। पौलुस ने कहा: “विश्वास बिना उसे प्रसन्न करना अनहोना [नामुमकिन] है, क्योंकि परमेश्वर के पास आनेवाले को विश्वास करना चाहिए, कि वह है; और अपने खोजनेवालों को प्रतिफल देता है।” (इब्रानियों 11:6) तीसरा, हमारे उद्धार के लिए ही यीशु इस ज़मीन पर आया। पौलुस ने कहा: “यह बात सच और हर प्रकार से मानने के योग्य है, कि मसीह यीशु पापियों का उद्धार करने के लिये जगत में आया।” (1 तीमुथियुस 1:15) चौथा, उद्धार को ‘हमारे विश्वास का प्रतिफल’ कहा गया है। (1 पतरस 1:9) जी हाँ, यहोवा के भक्तों के लिए “उद्धार की आशा” बहुत ही ज़रूरी है। मगर हमें यह जानना होगा कि असल में उद्धार का मतलब क्या है? और उद्धार पाने के लिए हमें क्या करना चाहिए?
उद्धार का मतलब
3. इब्रानी शास्त्र में उद्धार का मतलब क्या है?
3 इब्रानी शास्त्र में शब्द “उद्धार” का मतलब है, ज़ुल्म से छुड़ाया जाना या मरने से बचाया जाना। इसी अर्थ में दाऊद ने यहोवा को “मेरा छुड़ानेवाला” कहा। उसने कहा, यहोवा “मेरा चट्टानरूपी परमेश्वर है, . . . मेरा शरणस्थान है, हे मेरे उद्धारकर्त्ता, तू उपद्रव से मेरा उद्धार किया करता है। मैं यहोवा को जो स्तुति के योग्य है पुकारूंगा, और अपने शत्रुओं से बचाया जाऊंगा।” (2 शमूएल 22:2-4) दाऊद अपने तज़ुर्बे से जानता था कि यहोवा अपने वफादार सेवकों की मदद की पुकार ज़रूर सुनता है।—भजन 31:22, 23; 145:19.
4. परमेश्वर के पुराने ज़माने के सेवक कौन-सी आशा रखते थे?
4 लेकिन उद्धार का मतलब इससे कहीं बढ़कर है। इसका मतलब अनंत जीवन भी है। परमेश्वर के पुराने ज़माने के कई सेवक यह आशा रखते थे। (अय्यूब 14:13-15; यशायाह 25:8; दानिय्येल 12:13) यह उद्धार यानी अनंत जीवन मसीहा के ज़रिए ही मिलना था। (यशायाह 49:6, 8; प्रेरितों 13:47; 2 कुरिन्थियों 6:2) मगर कई यहूदियों ने यीशु को वह मसीहा मानने से इनकार कर दिया। ऐसे यहूदियों से यीशु ने कहा: “तुम शास्त्रों का अध्ययन करते हो क्योंकि तुम्हारा विचार है कि तुम्हें उनके द्वारा अनन्त जीवन प्राप्त होगा। किन्तु, ये सभी शास्त्र मेरी ही साक्षी देते हैं।”—यूहन्ना 5:39, ईज़ी टू रीड वर्शन।
5. आखिर में मसीहियों को अनंत जीवन कहाँ मिलेगा?
5 मसीहियों के लिए उद्धार में और भी बातें शामिल हैं। इसमें पाप, झूठे धर्म, इस दुष्ट संसार, इंसान और यहाँ तक कि मौत के डर से छुटकारा शामिल है। (यूहन्ना 17:16; रोमियों 8:2; कुलुस्सियों 1:13; प्रकाशितवाक्य 18:2, 4) लेकिन उनके लिए भी सबसे बड़ा उद्धार अनंत जीवन है। (यूहन्ना 6:40; 17:3) “छोटे झुण्ड” को स्वर्ग में हमेशा-हमेशा की ज़िंदगी मिलेगी और वहाँ वे यीशु के साथ राज करेंगे। (लूका 12:32) और बाकी सभी लोगों को इसी पृथ्वी पर मिलेगी, जहाँ सब कुछ सुधार दिया जाएगा और फिर से इंसान यहोवा के साथ अच्छा रिश्ता कायम कर सकेंगे। (प्रेरितों 3:21; इफिसियों 1:10) खूबसूरत पृथ्वी पर अनंत जीवन ही इंसानों के लिए परमेश्वर का मकसद था। (उत्पत्ति 1:28; मरकुस 10:30) लेकिन यह सब कैसे मुमकिन होगा?
