मसीही धर्म से निकला “ईसाई धर्म”—क्या परमेश्वर को स्वीकार है?
मसीही धर्म से निकला “ईसाई धर्म”—क्या परमेश्वर को स्वीकार है?
मान लीजिए कि आप अपनी एक तस्वीर बनवाते हैं। और जब आप देखते हैं कि चित्रकार ने आपकी तस्वीर हू-ब-हू आपकी तरह ही बनाई है तो आप खुशी से फूले नहीं समाते। फिर आप सोचने लगते हैं कि आपके मरने के बाद जब आपके बच्चे, पोते और पर-पोते आपकी तस्वीर देखेंगे तो फख्र से कहेंगे ‘यह हमारे पूर्वज की तस्वीर है।’
लेकिन ज़रा सोचिए कि आपकी तस्वीर का तब क्या हाल होगा जब आपका कोई पोता सोचने लगे कि तस्वीर में आपके बाल ठीक नहीं दिख रहे, और वह अपनी मर्ज़ी से बाल ठीक कर देता है। फिर कोई पर-पोता सोचता है कि आपकी नाक थोड़ी टेढ़ी है और वह उसे सीधी कर देता है। इसके बाद आपके पर-पोतों के पोते भी अपनी मन-मरज़ी से आपकी तस्वीर में ऐसे ही ढेरों “फेर-बदल” करते रहते हैं। क्या आखिर में ऐसी तस्वीर को देखकर आप कह सकेंगे कि यह मेरी ही तस्वीर है? अगर आपको पहले से ही पता होता कि आपकी तस्वीर की यह गत बननेवाली है तो आपको कैसा लगता? बेशक आपको बहुत गुस्सा आता।
दुख की बात है कि मसीही धर्म के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। इतिहास बताता है कि यीशु के प्रेरितों की मौत के बाद “मसीही धर्म” की तस्वीर ही बदल गई और आज का “ईसाई धर्म” इसी का बिगड़ा रूप है। बाइबल में पहले से ही बताया गया था कि धर्मत्यागी लोग सच्चे मसीही धर्म में घुसकर उसे भ्रष्ट कर देंगे।—मत्ती 13:24-30, 37-43; प्रेरितों 20:30. *
हम जानते हैं कि बाइबल के सिद्धांत कभी पुराने नहीं होते और इन्हें ज़िंदगी में लागू करना एकदम सही है। लेकिन दुनिया की पसंद को देखकर बाइबल की शिक्षाओं को बदलना सही नहीं। मगर ईसाई धर्म ने बाइबल की शिक्षाओं को बदलकर गलत काम किया है। कैसे? यह जानने के लिए आइए कुछ मिसालों पर ध्यान दें।
ईसाई धर्म की राजनीति से दोस्ती
यीशु ने कहा था कि उसकी सरकार स्वर्ग में होगी और आनेवाले समय में दुनिया की सभी सरकारों को चूर-चूर करके उनका अंत कर देगा, और पूरी दुनिया पर हमेशा तक राज करेगी। (दानिय्येल 2:44; मत्ती 6:9, 10) उसने यह भी बताया था: “मेरा राज्य इस जगत का नहीं।” (यूहन्ना 17:16; 18:36) इसका मतलब है कि उसके राज्य का दुनिया की राजनीति से कोई ताल्लुक नहीं था। इसीलिए पहली सदी में उसके चेले राजनीति से एकदम दूर रहते थे, हालाँकि वे सरकारी कानूनों को मानते थे।
मगर चौथी सदी के आते-आते कुछ मसीही सोचने लगे, ना जाने यीशु मसीह कब दोबारा वापस आएगा और अपना राज शरू करेगा। किताब यूरोप—एक इतिहास (अंग्रेज़ी) कहती है “सम्राट कॉन्सटनटाइन से पहले मसीहियों ने राजनीति का सहारा लेकर अपना धर्म फैलाने के बारे में सोचा तक नहीं था। लेकिन बाद में झूठे मसीही, राजाओं के पक्के दोस्त बन गए।” उन्होंने राजनीति में भाग लेना शुरू कर दिया। जी हाँ, ऐसे लोगों ने ही सच्चे मसीही धर्म की तस्वीर बिगाड़ दी। इन लोगों ने विश्वशक्ति रोम से दोस्ती करके झूठे मसीही धर्म (ईसाई धर्म) को “रोमन कैथोलिक” धर्म संगठन का रूप दे दिया।
