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हमारी जोड़ी बहुत अच्छी थी

हमारी जोड़ी बहुत अच्छी थी

जीवन कहानी

हमारी जोड़ी बहुत अच्छी थी

मॆल्बा बैरी की ज़ुबानी

जुलाई 2, 1999 के दिन मैं अपने पति के साथ यहोवा के साक्षियों के एक बड़े सम्मेलन में हाज़िर हुई थी। अपनी 57 सालों की शादीशुदा ज़िंदगी में हम इस तरह के सम्मेलनों में कई बार हाज़िर हुए हैं। शुक्रवार को हवाई द्वीप में हो रहे ज़िला अधिवेशन में लॉयड आखिरी भाषण दे रहे थे। अचानक ही वह लड़खड़ाकर गिर गए। उन्हें होश में लाने की सारी कोशिशों के बावजूद भी वे चल बसे। *

हवाई के वे मसीही भाई-बहन मेरी नज़रों में बहुत अनमोल हैं जिन्होंने मेरे पति को खो देने के गम से जूझने में मेरी हर तरह से मदद की! लॉयड ने उनमें से कई भाई-बहनों को प्रभावित किया था और सिर्फ उन्हीं को नहीं, बल्कि दुनिया भर के कई भाई-बहनों को प्रभावित किया था।

आज उनकी मौत को करीब दो साल होने को आए हैं। इस दौरान मैंने उनके साथ गुज़ारे लम्हों को कई बार याद किया। हमने कई साल विदेश में, साथ ही यहोवा के साक्षियों के विश्‍व-मुख्यालय में यानी ब्रुकलिन, न्यू यॉर्क में एक-साथ सेवा करते हुए बिताए। मुझे सिडनी, ऑस्ट्रेलिया में बितायी अपनी जवानी का समय भी याद आता है। उस समय दूसरा विश्‍वयुद्ध शुरू हुआ था और विवाह करने के लिए हम दोनों ने कितनी चुनौतियों का सामना किया था। सबसे पहले तो मैं आपको यह बताना चाहती हूँ कि मैं किस तरह साक्षी बनी और 1939 में किस तरह मेरी मुलाकात लॉयड से हुई।

मैं साक्षी कैसे बनी

हैनरीटा और जेम्स मेरे माता-पिता थे। उन्होंने हमें बहुत प्यार दिया और हमारी अच्छी तरह देखभाल भी की। सन्‌ 1932 में जब मैंने स्कूल की पढ़ायी खत्म की तो मैं बस 14 साल की थी। उस समय दुनिया पर महामंदी के काले बादल बुरी तरह छाए हुए थे। मेरे परिवार में मुझसे छोटी दो बहनें भी थीं और मैं परिवार की मदद के लिए काम करने लगी। कुछ ही सालों में मुझे एक ऑफिस में बहुत अच्छी तनख्वाहवाली नौकरी मिल गयी और मेरे अधीन कई युवतियाँ काम करती थीं।

इस दरमियान 1935 में, मम्मी ने यहोवा के एक साक्षी से बाइबल की कुछ किताबें ली थीं, और उन्हें बहुत जल्द यकीन हो गया कि उन्हें सच्चाई मिल गयी। परिवार में हम सब सोच रहे थे कि वो बावली हो रही हैं। मगर एक दिन मेरी नज़र एक बुकलेट पर पड़ी जिसका शीर्षक था, मरे हुए सारे लोग कहाँ हैं? (अंग्रेज़ी)। मेरी रुचि जग गयी। सो मैंने छुप-छुपकर वो बुकलेट पढ़ी। फिर क्या था, मेरी आँखें खुल गयीं! फौरन मैं भी मम्मी के साथ हर हफ्ते होनेवाली मीटिंग में जाने लगी। इन मीटिंगों को मॉडल स्टडी कहा जाता था। मॉडल स्टडी नाम की पुस्तिका में सवाल-जवाब और जवाबों के लिए शास्त्रवचन भी हुआ करते थे। आगे जाकर इसी नाम की तीन पुस्तिकाएँ बनायी गयीं।