यीशु के बलिदान के ज़रिए उद्धार
6, 7. क्यों यीशु के ज़रिए ही हमारा उद्धार हो सकता है?
6 यीशु मसीह के बलिदान के ज़रिए ही हमारा उद्धार मुमकिन है। क्यों? जब आदम ने पाप किया तो उसने खुद को और अपनी होनेवाली सभी संतान को मानो पाप और मृत्यु के हाथों ‘बेच’ दिया। अगर मनुष्यजाति इस बंधन से छुटकारा चाहती है तो उसे खुद को छुड़ाने की कीमत अदा करनी होगी। (रोमियों 5:14, 15; 7:14) यह कीमत कौन देगा? पशुबलि चढ़ाने की बात मूसा की कानून-व्यवस्था में थी जिससे पता चलता है कि यहोवा इस कीमत को अदा करने के लिए एक बलिदान का इंतज़ाम करेगा। (इब्रानियों 10:1-10; 1 यूहन्ना 2:2) यह इंतज़ाम था, यीशु का बलिदान। इस बारे में एक स्वर्गदूत ने कहा: “वह [यीशु] अपने लोगों का उन के पापों से उद्धार करेगा।”—मत्ती 1:21; इब्रानियों 2:10.
7 यीशु सिद्ध था। उसमें आदम के पाप का ज़रा-सा भी असर नहीं था क्योंकि वह एक कुँवारी से पैदा हुआ था। साथ ही, वह ज़िंदगी भर निष्पाप रहा। इसलिए वह मौत के लायक नहीं था। सिर्फ वही मनुष्यों को पाप और मृत्यु से छुड़ाने की कीमत अदा कर सकता था। (यूहन्ना 8:36; 1 कुरिन्थियों 15:22) उसने खुशी-खुशी ‘बहुतों की छुड़ौती के लिये अपना प्राण दिया।’ (मत्ती 20:28) फिर परमेश्वर ने उसे जिलाया और स्वर्ग में उसे अधिकार दिया कि जो परमेश्वर की माँगों को पूरा करे उसे वह उद्धार दे।—प्रकाशितवाक्य 12:10.
उद्धार पाने के लिए हमें क्या करना होगा?
8, 9. (क) उद्धार के बारे यीशु ने एक धनी अधिकारी को क्या कहा? (ख) फिर यीशु ने अपने चेलों से क्या कहा?
8 एक बार एक धनी अधिकारी ने यीशु से पूछा: “अनन्त जीवन का अधिकारी होने के लिये मैं क्या करूं?” (मरकुस 10:17) उसके सवाल से पता चलता है कि यहूदी लोग यह सोचते थे कि बहुत सारे नेक काम करके वे परमेश्वर से उद्धार हासिल कर सकते हैं। मगर वो ऐसा काम सिर्फ फर्ज़ समझकर करते थे। इसीलिए उनका यह सोचना गलत था कि हम नेक कामों से उद्धार हासिल कर सकते हैं। साथ ही सभी इंसान असिद्ध हैं। सो वे पूरी तरह से परमेश्वर के स्तरों पर खरा उतर ही नहीं सकते, इसलिए अपने बलबूते पर उद्धार भी हासिल नहीं कर सकते।
9 जवाब में यीशु ने उस युवा अधिकारी को परमेश्वर की आज्ञाओं पर चलने के लिए कहा। इस पर उस जवान ने कहा ‘मैं तो बचपन से ऐसा करता आया हूँ।’ यह सुनकर यीशु का उस पर दिल आ गया। उसने कहा: “तुझ में एक बात की घटी है; जा, जो कुछ तेरा है, उसे बेच कर कंगालों को दे, और तुझे स्वर्ग में धन मिलेगा, और आकर मेरे पीछे हो ले।” यह सुनकर वह युवा बहुत उदास हो गया और उल्टे पैर लौट गया क्योंकि “वह बहुत धनी था।” तब यीशु ने अपने चेलों से कहा कि जो इंसान उद्धार पाना चाहता है, उसे धन-दौलत का मोह छोड़ देना चाहिए। इंसान चाहे कुछ भी कर ले, वह अपने बलबूते पर उद्धार हासिल नहीं कर सकता। सिर्फ परमेश्वर ही मनुष्यों को उद्धार दे सकता है। इसके बारे में उसने कहा: “मनुष्यों के लिए यह असम्भव है, परन्तु परमेश्वर के लिए नहीं, क्योंकि परमेश्वर के लिए सब कुछ सम्भव है।” (मरकुस 10:18-27, NHT; लूका 18:18-23) अब सवाल यह उठता है कि उद्धार पाने के लिए हमें क्या करना होगा?