मत्ती 23:9, 10; 28:19, 20) इतिहासकार एच. जी. वेल्स ने लिखा कि चौथी सदी के ईसाई धर्म (झूठे मसीहियों) की शिक्षाओं में और “यीशु नासरी की शिक्षाओं” के बीच “ज़मीन-आसमान का फर्क था।” ईसाई धर्म ने तो परमेश्वर और यीशु मसीह के बारे में बाइबल की शिक्षा को ही बदलकर रख दिया।
ईसाई धर्म और राजनीति की इस दोस्ती का नतीजा क्या हुआ, इसके बारे में इनसाइक्लोपीडिया ग्रेट ऐजस् ऑफ मैन बताती है: “एक वक्त था जब मसीहियों को सताया जाता था लेकिन सा.यु. 385 से (झूठे मसीही) ईसाई धर्म में रोमन कैथोलिक चर्च के पादरियों ने उनके धर्म का विरोध करनेवालों को मौत के घाट उतारना शुरू कर दिया। अब इनके पास उतना ही अधिकार आ गया था जितना सम्राटों के पास।” इसी के साथ ईसाई धर्म के ज़ुल्मों का दौर शुरू हुआ। अब वे शास्त्र से दलील देकर लोगों को यकीन दिलाने के बजाय तलवार की नोक पर कैथोलिक बनाने लगे। जगह-जगह घूमकर लोगों को प्रचार करनेवाले भोले-भाले, मसीही प्रचारकों की जगह, अब ताकत के नशे में चूर, खूँखार पादरी नज़र आने लगे। (परमेश्वर के बारे में गलत शिक्षाएँ देना
यीशु मसीह और उसके चेलों ने सिखाया था कि “एक ही परमेश्वर है: अर्थात् पिता” और उसका नाम, यहोवा है। यह नाम बाइबल की प्राचीन हस्तलिपियों में करीब 7,000 बार आता है। (1 कुरिन्थियों 8:6; भजन 83:18) और जहाँ तक यीशु का सवाल है, उसे परमेश्वर ने बनाया था। कुलुस्सियों 1:15 में कैथोलिक डूए वर्शन बाइबल कहती है कि यीशु “सारे प्राणियों में पहलौठा है।” खुद यीशु ने भी कहा था: “पिता मुझ से बड़ा है।”—यूहन्ना 14:28.
लेकिन तीसरी सदी के आते-आते कुछ जाने-माने पादरी त्रियेक की शिक्षा देने लगे। क्योंकि उन्हें यूनानी तत्त्वज्ञानी प्लेटो की त्रिदेव की शिक्षा बहुत पसंद थी। नतीजा यह हुआ कि यीशु को, परमेश्वर यहोवा के बराबर दर्जा दिया जाने लगा और परमेश्वर की पवित्र शक्ति या सामर्थ को त्रियेक का तीसरा व्यक्ति बना दिया गया।
ईसाई धर्म में त्रियेक की शिक्षा जोड़ने के बारे में न्यू कैथोलिक इनसाइक्लोपीडिया कहती है: “तीसरी सदी के अंत तक न तो मसीहियों को यह शिक्षा मिली थी कि ‘तीन ईश्वर मिलकर एक परमेश्वर बना है।’ ना ही वे इसे मानते थे। लेकिन चौथी सदी की शुरूआत में यह शिक्षा मशहूर होने लगी थी।”
इसी तरह दी इनसाक्लोपीडिया अमैरिकाना कहती है: “चौथी सदी में ईसाई धर्म में जो त्रियेक की शिक्षा दी जा रही थी वह शिक्षा पहली सदी के मसीहियों ने कभी नहीं दी थी। असल में यह बाइबल की शिक्षा के एकदम खिलाफ थी।” दी ऑक्सफर्ड कम्पैनियन टू द बाइबल कहती है कि त्रियेक की शिक्षा उन शिक्षाओं में से एक है जिसे “ईसाई धर्म में जोड़ दिया” गया था। लेकिन ईसाई धर्म में सिर्फ त्रियेक की शिक्षा ही जोड़ी नहीं गई, बल्कि और भी कई झूठी शिक्षाओं को जोड़ दिया गया था।
