आप जो विश्वास करते हैं उसका आधार क्या है?
आप जो विश्वास करते हैं उसका आधार क्या है?
विश्वास करने की परिभाषा यूँ दी गयी है: “किसी बात को सच, वास्तविक या असल मानना।” संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार विश्वव्यापी घोषणा-पत्र, हर इंसान को ‘सोच-विचार करने, अपने विवेक के मुताबिक काम करने और अपनी पसंद का धर्म मानने की आज़ादी के अधिकार’ की रक्षा करता है। इस अधिकार के तहत एक व्यक्ति को अपनी मर्ज़ी से “अपना धर्म या विश्वास बदलने” की आज़ादी भी है।
लेकिन आप शायद पूछें कि भला कोई अपना धर्म या विश्वास क्यों बदलना चाहेगा? आम तौर पर लोग कहते हैं: “मेरा अपना ईमान है और मैं उससे खुश हूँ।” यहाँ तक कि बहुत-से लोगों का मानना है कि चाहे उनके विश्वास गलत भी हों मगर इससे दूसरों का कुछ नुकसान नहीं होता। मिसाल के लिए, अगर कोई मानता है कि पृथ्वी सपाट है तो इस बात से उसे या दूसरों को शायद ही कोई नुकसान होगा। कुछ लोगों का कहना है कि “हमें मानना पड़ेगा कि हम सबके सोच-विचार एक-से नहीं हो सकते इसलिए उनको लेकर हमें बहस नहीं करनी चाहिए।” लेकिन क्या ऐसा मानना हमेशा बुद्धिमानी है? अगर एक डॉक्टर से उसके साथ काम करनेवाला कोई डॉक्टर कहे कि मुर्दाघर में किसी लाश को छूने के बाद सीधे अस्पताल के किसी वार्ड में जाकर मरीज़ों की जाँच करने से कोई नुकसान नहीं होगा, तो क्या वह डॉक्टर उसकी यह बात इतनी आसानी से मान जाएगा?
जहाँ तक धर्म की बात है, इतिहास गवाह है कि गलत धारणाओं से भारी नुकसान हुआ है। ज़रा उन दिल-दहलानेवाली घटनाओं के बारे में सोचिए, जो मध्य युग के दौरान पवित्र कहे जानेवाले धर्मयुद्धों में घटी थीं। और ये सब इसलिए हुईं क्योंकि धर्मगुरुओं ने “ईसाई कट्टरपंथियों को बेरहमी से हिंसा करने के लिए भड़काया था।” या, हमारे ज़माने में हाल ही में हुए एक गृह-युद्ध की बात सोचिए जिसमें “ईसाई” सैनिकों ने “अपनी बंदूकों की बट पर कुँआरी मरियम की तसवीरें चिपकाई, ठीक जैसे मध्य युग के सैनिक अपनी तलवारों की छोर पर संतों के नाम लिखते थे।” ये सारे कट्टरपंथी मानते थे कि वे जो कर रहे हैं वह सही है। मगर, यह बात साफ ज़ाहिर है कि धर्म के नाम पर हुए
इन युद्धों और बाकी लड़ाइयों में ज़रूर कोई बहुत बड़ी खराबी थी।आखिर इतनी सारी खलबली और लड़ाई-झगड़ों की वजह क्या है? बाइबल के मुताबिक इसका जवाब यह है कि शैतान यानी इब्लीस ‘सारे संसार को भरमा’ रहा है। (प्रकाशितवाक्य 12:9; 2 कुरिन्थियों 4:4; 11:3) प्रेरित पौलुस ने चेतावनी दी थी कि धार्मिक कहलाए जानेवाले बहुत-से लोगों का ‘नाश होगा’ क्योंकि वे शैतान के बहकावे में आ जाएँगे, जो “चिन्ह, और अद्भुत काम के साथ . . . सब प्रकार के धोखे” का इस्तेमाल करेगा। पौलुस ने कहा कि ऐसे लोग ‘सत्य के प्रेम को ग्रहण नहीं करेंगे जिस से उन का उद्धार हो सकता’ है और “इस तरह वे झूठ की प्रतीति” करेंगे। (2 थिस्सलुनीकियों 2:9-12) लेकिन आप खुद को झूठ पर विश्वास करने के खतरों से कैसे बचा सकते हैं? दरअसल, आप जो विश्वास करते हैं उसका आधार क्या है?
क्या आपको बचपन से वही सिखाया गया है?
हो सकता है कि बचपन से आपको वही सिखाया गया हो जो आपके परिवारवाले मानते हैं। यह एक तरह से अच्छी बात हो सकती है। परमेश्वर चाहता है कि माता-पिता अपने बच्चों को शिक्षा दें। (व्यवस्थाविवरण 6:4-9; 11:18-21) मसलन, जवान तीमुथियुस को अपनी माँ और नानी से सीखने की वजह से बहुत फायदा हुआ। (2 तीमुथियुस 1:5; 3:14,15) शास्त्र इस बात का भी बढ़ावा देता है कि हमें अपने माता-पिता के विश्वास का आदर करना चाहिए। (नीतिवचन 1:8; इफिसियों 6:1) लेकिन क्या सिरजनहार का यह मतलब था कि आपके माता-पिता जो विश्वास करते हैं, उसे आप भी आँख मूँदकर मान लें? पिछली पीढ़ियों के लोग जो मानते और करते थे, उसे बिना सोचे-समझे अपना लेना खतरनाक हो सकता है।—भजन 78:8; आमोस 2:4.