लगभग उसी समय, अप्रैल 1938 में, यहोवा के साक्षियों के विश्‍व-मुख्यालय से एक प्रतिनिधि, जोसफ एफ. रदरफर्ड सिडनी आए। मैंने पहली बार जन भाषण उन्हीं का सुना था। दरअसल यह मीटिंग सिडनी टाउन हॉल में होनेवाली थी, जिसे किराए पर लिया गया था, मगर विरोधियों ने उसे कैंसल करवा दिया। सो, उससे भी बड़ी जगह यानी सिडनी स्पोर्टस्‌ ग्राउंड में भाषण दिया गया। विरोध की वजह से और भी ज़्यादा लोगों को हमारे बारे में मालूम हो गया, सो करीब 10,000 लोग उस भाषण को सुनने आए। यह संख्या बहुत शानदार थी क्योंकि उस समय ऑस्ट्रेलिया में केवल 1,300 साक्षी ही थे।

इसके कुछ समय बाद, मैं पहली बार फील्ड सर्विस के लिए गयी और वो भी बिना किसी ट्रेनिंग के। जब प्रचार के इलाके में सारे भाई-बहन आ गए तो अगुवाई कर रहे भाई ने मुझसे कहा, “वो वाला तुम्हारा घर है।” मैं इतनी घबरायी हुई थी कि जब दरवाज़े पर एक महिला आयी तो मैंने पूछा, “क्या आप बता सकती हैं कि समय क्या हुआ है?” वो अंदर गयी, और वापस आकर मुझे समय बताया। बस, और क्या था! मैं चुपचाप वापस आकर अपनी कार में बैठ गयी।

फिर भी मैंने हार नहीं मानी। जल्द ही मैं लगातार दूसरों को राज्य संदेश सुनाने में जुट गयी। (मत्ती 24:14) मार्च 1939 में, मैंने अपनी पड़ोसन, डोरॆथी हचिंग्स के बाथ-टब में बपतिस्मा लेकर यहोवा के प्रति अपने समर्पण को ज़ाहिर किया। उस समय हमारी कलीसिया में ज़्यादा भाई नहीं थे, इसलिए बपतिस्मे के कुछ समय बाद ही मुझे कलीसिया की ज़िम्मेदारियाँ सौंपी गयीं जो आम तौर पर मसीही भाइयों को ही दी जाती थीं।

आम तौर पर हमारी सभाएँ भाई-बहनों के घरों पर हुआ करती थीं, मगर जन भाषणों के लिए कभी-कभी हम किराए पर हॉल लेते थे। एक बार हमारे शाखा दफ्तर यानी बेथॆल से एक खूबसूरत, जवाँ भाई हमारी छोटी-सी कलीसिया में भाषण देने के लिए आए। मुझे बिलकुल मालूम नहीं था कि उनके यहाँ आने का एक और कारण भी था और वो था मुझे देखने। जी हाँ, इसी तरह लॉयड से मेरी मुलाकात हुई।

लॉयड के परिवार से मिलना

जल्द ही मैं यहोवा की ज़्यादा सेवा यानी पायनियरिंग करना चाहती थी मगर जब मैंने पायनियर बनने (यानी पूर्ण-समय प्रचार काम में लगने) के लिए अर्ज़ी दी, तो मुझसे पूछा गया कि क्या मैं बेथॆल में सेवा करना पसंद करूँगी। सो सितंबर 1939 में, उसी साल जब दूसरा विश्‍वयुद्ध शुरू हुआ था, मैं सिडनी के उपनगर, स्टैथफील्ड में बेथॆल परिवार की सदस्य बन गयी।

दिसंबर 1939 में एक अधिवेशन के लिए मैं न्यू ज़ीलैंड जाना चाहती थी। लॉयड भी न्यू ज़ीलैंड के थे, और वो भी वहीं जा रहे थे। हमने एक ही जहाज़ में सफर किया, और इस तरह हमें एक-दूसरे से जान-पहचान बढ़ाने का मौका मिला। लॉयड ने वैलिंगटन के उस अधिवेशन में मेरी मुलाकात अपने माता-पिता और बहनों से करायी और फिर मैं क्राइस्टचर्च में उनके घर पर भी गयी।