इंसान की जान के बारे में गलत शिक्षा
आज दुनिया में हर कहीं लोग यही मानते हैं कि इंसान मर जाता है लेकिन उसकी आत्मा ज़िंदा रहती है। लेकिन क्या आपको पता है कि चर्च की यह शिक्षा भी बाइबल की शिक्षा नहीं है बल्कि बाद की सदियों में ईसाई धर्म की शिक्षाओं में जोड़ी गई थी? बाइबल बताती है कि “मरे हुए कुछ भी नहीं जानते,” वे अचेतन हैं, वे मौत की गहरी नींद में सो रहे हैं और खुद यीशु भी इस बात को मानता था। (सभोपदेशक 9:5; यूहन्ना 11:11-13) एक मरा हुआ इंसान, सिर्फ पुनरुत्थान के ज़रिए ही दोबारा ज़िंदगी पा सकता है। यह मौत की नींद से ‘जाग उठने’ जैसा होगा। (यूहन्ना 5:28, 29) इसलिए, अगर अमर आत्मा जैसी कोई चीज़ होती तो बाइबल पुनरुत्थान की बात ही ना करती, क्योंकि जो अमर है वह तो मर ही नहीं सकता।
यीशु, पुनरुत्थान में सिर्फ विश्वास ही नहीं करता था बल्कि उसने मरे हुओं का पुनरुत्थान करके भी दिखाया। अब लाजर के किस्से को ही लीजिए। उसे मरे हुए चार दिन बीत चुके थे। जब यीशु ने उसे जिलाया तो उसके शरीर में जान आ गई और वह कब्र से बाहर आ गया। चार दिन तक वह पूरी तरह मरा हुआ था। ऐसा नहीं हुआ कि उसके शरीर में से आत्मा जैसी कोई चीज़ निकलकर स्वर्ग चली गई थी। अगर ऐसा होता तो यीशु उसकी आत्मा को स्वर्ग में ही रहने देता। अगर यीशु उसकी आत्मा को दुःख उठाने के लिए वापस उसके शरीर में भेज देता तो क्या यीशु के इस काम को लाजर की भलाई करना कहा जाता?—यूहन्ना 11:39, 43, 44.
तो हमने देख लिया कि इंसान के शरीर में आत्मा नहीं होती। अब सवाल यह उठता है कि अमर आत्मा की शिक्षा आखिर आयी कहाँ से? द वेस्टमिन्सटर डिक्शनरी ऑफ क्रिश्चियन थियोलॉजी कहती है कि यह शिक्षा “बाइबल से नहीं बल्कि यूनानी तत्त्वज्ञान से आयी है।” द जूविश
एन्साइक्लॅपीडिया समझाती है: “यह शिक्षा कि शरीर मर जाता है और आत्मा ज़िंदा रहती है, बाइबल की सच्चाई पर नहीं बल्कि तत्त्वज्ञान या पादरियों के अपने विचारों पर आधारित है। पूरे पवित्र शास्त्र में कहीं भी ऐसी शिक्षा नहीं पाई जाती।”अकसर एक झूठ को सच साबित करने के लिए दूसरे झूठ भी बोलने पड़ते हैं। जब ईसाई धर्म में अमर-आत्मा की शिक्षा शामिल की गई तो इसके साथ-साथ आत्माओं के नरक में तड़पने की झूठी शिक्षा को भी शामिल कर दिया गया। * मगर, बाइबल साफ-साफ कहती है कि “पाप की मजदूरी तो मृत्यु है,”—नरक की आग में तड़पना नहीं। (रोमियों 6:23) पुनरुत्थान के बारे में किंग जेम्स वर्शन बाइबल कहती है: “समुद्र ने उन मरे हुओं को जो उस में थे दे दिया, और मृत्यु और अधोलोक ने उन मरे हुओं को जो उन में थे दे दिया।” इसी तरह डूए वर्शन बाइबल कहती है कि “समुद्र . . . और मृत्यु और नरक ने अपने मरे हुओं को दे दिया।” जी हाँ, सीधे-सीधे अगर यीशु के शब्दों को दोहराया जाए तो मरे हुए ‘सो’ रहे हैं, ना कि नरक में तड़प रहे हैं।—प्रकाशितवाक्य 20:13.
