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काल-कोठरियों से स्विस आल्पस्‌ तक का सफर

काल-कोठरियों से स्विस आल्पस्‌ तक का सफर

जीवन कहानी

काल-कोठरियों से स्विस आल्पस्‌ तक का सफर

लोतार वाल्टर की ज़ुबानी

पूर्वी जर्मनी के कम्युनिस्ट जेलों की काल-कोठरियों में मेरी ज़िंदगी के तीन साल, तीन युगों के बराबर बीते। मैं बेसब्री से उस दिन का इंतज़ार कर रहा था, जब आज़ादी की खुली हवा में साँस लूँगा और अपने परिवार से मिलूँगा।

मगर मेरा छः साल का बेटा, योहानस जिस तरह मुझे फटी-फटी आँखों के साथ बड़ी हैरत से देख रहा था उसके लिए मैं तैयार नहीं था। उसने अपनी आधी ज़िंदगी, यानी पिछले तीन साल से अपने पिता को नहीं देखा था। मैं उसके लिए एक अजनबी था।

जहाँ तक मेरे बचपन की बात है, मैं तो अपने माँ-बाप के प्यार-भरे साए में पला-बढ़ा। मैं सन्‌ 1928 में जर्मनी के केमनिट्‌स शहर में पैदा हुआ था और हमारा घर खुशियों का आशियाना था। पिताजी धर्म से बहुत चिढ़ते थे और वे इसके बारे में अपनी राय ज़ाहिर करने से डरते नहीं थे। वे कहते थे कि पहले विश्‍वयुद्ध के दौरान, दोनों पक्षों के “मसीही” कहलानेवाले सैनिकों ने हालाँकि दिसंबर 25 को अपने दुश्‍मनों को क्रिसमस की मुबारकबाद दी मगर फिर अगले ही दिन एक-दूसरे की जान लेनी शुरू कर दी। पिताजी के हिसाब से धर्म में जितना कपट हो सकता है, उतना कहीं और नहीं होगा।

निराशा की जगह विश्‍वास ने ली

मुझे इस बात की खुशी है कि पिताजी की तरह मैं धर्म से निराश नहीं हुआ था। जब मैं 17 साल का हुआ तब तक दूसरा विश्‍वयुद्ध खत्म हो चुका था इसलिए मैं फौज में भर्ती होने से बाल-बाल बचा। लेकिन, कई ऐसे सवाल थे जो मुझे परेशान कर रहे थे, जैसे ‘यह मार-काट क्यों हो रही है? मैं किस पर भरोसा रख सकता हूँ? मैं सच्ची सुरक्षा कहाँ पा सकता हूँ?’ हम पूर्वी जर्मनी में रहते थे जो सोवियत संघ के कब्ज़े में आ गया था। जो लोग युद्ध की तबाही से तंग आ चुके थे, उन्हें साम्यवादियों के न्याय, समानता, एकता और दूसरे देशों के साथ शांति कायम करने के आदर्श अच्छे लगे। लेकिन बहुत जल्द इन नेकदिल लोगों का भरोसा टूटकर चूर-चूर होनेवाला था। इस बार उन्हें धर्म से नहीं बल्कि राजनीति से निराशा हाथ लगनेवाली थी।

जिस दौरान मैं अपने सवालों के जवाब ढूँढ़ रहा था, उसी दौरान मेरी एक मौसी ने अपने धर्म के बारे में मुझे बताया। वह एक यहोवा की साक्षी थी। उसने मुझे बाइबल की समझ देनेवाली एक किताब दी जिसकी वजह से मुझे, पहली बार मत्ती का पूरा 24वाँ अध्याय पढ़ने की प्रेरणा मिली। उस किताब में समझाया गया था कि हम “जगत के अन्त” में जी रहे हैं साथ ही उसमें इंसानों की समस्याओं की सबसे बड़ी वजह भी साफ-साफ बतायी गयी थी। उस किताब में जिस तरह ठोस दलीलें देकर बातें समझायी गयी थीं, वे मुझ पर गहरी छाप छोड़ गयीं।—मत्ती 24:3; प्रकाशितवाक्य 12:9.