हमारे काम पर प्रतिबंध

शनिवार, जनवरी 18, 1941 को सरकारी अधिकारी, करीब आधे दर्जन काली लिमूसीन कारों में संस्था की संपत्ति ज़ब्त करने हमारे शाखा दफ्तर आए। चूँकि मैं बेथॆल के प्रवेश-द्वार के पास के छोटे-से गार्ड-हाउस में काम कर रही थी, सो सबसे पहले मेरी ही नज़र उन पर पड़ी। करीब 18 घंटे पहले, हमें इस प्रतिबंध के बारे में सूचना मिल गयी थी। सो हमने शाखा से लगभग सारी किताबों और फाइलों को हटा दिया था। अगले हफ्ते, बेथॆल परिवार के पाँच भाइयों को जेल में डाला गया, जिनमें लॉयड भी थे।

मुझे मालूम था कि जेल में इन भाइयों को सबसे ज़्यादा आध्यात्मिक भोजन की ज़रूरत होगी। सो, लॉयड का हौसला बढ़ाने के लिए मैंने उन्हें “प्रेम-पत्र” लिखने का फैसला किया। शुरुआत तो मैं वैसे ही करती थी मानो यह असल में कोई प्रेम-पत्र हो। मगर उसके बाद मैं प्रहरीदुर्ग के सारे-के-सारे लेख लिख देती थी। फिर अंत में उसकी दिलरुबा के तौर पर खत खत्म करती थी। साढ़े चार महीनों बाद, लॉयड को रिहा कर दिया गया।

शादी और फिर आगे की सेवकाई

सन्‌ 1940 में, लॉयड की माँ ऑस्ट्रेलिया आयीं और लॉयड ने उनसे कहा कि हम दोनों विवाह करने की सोच रहे हैं। लेकिन माँ ने शादी न करने की सलाह दी क्योंकि उस समय लग रहा था कि दुनिया का अंत बस करीब ही है। (मत्ती 24:3-14) लॉयड ने अपनी इच्छा अपने यार-दोस्तों से भी ज़ाहिर की मगर वे भी हर बार शादी न करने की ही सलाह देते। आखिरकार, फरवरी 1942 में, लॉयड चुपके से मुझे रजिस्ट्री ऑफिस ले गए और वहाँ हमने शादी कर ली। हमारे साथ चार और गवाह भी थे जिन्होंने राज़ को राज़ रखने का वादा किया था। उस समय ऑस्ट्रेलिया में, यहोवा के साक्षियों में सरकार द्वारा नियुक्‍त कोई मिनिस्टर नहीं होता था जो शादियाँ करवाता।

शादीशुदा दंपती के तौर पर बेथॆल में सेवा करने के लिए हमें अनुमति नहीं मिली, सो हमसे पूछा गया कि क्या हम स्पेशल पायनियरिंग करना चाहेंगे। हमने खुशी-खुशी हाँ कर दी, और फिर वागा-वागा नाम के शहर में हमें भेजा गया। उस समय भी हमारे प्रचार के काम पर प्रतिबंध था, और हमें किसी तरह की आर्थिक मदद नहीं मिलती थी, सो हमें सचमुच यहोवा पर अपना सारा बोझ डालना पड़ता था।—भजन 55:22.