10. हम उद्धार पाने के काबिल कैसे बन सकते हैं?
10 हम अपने कामों से उद्धार हासिल नहीं कर सकते, बल्कि उद्धार यहोवा की तरफ से हमारे लिए एक वरदान है। (रोमियों 6:23) लेकिन हमें इसके काबिल बनना चाहिए। कैसे? यीशु ने कहा: “परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम रखा कि उस ने अपना एकलौता पुत्र दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे, वह नाश न हो, परन्तु अनन्त जीवन पाए।” प्रेरित यूहन्ना ने कहा: “जो पुत्र पर विश्वास करता है, अनन्त जीवन उसका है; परन्तु जो पुत्र की नहीं मानता, वह जीवन को नहीं देखेगा।” (यूहन्ना 3:16, 36) इसलिए उद्धार पाने के काबिल बनने के लिए हमें यीशु के छुड़ौती बलिदान पर विश्वास करना होगा और उसकी आज्ञाओं के मुताबिक चलना होगा।
11. असिद्ध होने के बावजूद हम किस तरह से यहोवा को खुश कर सकते हैं?
11 मगर हम असिद्ध हैं, परमेश्वर की हर आज्ञा को पूरी तरह से नहीं मान सकते और इसलिए पाप कर बैठते हैं। इसीलिए माफी के लिए यहोवा ने छुड़ौती बलिदान का इंतज़ाम किया। मगर, इस इंतज़ाम को हमें पाप करने का बहाना नहीं समझना चाहिए। इसके बजाय, हमें परमेश्वर के मार्ग पर चलते रहने की कोशिश करनी चाहिए। इससे यहोवा खुश होगा साथ ही हमें भी खुशी मिलेगी। क्योंकि “उसकी आज्ञाएं कठिन नहीं” हैं, बल्कि ज़िंदगी में “ताज़गी” भर देती हैं। (1 यूहन्ना 5:3; नीतिवचन 3:1, 8, नयी हिन्दी बाइबिल) मगर फिर भी “उद्धार की आशा” को उज्जवल रखना आसान नहीं है।
“विश्वास के लिए यत्नपूर्वक संघर्ष करते रहो”
12. उद्धार की आशा किस तरह मसीहियों की मदद करती है?
12 जब कोई समस्या नहीं होती, तब यहोवा की आज्ञाओं को मानना शायद काफी आसान हो। मगर जब बदचलनी या कोई गलत काम करने की परीक्षा आती है तो क्या हम यहोवा की आज्ञा मानना छोड़ देंगे? हर हालात में यहोवा की आज्ञा मानने के लिए हमारी भक्ति और विश्वास बहुत मज़बूत होना चाहिए जिसके लिए “उद्धार की आशा” हमारी मदद करती है। पहली सदी के मसीहियों पर कुछ परीक्षाएँ आई थीं। कलीसिया में कुछ ऐसे लोग घुस आए थे जो कलीसिया में प्राचीनों का विरोध कर रहे थे, और फूट डाल रहे थे। इसलिए, शिष्य यहूदा ने मसीहियों को एक चिट्ठी लिखी। दरअसल, यहूदा मसीहियों को “उद्धार के विषय में” लिखनेवाला था, ‘जिस में वे सब सहभागी हैं।’ मगर कलीसिया में इस खतरे को देखकर उसने उन्हें ‘विश्वास के लिए यत्नपूर्वक संघर्ष करते रहने’ (NHT) के लिए लिखा। ऐसे खतरों से लड़ने के लिए उसने कहा: “हे प्रियो, तुम अपने अति पवित्र विश्वास में अपनी उन्नति करते हुए और पवित्र आत्मा में प्रार्थना करते हुए। अपने आप को परमेश्वर के प्रेम में बनाए रखो; और अनन्त जीवन के लिए हमारे प्रभु यीशु मसीह की दया की आशा देखते रहो।” (यहूदा 3, 4, 8, 19-21) सो, “उद्धार की आशा” ने उन मसीहियों को अपने सोच-विचार और चालचलन में शुद्ध रहने के लिए ताकत दी।
13. हम कैसे दिखा सकते हैं कि हमने परमेश्वर के अनुग्रह को व्यर्थ नहीं जाने दिया है?