जल्द ही मुझे यहोवा के साक्षियों की और भी किताबें मिलीं और मैंने जमकर इनकी पढ़ाई की। मुझे एहसास हुआ कि जिस सच्चाई को मैं जगह-जगह तलाश रहा था वह आखिरकार मुझे मिल गयी है। यह जानकर मेरे शरीर में सनसनी दौड़ गयी कि सन्‌ 1914 में यीशु मसीह को स्वर्ग में राजा बनाया गया, वह जल्द ही परमेश्‍वर का विरोध करनेवाली हस्तियों को अपने वश में कर लेगा जिससे आज्ञा माननेवाले इंसानों को आशीषें मिलेंगी। छुड़ौती की शिक्षा को अच्छी तरह समझ पाना मेरे लिए एक और बहुत बड़ी खोज थी। इसे समझकर मैंने यहोवा परमेश्‍वर से दिली प्रार्थना की और अब तक के पापों के लिए माफी माँगी। याकूब 4:8 (NW) का प्यार भरा न्यौता मेरे दिल की गहराइयों को छू गया: “परमेश्‍वर के करीब आओ, और वह तुम्हारे करीब आएगा।”

सच्चाई को सीखकर मेरे अंदर जोश भर आया। मगर मेरे माता-पिता और दीदी को मेरे नए विश्‍वास को अपनाने में मुश्‍किल हुई। लेकिन मेरा उत्साह फिर भी कम नहीं हुआ। मेरी ख्वाहिश थी कि केमनिट्‌स के पास साक्षियों के एक छोटे समूह की मसीही सभाओं में जाऊँ। मैं हैरान रह गया जब पहली सभा के लिए मेरे माता-पिता और दीदी भी मेरे साथ चले! यह सन्‌ 1945-46 की सर्दियों की बात है। बाद में, जब हमारे नगर, हारटाउ में एक बाइबल अध्ययन समूह शुरू हुआ तो मेरा परिवार बिना नागा सभाओं में हाज़िर होने लगा।

“मैं लड़का ही हूं”

बाइबल की अनमोल सच्चाइयों को सीखने और यहोवा के लोगों के साथ संगति करते रहने से मुझमें यह तमन्‍ना जागी कि अपनी ज़िंदगी यहोवा को समर्पित करूँ। मई 25, 1946 को मेरा बपतिस्मा हुआ। जब परिवार के बाकी सदस्यों ने भी आध्यात्मिक रूप से तरक्की की तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा, आखिरकार वे तीनों वफादार साक्षी बने। मेरी दीदी आज भी केमनिट्‌स की एक कलीसिया की जोशीली सदस्य है। माँ सन्‌ 1965 में और पिताजी सन्‌ 1986 में चल बसे, दोनों अपनी आखिरी साँस तक यहोवा के वफादार रहे।

बपतिस्मा लेने के छः महीने बाद, मैंने स्पेशल पायनियर के तौर पर सेवा शुरू की। यह ऐसी ज़िंदगी की शुरूआत थी, जिसमें मैं “समय और असमय” परमेश्‍वर की सेवा करता रहा। (2 तीमुथियुस 4:2) बहुत जल्द मेरे आगे सेवा करने के नए-नए मौके आने लगे। पूर्वी जर्मनी के एक दूर-दराज़ इलाके में पूरे समय के प्रचारकों की ज़रूरत थी। मेरे साथ एक और भाई ने इसके लिए अर्ज़ी भरी, मगर मुझे लग रहा था कि ज़िम्मेदारी के इस काम को पूरा करने के लिए न तो मेरे पास तजुरबा है ना ही प्रौढ़ता। उस वक्‍त मैं सिर्फ 18 साल का था इसलिए मैं यिर्मयाह की तरह महसूस कर रहा था, जिसने कहा: “हाय, . . . यहोवा! देख, मैं तो बोलना ही नहीं जानता, क्योंकि मैं लड़का ही हूं।” (यिर्मयाह 1:6) मेरी इस झिझक के बावजूद ज़िम्मेदार भाइयों ने हम पर भरोसा किया और हमें इस काम के लिए जाने का मौका दिया। इस तरह, हमें ब्रानडनबुर्ग राज्य के एक छोटे-से कसबे, बॆल्तसिख भेजा गया।