यीशु मसीह की मुलाकात एक सामरी स्त्री से हुई थी जिसे बचपन से सामरी धर्म मानना सिखाया गया था। (यूहन्ना 4:20) उस स्त्री को अपनी पसंद का धर्म मानने की आज़ादी थी। और यीशु ने उसके इस हक का आदर किया। मगर साथ ही उसने उसे यह साफ-साफ बताया: “तुम जिसे नहीं जानते, उसका भजन करते हो।” दरअसल, उसके धर्म की ज़्यादातर शिक्षाएँ गलत थीं, इसलिए यीशु ने उसे बताया कि परमेश्वर को मंज़ूर होनेवाले तरीके से यानी “आत्मा और सच्चाई” से उसकी उपासना करने के लिए उसे अपनी धारणाओं को बदलना होगा। यह बात सच है कि उसे अपने धर्म की शिक्षाओं से बड़ा लगाव था लेकिन उन्हीं शिक्षाओं से चिपके रहने के बजाय, उसे और दूसरे लोगों को यीशु मसीह द्वारा प्रकट किए गए “विश्वास को स्वीकार” करना था।—यूहन्ना 4:21-24,39-41; प्रेरितों 6:7, नयी हिन्दी बाइबिल।
विद्वानों की शिक्षाओं को अपनाना सिखाया गया?
ऐसे गुरु और विद्वान गहरा आदर पाने के योग्य हैं जो किन्हीं खास क्षेत्रों में बड़े ज्ञानी होते हैं। मगर इतिहास के पन्ने ऐसे जाने-माने गुरुओं की मिसालों से भरे पड़े हैं जिनकी शिक्षाएँ सरासर गलत थीं। उदाहरण के लिए, यूनानी तत्त्वज्ञानी अरस्तू द्वारा वैज्ञानिक मामलों पर लिखी गई दो किताबों को ही ले लीजिए। उनके बारे में इतिहासकार बर्टरन्ड रसल ने कहा कि “आधुनिक विज्ञान की नज़र से देखा जाए तो उन दोनों किताबों में मुश्किल से एक वाक्य भी नहीं मिलेगा जिसे सही कहा जा सके।” आज के विद्वान भी अकसर बिलकुल गलत नतीजे पर पहुँचते हैं। सन् 1895 में अँग्रेज़ वैज्ञानिक, लॉर्ड कॆल्विन ने पूरे दावे के साथ कहा था कि “हवा-से-भारी उड़नेवाले विमान का होना नामुमकिन है।” इसलिए एक समझदार इंसान आँख मूँदकर किसी भी बात को बस इसलिए सच नहीं मान लेगा क्योंकि वह किसी महान गुरु ने कही है।—भजन 146:3.
जहाँ धार्मिक शिक्षाओं की बात आती है, वहाँ भी हमें इसी तरह सावधानी बरतने की ज़रूरत है। प्रेरित पौलुस ने अपने धर्मगुरुओं से अच्छी शिक्षा हासिल की थी और वह “अपने पूर्वजों की परम्परा का पालन करने में अत्यन्त उत्साही था।” लेकिन बापदादों की शिक्षाओं के लिए उसमें जो जोश था, वह उसके लिए समस्याओं का कारण बन गया। इस जोश की वजह से वह ‘परमेश्वर की कलीसिया को बहुत ही सताने और नाश करने लगा।’ (गलतियों 1:13,14, NHT; यूहन्ना 16:2,3) उससे भी बदतर तो यह था कि एक लंबे समय तक पौलुस ‘पैने पर लात मारता’ रहा यानी वह उन सबूतों को ठुकराता रहा जो उसे यीशु मसीह पर विश्वास करने में मदद करते। पौलुस को अपनी धारणाएँ बदलने की प्रेरणा देने के लिए खुद यीशु को बहुत ही अनोखे तरीके से दखल देनी पड़ी।—प्रेरितों 9:1-6; 26:14.
मीडिया का असर?