अब आप ही बताइए, अगर लोगों को यह सिखाया जाए कि परमेश्वर इंसान को नरक की आग में तड़पाता है तो क्या वे उसकी उपासना करना पसंद करेंगे? बिलकुल नहीं। हर इंसाफ पसंद इंसान को ऐसी सज़ा सुनने में ही बुरी लगेगी। और बाइबल भी यही बताती है कि “परमेश्वर प्रेम है” और इंसानों की तो बात छोड़िए वह तो यह भी बर्दाश्त नहीं कर सकता कि किसी जानवर पर ज़ुल्म किया जाए।—1 यूहन्ना 4:8; नीतिवचन 12:10; यिर्मयाह 7:31; योना 4:11.
हमारे ज़माने में “तस्वीर” को और बिगाड़ा जा रहा है
परमेश्वर और मसीहियत की सच्ची तस्वीर को बिगाड़ना आज भी जारी है। धर्म के एक प्रोफेसर ने अपने प्रोटेस्टेंट चर्च में हो रहे संघर्ष के बारे में हाल ही में कहा: “आज चर्च में खींचातानी चल रही है कि बाइबल की शिक्षाओं को मानें या दुनियावी ख्यालों और विचारों को। मसीह की बात मानें या दुनिया को खुश करने के लिए यीशु मसीह की शिक्षा को ही बदल दें। मुद्दा यह है: चर्च को किसकी बात माननी चाहिए पवित्र शास्त्र की या दुनिया की?”
दुःख की बात है कि आज सभी चर्च ‘दुनिया’ के अनैतिक चलन को ही अपना रहे हैं। सभी जानते हैं कि कई चर्चों ने अपने स्तरों को ही बदल दिया है ताकि वे नए ज़माने से अलग न दिखाई दें। किसी का चाल-चलन कितना भी बुरा क्यों न हो, चर्च सबको अपना सदस्य बना रहा है, और यही हमने शुरूआत में देखा था। लेकिन बाइबल एकदम साफ-साफ कहती है कि व्यभिचार, परस्त्रीगमन और समलैंगिकता परमेश्वर की नज़रों में घोर पाप हैं और जो लोग ऐसे पाप करते हैं, वे “परमेश्वर के राज्य के वारिस [नहीं] होंगे।”—1 कुरिन्थियों 6:9, 10; मत्ती 5:27-32; रोमियों 1:26, 27.
प्रेरित पौलुस ने जब रोमियों को यह पत्री लिखी तब यूनानी-रोमी समाज में दुनिया भर की दुष्टता और लुचपन हो रहा था। लेकिन क्या पौलुस ने यह सोचा, ‘यह सच है कि सदोम और अमोरा के लोगों को घोर अनैतिकता की वज़ह से ही परमेश्वर ने भस्म कर दिया था। लेकिन यह तो 2,000 साल पुरानी बात है और आज के ज़माने पर लागू नहीं होती। आज हमारे पास उनसे ज़्यादा ज्ञान है।’ जी नहीं, पौलुस ने ऐसा नहीं सोचा। लोगों को खुश करने के लिए उसने बाइबल की शिक्षाओं को हरगिज़ नहीं बदला।—गलतियों 5:19-23.
मसीहियत की असली “तस्वीर”
यीशु ने अपने ज़माने के यहूदी धर्म-गुरुओं से कहा कि उनकी उपासना व्यर्थ है क्योंकि वे ‘मनुष्यों की विधियों को धर्मोपदेश करके सिखा रहे थे।’ (मत्ती 15:9) उन धर्म-गुरुओं ने यहोवा की व्यवस्था के साथ वही किया था जैसा आज के पादरी बाइबल के साथ कर रहे हैं। वे मनुष्यों की शिक्षाओं को परमेश्वर का उपदेश कहकर सिखाते थे। लेकिन यीशु ने उनके झूठे धर्म का परदाफाश किया ताकि सच्चे लोग सच्चे धर्म को पहचान सकें। (मरकुस 7:7-13) यीशु ने सिर्फ सच्चाई की शिक्षा दी चाहे वह लोगों को पसंद आती या ना आती। उसने हमेशा परमेश्वर के वचन से सिखाया।—यूहन्ना 17:17.