उस इलाके में प्रचार करना एक बहुत बड़ी चुनौती थी, मगर इससे मुझे बढ़िया ट्रेनिंग मिली। कुछ वक्‍त बाद, बिज़नेस में नाम कमानेवाली कई जानी-मानी स्त्रियों ने राज्य का संदेश स्वीकार किया और यहोवा की साक्षी बनीं। मगर साक्षी बनने का उनका यह फैसला, उस छोटे-से पिछड़े इलाके के लोगों की प्राचीन परंपराओं और आशंकाओं के खिलाफ था। कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट दोनों चर्च के पादरियों ने हमारा कड़ा विरोध किया और हमारे प्रचार काम की वजह से हम पर झूठे इलज़ाम लगाए। मगर, सही राह दिखाने और हिफाज़त करने के लिए हमने यहोवा पर भरोसा रखा, और इस वजह से हम दिलचस्पी दिखानेवाले कई लोगों को सच्चाई स्वीकार करने में मदद दे पाए।

कड़ा विरोध बढ़ने का अंदेशा

सन्‌ 1948 का साल आशीषें भी लाया और ऐसी मुश्‍किलें भी जिनकी मैंने उम्मीद नहीं की थी। सबसे पहले, मुझे थ्युरिनजीया इलाके के रूडलश्‍टाट शहर में पायनियर सेवा के लिए भेजा गया। वहाँ बहुत-से वफादार भाई-बहनों के साथ मेरी जान-पहचान हुई और उनकी संगति से मुझे बहुत खुशी मिली। उसी साल की जुलाई में मुझे एक खास आशीष मिली जिसका मेरी ज़िंदगी पर गहरा असर पड़नेवाला था। मेरी शादी एक जवान मसीही बहन, एरीका उलमान से हुई। मेरी एरीका से पहचान तब हुई जब से मैंने केमनिट्‌स कलीसिया में जाना शुरू किया था। वह परमेश्‍वर की सेवा में वफादार और जोशीली थी। हमने एक-साथ अपने शहर हारटाउ में पायनियर सेवा शुरू की। मगर, कुछ समय बाद एरीका पूरे समय की सेवा जारी न रख सकी क्योंकि उसकी सेहत जवाब दे रही थी साथ ही कुछ और वजह भी थीं।

वह वक्‍त यहोवा के लोगों के लिए मुश्‍किलों का दौर था। केमनिट्‌स के श्रमिक विभाग ने मेरा राशन कार्ड रद्द करवा दिया, ताकि मैं प्रचार काम छोड़कर पूरे समय की नौकरी करने लगूँ। ज़िम्मेदार भाइयों ने मेरा मामला उठाकर, सरकार से साक्षियों को कानूनी मान्यता देने की बात पर ज़ोर दिया। सरकार ने मान्यता देने से इनकार कर दिया और जून 23, 1950 को मुझे जुरमाना भरने या फिर 30 दिन जेल की सज़ा सुनायी गयी। हमने इस फैसले की अपील की, मगर ऊपर की अदालत ने हमारी अपील नामंज़ूर कर दी और मुझे जेल की सज़ा हो गयी।

यह घटना, विरोध और दुःख-तकलीफों के आनेवाले भयानक तूफान की सिर्फ एक आहट थी। इस बात को एक महीना भी नहीं गुज़रा था कि सन्‌ 1950 के सितंबर महीने में, कम्युनिस्ट सरकार ने मीडिया में हमें बदनाम करने की मुहिम छेड़ दी और हमारे काम पर पाबंदी लगा दी। हमारी गिनती तेज़ी से बढ़ने और राजनैतिक मामलों में हमारी निष्पक्षता की वजह से, हम पर यह ठप्पा लगा दिया गया कि हम पश्‍चिमी देशों के लिए जासूसी करनेवाले खतरनाक लोग हैं और धर्म की आड़ में “गैरकानूनी काम” कर रहे हैं। जिस दिन पाबंदी का हुक्म जारी किया गया था, उसी दिन हमारा बेटा योहानस पैदा हुआ। उसके जन्म के वक्‍त मैं जेल में था। घर पर मेरी पत्नी के साथ दाई भी थी। दाई के रोकने के बावजूद सरकार के खुफिया पुलिस अफसर हमारे घर में ज़बरदस्ती घुस आए और ऐसे सबूत ढूँढ़ने लगे जिससे हम पर लगाए झूठे इलज़ामों को सही साबित कर सकें। उन्हें ऐसा कुछ नहीं मिला। मगर, बाद में वे हमारी कलीसिया में अपना एक मुखबिर शामिल करने में कामयाब हो गए। इसकी वजह से, अक्टूबर 1953 में सभी ज़िम्मेदार भाइयों को गिरफ्तार कर लिया गया, जिनमें मैं भी था।

