स्वच्छता कितनी ज़रूरी है?
स्वच्छता कितनी ज़रूरी है?
स्वच्छता अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग मतलब रखती है। उदाहरण के लिए, जब एक माँ अपने छोटे बच्चे को हाथ-मुँह धोने को कहती है तो वह सोच सकता है कि बहते पानी में अपनी उँगलियाँ भिगो लेना और होंठ चिपड़ लेना ही काफी है। लेकिन माँ उससे बेहतर जानती है कि उसके हाथ-मुँह कैसे धोने हैं। वह उसे दोबारा गुसलखाने में ले जाकर, उसके चीखने-चिल्लाने पर भी ढेर सारे पानी और साबुन से रगड़कर उसके हाथ-मुँह धोती है।
यह बात सच है कि दुनिया में स्वच्छता का स्तर हर जगह एक जैसा नहीं है और लोग, बचपन से ही इस बारे में अलग-अलग नज़रिया रखते हैं। बीते समयों में, बहुत-से देशों के स्कूलों में साफ-सफाई और हर चीज़ को ढंग से रखने पर ज़ोर दिया जाता था। ऐसे माहौल की वजह से बच्चों को स्वच्छता की अच्छी आदतें पैदा करने में मदद मिली। लेकिन आज कुछ स्कूलों के मैदान, मलबे और कूड़े-करकट से ऐसे भरे पड़े हैं कि देखने पर वे खेलने और कसरत करने की जगह नहीं बल्कि कूड़ेदान लगते हैं। और कक्षाओं के बारे में क्या कहा जा सकता है? आस्ट्रेलिया के हाई-स्कूल की रखरखाव करनेवाले डैरन ने बताया: “आजकल कक्षाओं में भी गंदगी दिखायी देती है।” कुछ विद्यार्थियों को जब “कूड़ा-कचरा उठाओ” या “गंदगी साफ करो” जैसे निर्देश दिए जाते हैं तो उन्हें लगता है कि उन्हें सज़ा दी जा रही है। असल में बच्चों की ऐसी सोच के ज़िम्मेदार कुछ टीचर हैं जो सफाई करने को सज़ा के तौर पर इस्तेमाल करते हैं।
दूसरी तरफ खुद बड़े लोग ही इसमें अच्छी मिसाल नहीं हैं। वे अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में या काम-धंधे की जगह पर स्वच्छता का ध्यान नहीं रखते। उदाहरण के लिए, बहुत-सी सार्वजनिक जगहों को इस कदर गंदा कर दिया जाता है कि उन्हें देखते ही उबकाई आती है। कुछ कारखाने वातावरण को दूषित करते हैं। देखा जाए तो प्रदूषण फैलाने के ज़िम्मेदार ये कारखाने या व्यापार नहीं बल्कि खुद लोग हैं। हालाँकि संसार-भर में लालच, प्रदूषण की समस्या और उससे होनेवाले बहुत-से नुकसान का मुख्य कारण हो सकता है, मगर इनमें लोगों की अपनी गंदी आदतें भी शामिल हैं। आस्ट्रेलिया के राष्ट्रमंडल के भूतपूर्व डाइरेक्टर जनरल ने इस निष्कर्ष का समर्थन करते हुए कहा: “पूरी जनता का स्वास्थ्य, हर पुरुष, हर स्त्री और हर बच्चे के स्वच्छ रहने पर निर्भर है।”
फिर भी कुछ लोग स्वच्छता को निजी मामला समझते हैं और वे नहीं चाहते कि इसमें कोई दखलअंदाज़ी करे। लेकिन क्या यह सचमुच एक निजी मामला है?
भोजन के मामले में स्वच्छता बेहद ज़रूरी है, फिर चाहे हम खाना बाज़ार से खरीदें, रेस्तराँ में खाएँ या
अपने किसी दोस्त के यहाँ पर। जो खाना बनाते या परोसते हैं, उनसे उम्मीद की जाती है कि वे स्वच्छता का पूरा ध्यान रखें। चाहे परोसनेवाले के हाथ गंदे हों या हमारे, दोनों ही तरीकों से कई बीमारियाँ लग सकती हैं। अस्पतालों के बारे में क्या कहा जा सकता है, जहाँ हम सबसे ज़्यादा सफाई की उम्मीद करते हैं? द न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन रिपोर्ट करती है कि मरीजों में इनफेक्शन फैलने की एक वजह यह हो सकती है कि डॉक्टर और नर्सें अपने हाथ नहीं धोते, जिस वजह से मरीजों के इलाज में करीब हर साल 4.6 खरब रुपए खर्च होते हैं। इसलिए हमारा यह उम्मीद करना बिलकुल जायज़ है कि कोई भी इंसान अपनी गंदी आदतों से हमारे स्वास्थ्य को खतरे में न डाले।एक और गंभीर समस्या तब आती है जब कोई जानबूझकर या लापरवाही से हमारे इस्तेमाल करनेवाले पानी को दूषित कर देता है। यह देखकर भी कि ड्रग्स लेनेवाले और दूसरे लोग, इस्तेमाल की हुईं सिरिंजे समुद्र के किनारे फेंक जाते हैं तो वहाँ नंगे पैर टहलना कहाँ तक सुरक्षित होगा? मगर शायद इन सबसे बढ़कर हमें खुद से यह ज़रूरी सवाल पूछना चाहिए: क्या हमारे घर में स्वच्छता का पालन किया जा रहा है?
सूएलन होइ अपनी किताब गंदगी को दूर करना (अँग्रेज़ी) में यह पूछती है: “क्या हम उतने ही स्वच्छ हैं जितने कि हम हुआ करते थे?” वह जवाब देती है: “शायद नहीं।” वह बताती है कि इसका मुख्य कारण, समाज के बदलते नैतिक उसूल हैं। लोग अपने घरों पर कम-से-कम समय बिताते हैं, इसलिए इसकी सफाई वे किसी और को पैसा देकर करवाते हैं। नतीजा यह हुआ कि लोग, अपने चारों तरफ स्वच्छता बनाए रखने को ज़रूरी नहीं समझते। एक आदमी ने कहा: “मैं अपने आपको साफ करता हूँ पानी के फुहारे को नहीं। अगर मेरा घर गंदा है तो क्या हुआ, मैं तो साफ हूँ।”
स्वच्छता का मतलब सिर्फ खुद को साफ रखना ही नहीं है बल्कि एक शुद्ध और स्वस्थ ज़िंदगी जीना भी है। इसमें दिलो-दिमाग का भी शुद्ध होना शामिल है क्योंकि इनका ताल्लुक हमारे आदर्शों और उपासना से है। आइए देखें कैसे।