ज़माने के हिसाब से अपने स्तरों को बदलनेवाले झूठे मसीहियों से यीशु कितना अलग था! बेशक, ऐसे लोगों के बारे में तो बाइबल में पहले से ही भविष्यवाणी की गई थी: “लोग नये-नये विचारों को सुनना चाहेंगे, वे अपने लिए बहुत से गुरु इकट्ठे कर लेंगे, वही सुनाएँगे जो वे सुनना चाहते हैं। वे लोग सच्चाई से कान फेर लेंगे और कल्पित कथाओं पर ध्यान देने लगेंगे।” (2 तीमुथियुस 4:3, 4, द जेरूसलेम बाइबल) त्रियेक, नरक, अमर-आत्मा जैसी “कल्पित” और झूठी शिक्षाओं को अपनाना मौत के रास्ते पर जाना है। जबकि परमेश्वर के वचन, बाइबल में सच्चाई दी गई है और उसे अपनाने से हमें न सिर्फ अभी लाभ होगा बल्कि बाद में हमेशा की ज़िंदगी भी मिलेगी। यही वह सच्चाई है जो यहोवा के साक्षी आपको बताना चाहते हैं। क्यों न आप उन्हें एक मौका दें और खुद सच्चाई को देखें?—यूहन्ना 4:24; 8:32; 17:3.
[फुटनोट]
^ इसे समझाने के लिए यीशु ने दो दृष्टान्त दिए थे। एक गेहूँ और जंगली दानों का और दूसरा चौड़े मार्ग और सकरे मार्ग का। (मत्ती 7:13, 14) यीशु ने इनके ज़रिए समझाया कि आनेवाले समय में झूठे मसीही निकलेंगे और उनकी गिनती सच्चे मसीहियों से कहीं ज़्यादा होगी। वे सच्चे मसीही धर्म को भ्रष्ट करके उसका रूप बिगाड़ देंगे और दावा करेंगे कि यही मसीही धर्म है। मगर हमारा लेख बताएगा कि सच्चे मसीही धर्म का रूप कैसे बिगाड़ा।
^ “नरक,” इब्रानी शब्द शिओल और यूनानी शब्द हेडिज़ का अनुवाद है, और इन दोनों शब्दों का मतलब है, “कब्र।” इसलिए किंग जेम्स वर्शन में शिओल को 31 बार “नरक” कहा गया, 31 बार “कब्र” और 3 बार “गड्ढा” कहा गया है यानी इन सारे शब्दों का एक ही मतलब है।
[पेज 7 पर बक्स/तसवीर]
यीशु के चेलों का नाम मसीही कैसे पड़ा
यीशु ने कहा था: “मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूं।” (यूहन्ना 14:6) यीशु की मौत के करीब दस साल बाद तक उसके चेले, यीशु के “पंथ” के नाम से जाने जाते थे। (प्रेरितों 9:2; 19:9, 23; 22:4) क्यों? क्योंकि उनकी ज़िंदगी का मकसद ही यीशु के बारे में बताना और दूसरों को उसकी शिक्षाओं के बारे में सिखाना था। और सा.यु. 44 के बाद, सूरिया के अन्ताकिया में परमेश्वर के मार्गदर्शन से, पहली बार यीशु के चेले ‘मसीही कहलाए।’ (प्रेरितों 11:26) तब से यह नाम बहुत मशहूर हो गया, यहाँ तक कि बड़े-बड़े अधिकारी भी यीशु के चेलों को मसीही कहकर पुकारने लगे। (प्रेरितों 26:28) लेकिन इस नये नाम के साथ मसीह के चेलों ने अपनी शिक्षाओं को नहीं बदला, अब भी वे मसीह के आदर्श पर ही चलते थे।—1 पतरस 2:21.
[पेज 7 पर तसवीरें]
यहोवा के साक्षी, लोगों को परमेश्वर का वचन सिखाने के लिए प्रचार का काम करते हैं
[पेज 4 पर चित्र का श्रेय]
बाँए से तीसरा: United Nations/Photo by Saw Lwin