हमारी साइकिल ऐसी थी जिसे दो जन एक-साथ चला सकते थे। हम अपनी इसी साइकिल पर गाँव-गाँव गए, अच्छे लोगों से मुलाकात की और उनके साथ काफी समय तक चर्चा की। बहुत ही कम लोग बाइबल अध्ययन करने के लिए राज़ी हुए। मगर, एक दुकानदार ने हमारे काम की इतनी कदर की कि वह हर हफ्ते हमें फल और सब्ज़ियाँ देता था। वागा-वागा में छः महीने बिताने के बाद, हमें वापस बेथॆल बुला लिया गया।

मई 1942 में बेथॆल परिवार ने स्ट्रैथफील्ड का ऑफिस खाली कर दिया था और भाई-बहनों के घरों को ऑफिस के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था। वे पकड़े न जाएँ इसलिए हर दो हफ्तों में घर बदल देते थे। जब मैं और लॉयड अगस्त में बेथॆल लौटे तो हम भी उन्हीं के साथ हो लिए। दिन में हमारा काम था तहखाने में प्रिंटिंग का काम करना। आखिरकार जून 1943 में, हमारे काम पर लगा प्रतिबंध हटा दिया गया।

विदेश में सेवा करने की तैयारी

अप्रैल 1947 में हमें साउथ लैंसिंग, न्यू यॉर्क, अमरीका में, वॉच टावर बाइबल स्कूल ऑफ गिलियड में हाज़िर होने के लिए प्राथमिक अर्ज़ियाँ दी गयी। इस दरमियान हमें ऑस्ट्रेलिया की अलग-अलग कलीसियाओं में भाई-बहनों का आध्यात्मिक रूप से हौसला बढ़ाने के लिए भेजा गया। कुछ महीनों बाद, हमें गिलियड की 11वीं क्लास में हाज़िर होने का न्योता मिला। अपने सभी ज़रूरी कामों को निपटाने और बोरिया-बिस्तर बाँधने के लिए हमारे हाथ में सिर्फ तीन हफ्ते थे। हम दिसंबर 1947 में अपने परिवार और दोस्तों को छोड़कर न्यू यॉर्क के लिए रवाना हुए। हमारे साथ ऑस्ट्रेलिया के और भी 15 भाई-बहन थे जिन्हें इसी क्लास के लिए बुलाया गया था।

गिलियड में बिताए चंद महीने चुटकी बजाते ही गुज़र गए और हमें मिशनरियों के तौर पर जापान जाने की नियुक्‍ति मिली। चूँकि जापान जाने के लिए हमारे कागज़ात तैयार करने में थोड़ा समय लगा, इसलिए लॉयड को फिर से यहोवा के साक्षियों के सफरी ओवरसियर का काम सौंपा गया। जिन कलीसियाओं में हमें जाना था, वे लॉस एन्जिलिस से लेकर मॆक्सिको की सरहद तक फैली थीं। हमारे पास कार नहीं थी, सो हर हफ्ते हमारे प्यारे साक्षी हमें एक कलीसिया से दूसरी कलीसिया पहुँचा देते। उस समय हमने जिस बड़े सर्किट में काम किया था, वो आज तीन अंग्रेज़ी और तीन स्पैनिश डिस्ट्रिक्ट में बँटा हुआ है और हर ज़िले में लगभग दस सर्किट हैं!

बहुत जल्द अक्टूबर 1949 आ गया, और हम एक ऐसे जहाज़ में जापान की ओर रवाना हुए जिसमें पहले सैनिक जाया करते थे। जहाज़ का एक भाग पुरुषों के लिए और दूसरा भाग स्त्रियों और बच्चों के लिए था। जहाज़ से योकाहामा शहर पहुँचने के ठीक एक दिन पहले, भारी तूफान आ गया। मगर तूफान की वजह से बादल छँट गए और आकाश खुल गया। इसलिए अगले दिन, अक्टूबर 31 को जब सूर्योदय हुआ तब हमने विशाल माउँट फूजी का सुनहरा नज़ारा देखा। सच, अपनी नयी नियुक्‍ति के लिए हमारा क्या ही शानदार स्वागत हुआ!