काल-कोठरियों में

हमें मुजरिम करार दिया गया और तीन से छः साल तक के लिए जेल की सज़ा सुनायी गयी। ज़्विकाउ शहर के ओस्टरश्‍टाइन किले की गंदी काल-कोठरियों में हमारे कई भाई पहले से कैद थे, हमें भी उन्हीं के साथ डाल दिया गया। काल-कोठरियों का हाल बहुत बुरा था, मगर प्रौढ़ भाइयों की संगति की वजह से हम सब सच्ची खुशी महसूस कर रहे थे। आज़ादी छीन लिए जाने पर भी हमें आध्यात्मिक भोजन की कोई कमी नहीं हुई। हालाँकि प्रहरीदुर्ग पत्रिका को सरकार पसंद नहीं करती थी और उस पर पाबंदी लगायी गयी थी, मगर जेल में यहाँ तक कि हमारी कोठरियों तक यह किसी तरह आ ही जाती थी! कैसे?

जेल के हमारे कुछ भाइयों को बाहर कोयले की खानों में काम करना पड़ता था। वहाँ वे उन साक्षियों से मिलते थे जो उन्हें पत्रिकाएँ देते। फिर वे चोरी-छिपे जेल के अंदर लाकर बड़ी होशियारी और नयी-नयी तरकीबों से यह आध्यात्मिक भोजन हम भाइयों तक पहुँचाते, जिसकी हमें सख्त ज़रूरत थी। इस तरीके से, यहोवा की परवाह देखकर और उसकी हिदायतें पाकर मुझे इतनी खुशी मिली और इतना हौसला बढ़ा जिसे मैं बयान नहीं कर सकता!

सन्‌ 1954 के खत्म होते-होते, हमें तोरगाउ नगर के जेल भेजा गया जिसका नाम सुनकर ही लोग काँप उठते थे। वहाँ के भाई हमें देखकर बहुत खुश हुए। हमारे आने के पहले तक, प्रहरीदुर्ग के पुराने अंकों से जो बातें उन्हें याद थीं उन्हीं पर बात करके उन्होंने खुद को आध्यात्मिक तरीके से मज़बूत रखा था। मगर वे ताज़ा आध्यात्मिक भोजन खाने के लिए कितना तरस रहे थे! अब यह हमारा फर्ज़ था कि ज़्विकाउ में हमने जो सीखा था, उन बातों को याद करके उन्हें बताएँ। मगर हम ऐसा कैसे कर सकते थे, क्योंकि हर दिन जब हम पैदल चलते, तो एक-दूसरे से बोलने की सख्त मनाही थी? भाइयों ने हमें बहुत ही बढ़िया सुझाव दिए थे कि इन हालात में हमें क्या करना चाहिए और यहोवा का शक्‍तिशाली हाथ हमेशा हमारी हिफाज़त करता रहा। इससे हमने सीखा कि आज़ादी के वक्‍त में बाइबल अध्ययन और मनन करने का जब हमें मौका मिलता है, तब मन लगाकर ऐसा करना कितनी अहमियत रखता है।