शायद आपके सोच-विचार पर टी.वी. और पत्रिका जैसे मीडिया का भारी असर पड़ा हो। बहुत-से लोग खुश हैं कि मीडिया में बोलने की आज़ादी दी गई है, जिससे वे फायदेमंद जानकारी हासिल कर सकते हैं। लेकिन, ऐसे ताकतवर लोग भी हैं जिनके पास मीडिया को अपने इशारों पर नचाने की हैसियत है और वे अकसर ऐसा करते हैं। कई बार मीडिया के ज़रिए दी जानेवाली जानकारी एक-तरफा होती है जो आपके सोच-विचार
पर इस कदर धाक जमा सकती है कि आपको इसका पता तक नहीं चलेगा।इसके अलावा, ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए मीडिया सनसनीखेज़ और अनोखी बातों का ढिंढोरा पीटता है। कुछ साल पहले जिस जानकारी को आम जनता के बीच सुनाने या पढ़ने की सख्त मनाही थी, आज वही बातें खुल्लम-खुल्ला लोगों के सामने पेश की जाती हैं। धीरे-धीरे ही सही मगर चाल-चलन के संबंध में स्थापित किए गए स्तरों पर हमला हो रहा है और ये मिटते जा रहे हैं। आहिस्ता-आहिस्ता लोगों की सोच भ्रष्ट होती जा रही है। वे “बुरे को भला और भले को बुरा” मानने लगे हैं।—यशायाह 5:20; 1 कुरिन्थियों 6:9,10.
विश्वास के लिए ठोस सबूत ढूँढ़ना
अगर हमारे विश्वास का आधार इंसान की धारणाएँ और तत्त्वज्ञान हैं तो यह रेत के ढेर पर बना घर जैसा है। (मत्ती 7:26; 1 कुरिन्थियों 1:19,20) तो फिर आप किस बिनाह पर विश्वास कर सकते हैं? परमेश्वर ने आपको चारों तरफ की दुनिया के बारे में खोजबीन करने और आध्यात्मिक बातों के बारे में सवाल पूछने की दिमागी काबिलीयत दी है। इसलिए क्या यह मानना मुनासिब नहीं कि वह ऐसा इंतज़ाम भी करेगा जिसके ज़रिए आप अपने सवालों के सही-सही जवाब पा सकें? (1 यूहन्ना 5:20) बेशक, वह ऐसा इंतज़ाम ज़रूर करेगा! मगर आप कैसे पता लगा सकते हैं कि उपासना के मामले में कौन-सी बात सच, वास्तविक और असल है? हम बेझिझक कह सकते हैं कि यह पता लगाने के लिए परमेश्वर का वचन, बाइबल ही एक कसौटी है।—यूहन्ना 17:17; 2 तीमुथियुस 3:16,17.
“मगर क्या यह सच नहीं कि जिन लोगों के पास बाइबल है, उन्हीं की वजह से ज़्यादातर युद्ध हुए हैं और दुनिया में खलबली मची है?” कुछ लोग ऐसे सवाल पूछ सकते हैं। यह सच है कि कई धर्मगुरु जो बाइबल के मुताबिक चलने का दावा करते हैं, ऐसी धारणाएँ सिखाते हैं जिनका आपस में कोई ताल-मेल नहीं होता और जो लोगों को उलझन में डाल देती हैं। लेकिन यह इसलिए है क्योंकि वे बाइबल के आधार पर शिक्षाएँ नहीं देते। इस तरह के लोगों के बारे में प्रेरित पतरस ने कहा कि वे “झूठे नबी” और “झूठे उपदेशक” हैं जो “घातक और विधर्मी शिक्षा” तैयार करेंगे। पतरस कहता है कि उनके इन कामों की वजह से “सत्य के मार्ग की निन्दा होगी।” (2 पतरस 2:1,2, NHT) फिर भी, पतरस लिखता है, “हमारे पास जो भविष्यद्वक्ताओं का वचन है, वह इस घटना से दृढ़ ठहरा और तुम यह अच्छा करते हो जो यह समझकर उस पर ध्यान करते हो, कि वह एक दीया है, जो अन्धियारे स्थान में . . . प्रकाश देता रहता है।”—2 पतरस 1:19; भजन 119:105.
बाइबल हमें प्रोत्साहन देती है कि हमारे विश्वास सही हैं या नहीं, यह जानने के लिए उनको बाइबल के आधार पर परखकर देखें। (1 यूहन्ना 4:1) इस पत्रिका को पढ़नेवाले लाखों लोग इस बात की गवाही दे सकते हैं कि ऐसा करने से उनकी ज़िंदगी को एक मकसद और एक सही दिशा मिली है। इसलिए बिरीया के भले लोगों की तरह बनिए। किसी भी बात पर यकीन करने से पहले उसकी सच्चाई जानने के लिए ‘प्रति दिन पवित्र शास्त्र में ढूंढ़िए।’ (प्रेरितों 17:11) ऐसा करने में यहोवा के साक्षी आपकी मदद करने के लिए बेहद खुश होंगे। बेशक, यह आपका फैसला है कि आप क्या विश्वास करना चाहते हैं। मगर अक्लमंदी इसी में है कि आप निश्चित कर लें कि आप जो विश्वास करते हैं, वह इंसानी सोच-विचार और इच्छाओं पर नहीं बल्कि परमेश्वर के वचन पर आधारित है जिसमें सच्चाई प्रकट की गई है।—1 थिस्सलुनीकियों 2:13; 5:21.
[पेज 6 पर तसवीरें]
आप पूरे यकीन के साथ बाइबल को अपने विश्वास का आधार बना सकते हैं