जापानियों के साथ काम करना

जब हम बंदरगाह के पास पहुँच रहे थे, तब हम मिशनरियों ने काले-केशवाले सैकड़ों लोगों को देखा। उनके पैरों से खड़खड़ाहट की बहुत आवाज़ आ रही थी। हमने सोचा, ‘कितना शोर मचाते हैं ये लोग!’ दरअसल, उन लोगों ने लकड़ी के चप्पल-सैंडल पहन रखे थे जो लकड़ी के फर्श पर काफी आवाज़ कर रही थीं। योकाहामा में एक रात बिताने के बाद, हमने अपनी नियुक्‍ति की जगह, यानी कोबे जाने के लिए ट्रेन पकड़ी। कोबे में डैन हासलॆट ने, जो कुछ महीने पहले जापान आया था, किराए पर एक मकान ले रखा था। यह दो-मंज़िला मकान बहुत ही सुंदर, बड़ा और पश्‍चिमी अंदाज़ का था, जिसमें एक भी साजो-समान नहीं था!

सोने के लिए हमें किसी तरह की गद्दी चाहिए थी, सो हमने घर के आँगन की लंबी-लंबी घास को काटकर, उसे फर्श पर बिछा दिया। इस तरह हमारी मिशनरी ज़िंदगी की शुरुआत हुई, हमारे पास कोई भी सामान नहीं था, सिवाए उसके जो हम अपने साथ ले गए थे। हम घर को गर्म रखने और खाना बनाने के लिए कोयले की सिगड़ी ले आए, जिसे वहाँ हीबाची कहा जाता है। एक रात, लॉयड की नज़र अपने दो साथी मिशनरी पर्सी और इल्मा इज़लॉब पर पड़ी जो बेहोश हो गए थे। उन्हें होश में लाने के लिए लॉयड ने खिड़कियाँ खोलीं ताकि ठंडी, ताज़ी हवा अंदर आ सके। मैं भी एक बार सिगड़ी पर खाना बनाते वक्‍त उसके धुएँ से बेहोश हो गयी थी। वहाँ की कुछ चीज़ों की आदी होने के लिए हमें कुछ समय लगा!

वहाँ की भाषा सीखना सबसे ज़रूरी था और एक महीने के लिए हम रोज़ 11 घंटे जापानी भाषा सीखा करते थे। इसके बाद, हमने एकाध वाक्य लिख लिए और बाहर प्रचार के लिए निकल पड़े। पहले ही दिन, मेरी मुलाकात एक प्यारी महिला, मीयो तकागी से हुई। वह मेरे साथ अच्छी तरह पेश आयी। रिटर्न विज़िट के दौरान हम जापानी-अंग्रेज़ी शब्दकोशों की मदद से जैसे-तैसे चर्चा करते थे, और आखिरकार उसके साथ बहुत बढ़िया बाइबल अध्ययन शुरू हो गया। फिर कई साल बाद जब सन्‌ 1999 में मैं जापान में, शाखा की एक और इमारत के डेडिकेशन के लिए गयी, तो वहाँ मेरी मुलाकात न केवल मीयो से बल्कि बाकी कई अज़ीज़ भाई-बहनों से भी हुई जिनके साथ मैंने अध्ययन किया था। पचास साल गुज़र गए हैं, मगर वे अब भी पूरे जोश के साथ राज्य का प्रचार करते हैं और यहोवा की सेवा में जितना बन पड़ता है, उतना करते हैं।

कोबे में, अप्रैल 1, 1950 को मसीह की मृत्यु का स्मारक मनाने के लिए करीब 180 लोग हाज़िर हुए। हमें तब ताज्जुब हुआ जब अगले दिन इनमें से 35 लोग प्रचार काम में भी हिस्सा लेने के लिए आ गए। हर मिशनरी, तीन या चार नए लोगों को अपने साथ प्रचार के काम में ले गया। विदेशी होने के नाते मुझे जापानी भाषा तो ठीक से नहीं आती थी इसलिए घरवालों ने मुझसे नहीं बल्कि मेरे साथ आए नए लोगों से बातें कीं। और उनकी बातचीत लंबी खिंचती जा रही थी। मुझे तो बिलकुल समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या बातें कर रहे हैं। लेकिन मुझे यह बताने में खुशी होती है कि इन नए लोगों में से कुछ लोगों ने ज्ञान हासिल करके काफी तरक्की की और वे आज तक प्रचार का काम कर रहे हैं।