13 यहोवा यही चाहता है कि हम अपने चालचलन में शुद्ध रहें। (1 कुरिन्थियों 6:9, 10) हालाँकि हम ऐसा करने की पूरी-पूरी कोशिश करें, मगर इसका मतलब यह नहीं कि हम दूसरों के चरित्र पर उँगली उठाएँ। दूसरों को अपने कर्मों का क्या फल मिलना चाहिए, यह तय करनेवाले हम कौन होते हैं? यह काम परमेश्वर का है, जिसके बारे में पौलुस ने कहा: “उस ने एक दिन ठहराया है, जिस में वह उस मनुष्य [यानी यीशु मसीह] के द्वारा धर्म से जगत का न्याय करेगा, जिसे उस ने ठहराया है।” (प्रेरितों 17:31; यूहन्ना 5:22) सो अगर हमारा चालचलन ठीक है, तो हमें परमेश्वर के इस आनेवाले न्याय के दिन से डरने की कोई ज़रूरत नहीं है। बस हमें यीशु के छुड़ौती बलिदान में पूरा-पूरा विश्वास करना है। (इब्रानियों 10:38, 39) साथ ही, हमें इस ज़रूरी बात को ध्यान में रखना चाहिए कि ‘परमेश्वर का जो अनुग्रह हमें मिला है, [छुड़ौती के द्वारा परमेश्वर के साथ हमारा जो मेल-मिलाप हुआ है], उसे व्यर्थ न जाने दें।’ (2 कुरिन्थियों 6:1, ईज़ी टु रीड वर्शन) अगर हम आहिस्ते-आहिस्ते गलत सोच-विचार और चालचलन में फँसने लगते हैं तो इसका मतलब होगा कि हम परमेश्वर के अनुग्रह को व्यर्थ जाने दे रहे हैं। दूसरी तरफ, अगर हम उद्धार पाने में दूसरों की मदद करते हैं, तो हम दिखाते हैं कि हम परमेश्वर के अनुग्रह को व्यर्थ नहीं जाने दे रहे हैं। मगर हम उद्धार पाने में दूसरों की मदद कैसे कर सकते हैं?
दूसरों को भी उद्धार की आशा देना
14, 15. यीशु ने उद्धार का सुसमाचार सुनाने का काम किसे सौंपा?
14 भविष्यवक्ता योएल की बात दोहराते हुए पौलुस ने लिखा: “जो कोई प्रभु [यहोवा] का नाम लेगा, वह उद्धार पाएगा।” उसने आगे कहा: “फिर जिस पर उन्हों ने विश्वास नहीं किया, वे उसका नाम क्योंकर लें? और जिस की नहीं सुनी उस पर क्योंकर विश्वास करें? और प्रचारक बिना क्योंकर सुनें?” फिर कुछ आयतों के बाद पौलुस ने यह बताया कि विश्वास अपने आप पैदा नहीं होता। बल्कि ‘विश्वास मसीह का वचन सुनने से’ आता है।—रोमियों 10:13, 14, 15, 17; योएल 2:32.
15 कौन सभी लोगों को “मसीह का वचन” सुनाएगा? यीशु ने यह काम अपने शिष्यों को सौंपा क्योंकि वे यह वचन सीख चुके थे। (मत्ती 24:14; 28:19, 20; यूहन्ना 17:20) सो जब हम प्रचार और चेला बनाने का काम करते हैं, तो हम भी वही करते हैं जिसके बारे में प्रेरित पौलुस ने यशायाह के ये शब्द कहे: “उन के पांव क्या ही सोहावने हैं, जो अच्छी बातों का सुसमाचार सुनाते हैं!” सो, चाहे लोग हमारी बात सुनें या न सुनें, यहोवा की नज़रों में हमारे पाँव हमेशा सुहावने हैं!—रोमियों 10:15; यशायाह 52:7.
16, 17. हमारे प्रचार के काम से कौन-से दो मकसद पूरे होते हैं?