ऐसी नियुक्‍तियाँ जिनसे हमें खुशी और संतुष्टि मिली

हम कोबे में अपने मिशनरी काम में 1952 तक लगे रहे। उसके बाद हमें टोक्यो भेजा गया जहाँ लॉयड को ब्रांच ऑफिस की देखरेख का काम सौंपा गया। समय के गुज़रते, उनके काम की वजह से उन्हें पूरे जापान में और दूसरे देशों में भी जाना पड़ता था। बाद में, विश्‍व-मुख्यालय से जब भाई नेथन एच. नॉर टोक्यो आए, तब उन्होंने मुझसे कहा: “क्या आपको मालूम है कि आपके पति अगले ज़ोन विज़िट के लिए कहाँ जा रहे हैं? ऑस्ट्रेलिया और न्यू ज़ीलैंड।” उन्होंने आगे कहा: “आप भी जाना चाहें तो जा सकती हैं, बशर्ते कि आप अपना किराया खुद दें।” यह सुनकर तो मेरा दिल गदगद हो उठा! हमें घर छोड़े नौ साल जो हो गए थे।

हमने फौरन अपने परिवारों को इस बारे में खत लिखा। मेरी टिकट का खर्च मेरी मम्मी ने उठाया। दरअसल लॉयड और मैं अपने मिशनरी काम में बहुत व्यस्त रहते थे, और अपने परिवारों से मिलने जाने के लिए हमारे पास पैसे नहीं थे। सो यह मौका मेरी दुआओं का जवाब था। आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि मुझे देखकर मेरी मम्मी को कितनी खुशी हुई होगी। उन्होंने कहा, “मैं तुम दोनों के लिए पैसे जमा करूँगी ताकि तीन साल में तुम दोनों फिर से यहाँ आ सको।” इसी बात को मन में रखते हुए हम विदा हुए मगर अफसोस की बात, उसके अगले साल जुलाई में वह चल बसीं। जब मैं नयी दुनिया में उनसे मिलूँगी तो हमें कितनी खुशी होगी!

सन्‌ 1960 तक, मैं सिर्फ मिशनरी का ही काम करती थी, मगर फिर मुझे एक खत मिला और उसमें यह लिखा था: “इस तारीख से यह इंतज़ाम किया गया है कि आप पूरे बेथॆल परिवार के लिए कपड़ों की धुलाई और इस्त्री का काम करेंगी।” उस समय बेथॆल परिवार में सिर्फ दर्जन भर लोग थे, सो अपने मिशनरी काम के अलावा मैं इस काम को भी सँभाल सकी थी।

सन्‌ 1962 में जापानी अंदाज़ में बने हमारे बेथॆल घर को गिराकर उसकी जगह अगले साल तक एक नया छः मंज़िला बेथॆल घर बनाया गया। वहाँ मेरा काम था बेथॆल में आनेवाले नए, जवान भाइयों को खुद अपने कमरों की साफ-सफाई करने और बाकी का काम करने में मदद करना। आम तौर पर जापान में लड़कों को घर पर कुछ भी काम करना सिखाया नहीं जाता था। उनके घर पर पढ़ायी-लिखायी पर ही ज़्यादा ज़ोर दिया गया था और उनकी मम्मियाँ ही उनका सारा काम किया करती थीं। यहाँ बेथॆल में बहुत जल्द इन लड़कों को पता चल गया कि उन्हें अपना काम खुद करना पड़ेगा, मैं उनकी मम्मी नहीं हूँ। समय के बीतने पर इनमें से कई भाइयों ने तरक्की की और उन्हें संगठन में नए और ज़िम्मेदारी के काम दिए गए।