16 प्रचार से दो ज़रूरी मकसद पूरे होते हैं। पहला, इससे परमेश्वर के नाम की महिमा होती है। लोगों को पता चलता है कि कौन उद्धार दे सकता है। इसीलिए पौलुस ने कहा: “प्रभु ने हमें यह [कहकर] आज्ञा दी है; कि मैं ने तुझे अन्यजातियों के लिये ज्योति ठहराया है; ताकि तू पृथ्वी की छोर तक उद्धार का द्वार हो।” सो, मसीह के चेले होने के नाते, हम में से हरेक का फर्ज़ बनता है कि हम लोगों तक उद्धार का संदेश ले जाएँ।—प्रेरितों 13:47; यशायाह 49:6.
17 दूसरा मकसद है, राज्य के प्रचार के आधार पर परमेश्वर लोगों का न्याय कर सकता है। इस बारे में यीशु ने कहा: “जब मनुष्य का पुत्र अपनी महिमा में आएगा, और सब स्वर्ग दूत उसके साथ आएंगे तो वह अपनी महिमा के सिंहासन पर विराजमान होगा। और सब जातियां उसके साम्हने इकट्ठी की जाएंगी; और जैसा चरवाहा भेड़ों को बकरियों से अलग कर देता है, वैसा ही वह उन्हें एक दूसरे से अलग करेगा।” हालाँकि न्याय करने और लोगों को अलग करने का यह काम भविष्य में होगा जब “मनुष्य का पुत्र अपनी महिमा में आएगा,” मगर आज प्रचार के काम से लोगों को एक मौका दिया जा रहा है कि वे मसीह के भाइयों को पहचान लें और हमेशा-हमेशा का उद्धार पाने के लिए उनके काम में हाथ बँटाएँ।—मत्ती 25:31-46.
अंत तक अपनी “आशा” को बरकरार रखिए
18. अपने “उद्धार की आशा” को हम कैसे बरकरार रख सकते हैं?
18 प्रचार करने का एक और फायदा भी है। जब हम प्रचार के काम में पूरे दिल से लगे रहते हैं तो इससे हमारी उद्धार की आशा बरकरार रहती है। पौलुस ने लिखा: “हम चाहते हैं कि तुममें से हर कोई जीवन भर ऐसा ही कठिन परिश्रम करता रहे। यदि तुम ऐसा करते हो तो तुम निश्चय ही उसे पा जाओगे जिसकी तुम आशा करते रहे हो।” (इब्रानियों 6:11, ईज़ी टू रीड वर्शन) सो, आइए हम सब ‘उद्धार की आशा का टोप पहिन’ लें और यह याद रखें कि “परमेश्वर ने हमें क्रोध के लिये नहीं, परन्तु इसलिये ठहराया कि हम अपने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा उद्धार प्राप्त करें।” (1 थिस्सलुनीकियों 5:8, 9) साथ ही, हमें पतरस की सलाह को भी गाँठ बाँध लेनी चाहिए: “अपनी अपनी बुद्धि की कमर बान्धकर, और सचेत रहकर उस अनुग्रह की पूरी आशा रखो, जो . . . तुम्हें मिलनेवाला है।” (1 पतरस 1:13) अगर हम ऐसा करेंगे, तो हमारी “उद्धार की आशा” ज़रूर पूरी होगी!
19. किन सवालों का जवाब हमें अगले लेख में मिलेगा?
19 मगर जब तक हमारी आशा पूरी नहीं हो जाती, और इस बुरी व्यवस्था का नाश नहीं हो जाता, तब तक हमें क्या करना चाहिए? इस समय को हम अपना और दूसरों का उद्धार करने के लिए कैसे इस्तेमाल कर सकते हैं? इन सवालों का जवाब हमें अगले लेख में मिलेगा।
क्या आप समझा सकते हैं?
• क्यों हमें अपने “उद्धार की आशा” को बरकरार रखना चाहिए?
• उद्धार का मतलब क्या है और इसमें क्या-क्या शामिल है?
• उद्धार के वरदान के काबिल बनने के लिए हमें क्या-क्या करना होगा?
• हमारे प्रचार के काम से कौन-से मकसद पूरे होते हैं?
[अध्ययन के लिए सवाल]
[पेज 10 पर तसवीरें]
उद्धार का मतलब सिर्फ नाश होने से बचाया जाना नहीं है