एक दिन गर्मियों में एक बाइबल विद्यार्थी बेथॆल घर देखने आयी और उसने मुझे बाथरूमों की साफ-सफायी करते हुए देखा। उसने कहा, “प्लीज़ आप अपने ओवरसियर से कहिए कि इस काम के लिए एक नौकरानी रख ले और मैं उसे वेतन दे दिया करूँगी।” मैंने उसे समझाया कि तुम्हारे विचार तो बहुत नेक हैं और इसकी मैं कदर करती हूँ, मगर यहोवा के संगठन में मुझे चाहे जो भी काम दिया जाए, मैं उसे खुशी-खुशी स्वीकार करूँगी।

लगभग इसी दौरान, लॉयड और मुझे गिलियड की 39वीं क्लास में हाज़िर होने का न्योता मिला। सन्‌ 1964 में, 46 की उम्र में फिर से स्कूल जाना कितने बड़े सम्मान की बात थी! यह कोर्स खासकर ब्रांच ऑफिसों में काम करनेवालों के लिए था ताकि वे अपनी ज़िम्मेदारियों को और भी अच्छी तरह निभा सकें। इस दस महीने के कोर्स के बाद, हमें फिर से जापान भेजा गया। उस समय तक, जापान में 3,000 से भी ज़्यादा लोग राज्य प्रकाशक बन चुके थे।

इस बढ़ोतरी ने ऐसी रफ्तार पकड़ ली थी कि 1972 तक वहाँ 14,000 से भी ज़्यादा साक्षी हो गए और नूमाज़ू, दक्षिण टोक्यो में एक नया पाँच मंज़िला ब्रांच ऑफिस बनाया गया। उन इमारतों से हमें खूबसूरत माउँट फूजी साफ-साफ दिखायी देता था। वहाँ के नए, बड़े रोटरी प्रिंटिंग प्रॆस से हर महीने दस लाख से भी ज़्यादा पत्रिकाएँ छपकर निकलने लगीं। मगर हमारे लिए बहुत जल्द एक बदलाव होनेवाला था।

सन्‌ 1974 के अंतिम महीनों में लॉयड को यहोवा के साक्षियों के विश्‍व-मुख्यालय ब्रुकलिन से एक खत मिला जिसमें उन्हें गवर्निंग बॉडी का सदस्य बनकर काम करने का न्योता था। खत मिलने पर पहले मैंने सोचा: ‘वो घड़ी अब आ ही गयी। लॉयड की स्वर्ग जाने की और मेरी पृथ्वी पर रहने की आशा थी, सो आज नहीं तो कल, हम दोनों को तो बिछड़ना ही था। मैंने सोचा शायद लॉयड को मेरे बगैर ही ब्रुकलिन जाना होगा।’ मगर जल्द ही मैंने अपने सोच-विचार को सुधारा और मार्च 1975 में लॉयड के साथ खुशी-खुशी ब्रुकलिन चली गयी।

विश्‍व-मुख्यालय में आशीषें

ब्रुकलिन में होने के बावजूद भी, लॉयड का दिल हमेशा जापान में ही लगा रहता था। वे अकसर वहाँ के हमारे अनुभवों के बारे में बात करते रहते थे। मगर अब और भी ज़्यादा लोगों से जान-पहचान बढ़ाने का मौका था। अपनी ज़िंदगी के अंतिम 24 सालों में, संस्था ने लॉयड को ज़ोन के काम में काफी इस्तेमाल किया और इसके लिए उन्हें दुनिया भर के देशों में जाना पड़ता था। उनके ज़ोन के काम में मैं भी कई बार उनके साथ गयी।

दूसरे देशों में अपने मसीही भाई-बहनों से मिलने पर मुझे यह एहसास हुआ कि कई भाई-बहन किन-किन हालात में रहते और काम करते हैं। दस साल की एनटिल्या का चेहरा तो मेरे ज़हन में बैठ चुका है। उसे मैं उत्तरी अफ्रीका में मिली थी। उसे परमेश्‍वर का नाम बहुत पसंद था और मसीही सभाओं में आने-जाने के लिए वह कुल मिलाकर तीन घंटे का पैदल-रास्ता तय करती थी। अपने परिवार की तरफ से कड़े विरोध के बावजूद भी, एनटिल्या ने यहोवा को अपना जीवन समर्पित किया। जब हम उसकी कलीसिया में गए, तब हमने देखा कि जहाँ वक्‍ता ने अपने नोट्‌स रखे थे बस उसी के ठीक ऊपर, बहुत ही कम वॉल्टेज का सिर्फ एक बल्ब लगा हुआ था। उस थोड़ी-सी रोशनी को छोड़ बाकी सब जगह अंधेरा छाया हुआ था। इस अंधकार के बावजूद, गीत के समय सभी भाई-बहनों की मीठी, सुरीली आवाज़ सुनना बहुत मधुर लग रहा था।

हमारी ज़िंदगी की एक यादगार घटना है दिसंबर 1998, जब लॉयड और मैं प्रतिनिधियों के तौर पर, क्यूबा में हो रहे “ईश्‍वरीय जीवन का मार्ग” ज़िला अधिवेशन में गए थे। वहाँ के भाई-बहन कितने शुक्रगुज़ार और खुश थे कि ब्रुकलिन विश्‍व-मुख्यालय से कुछ भाई उन्हें मिलने आए हैं, उनकी कदरदानी और खुशी ने हमारे दिल को छू लिया! अपने अज़ीज़ लोगों से मिलने की सभी मीठी यादों को मैं दिल में संजोकर रखती हूँ, ये सभी अज़ीज़ जन अब भी पूरे जोश के साथ यहोवा की स्तुति में लगे हुए हैं।

परमेश्‍वर के लोग, अपने ही तो हैं

हालाँकि मैं ऑस्ट्रेलिया की हूँ, मगर यहोवा के संगठन ने मुझे जहाँ कहीं भी भेजा, मैं वहीं के लोगों से प्यार करने लगी। मैंने जापान में भी ऐसा ही महसूस किया था और अब अमरीका में 25 से भी ज़्यादा साल गुज़ारने पर भी मैं वैसा ही महसूस करती हूँ। जब मेरे पति गुज़र गए, तब मैंने यह नहीं सोचा कि मैं वापस ऑस्ट्रेलिया चली जाऊँ, मगर मैंने ब्रुकलिन बेथॆल में ही रहना चाहा, जहाँ यहोवा ने काम करने की नियुक्‍ति मुझे सौंपी है।

अब मैं 80 पार कर चुकी हूँ। 61 साल पूरे समय की सेवकाई करने के बाद भी, मैं यहोवा की खुशी-खुशी वहाँ सेवा करने को तैयार हूँ जहाँ वह चाहता है। यहोवा ने सचमुच बहुत अच्छी तरह मेरा ख्याल रखा है। मैंने यहोवा से प्यार करनेवाले अपने अज़ीज़ साथी के साथ 57 से भी ज़्यादा साल गुज़ारे और वे सभी मेरी मीठी यादों में बस गए हैं। मुझे पूरा यकीन है कि यहोवा हम पर अपनी आशीषें बरसाता रहेगा, और मुझे भरोसा है कि उसके नाम के लिए हमने जो भी काम किया है और जो प्यार दिखाया है, उसे वह कभी नहीं भूलेगा।—इब्रानियों 6:10.

[फुटनोट]

^ प्रहरीदुर्ग, अक्टूबर 1, 1999 के पेज 16 और 17 देखिए।

[पेज 25 पर तसवीर]

सन्‌ 1956 में मम्मी के साथ

[पेज 26 पर तसवीर]

सन्‌ 1950 के शुरुआती सालों में लॉयड और जापानी प्रकाशकों के साथ

[पेज 26 पर तसवीरें]

जापान में मेरी पहली बाइबल विद्यार्थी, मीयो तकागी के साथ 1950-53 के दौरान और 1999 में

[पेज 28 पर तसवीर]

लॉयड के साथ जापान में स्ट्रीट विटनॆस्सिंग करते हुए