अहम फैसलों का वक्‍त

यहोवा की मदद से हम सच्चाई में मज़बूत बने रहे। हमें बहुत ताज्जुब हुआ जब सन्‌ 1956 के आखिर में हममें से कई लोगों की सज़ा माफ कर दी गयी। हमें रिहा करने के लिए जब जेल के दरवाज़े खोल दिए गए, तब हमें जैसी खुशी हुई उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता! और अपनी पत्नी से मिलकर तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। मेरा बेटा, अब छः साल का हो चुका था, और अब हम दोनों पति-पत्नी मिलकर अपने बच्चे की परवरिश कर सकते थे। कुछ वक्‍त के लिए मैं योहानस के लिए अजनबी था, मगर जल्द ही हम दोनों में गहरा प्यार हो गया।

पूर्वी जर्मनी में यहोवा के साक्षी बहुत तकलीफों के दौर से गुज़र रहे थे। हमारे मसीही प्रचार और निष्पक्षता की वजह से हमारे दुश्‍मन बढ़ते जा रहे थे जिस वजह से हम पर लगातार खतरा मँडरा रहा था। हमारी ज़िंदगी खतरों, चिंताओं और तकलीफों से पस्त हो चली थी। इसलिए, मैंने और एरीका ने अपने हालात को अच्छी तरह जाँचा, इस बारे में प्रार्थना की और यह ज़रूरत महसूस की कि हमें बेहतर हालात में जीने के लिए कहीं और जाकर बसना होगा ताकि चिंता से घुल-घुलकर हम खत्म न हो जाएँ। हम यहोवा की सेवा करने और आध्यात्मिक लक्ष्यों को पाने और उन पर चलने के लिए आज़ादी चाहते थे।

सन्‌ 1957 के वसंत में, हमें पश्‍चिमी जर्मनी के श्‍टुटगार्ट शहर में जाकर बसने का मौका मिला। वहाँ प्रचार के काम पर पाबंदी नहीं थी और हम अपने भाइयों से खुलकर मिल सकते थे। इन भाइयों ने इतने प्यार से हमारी मदद की कि हम उसका बयान नहीं कर सकते। हमने हेडलफिंगन की कलीसिया में सात साल बिताए। उन सालों के दौरान, हमारे बेटे ने स्कूल जाना शुरू किया और सच्चाई में भी अच्छी उन्‍नति की। सन्‌ 1962 के सितंबर में मुझे वीसबाडन में किंगडम मिनिस्ट्री स्कूल जाने का खास मौका मिला। वहाँ मुझे उकसाया गया कि मैं अपने परिवार को लेकर ऐसी जगह जाऊँ जहाँ जर्मन भाषा बोलनेवाले बाइबल शिक्षकों की ज़रूरत है। इनमें जर्मनी और स्विट्‌ज़रलैंड के कई इलाके शामिल थे।

स्विस आल्पस्‌ का सफर

इस तरह सन्‌ 1963 में हम स्विट्‌ज़रलैंड चले गए। वहाँ स्विस आल्पस्‌ के बीचों-बीच एक बड़ी ही खूबसूरत झील लूसर्न है। उसी झील के पास ब्रुनन की एक छोटी कलीसिया में हमें काम करने के लिए कहा गया। वहाँ पहुँचकर ऐसा लगा मानो हम फिरदौस में आ गए हों। अब हमें वहाँ की जर्मन बोली, उनके जीने के तरीके और सोच-विचार की आदत डालनी थी। इन अमन-पसंद लोगों के बीच काम करना और प्रचार करना हमें बहुत अच्छा लगा। हम 14 साल ब्रुनन में रहे। हमारा बेटा वहीं बड़ा हुआ।

सन्‌ 1977 में, जब मैं करीब 50 साल का हो चला था, हमें टून नगर में, स्विट्‌ज़रलैंड बेथेल में सेवा करने का न्यौता मिला। हमने ऐसी आशीष पाने की उम्मीद नहीं की थी, इसलिए दिली कदरदानी के साथ हमने इसे स्वीकार किया। मैंने और मेरी पत्नी ने नौ साल बेथेल सेवा की, जो हमारी मसीही ज़िंदगी के सबसे बेहतरीन और यादगार साल थे। इस दौरान हमें आध्यात्मिक उन्‍नति करने का बढ़िया मौका मिला। टून नगर और आस-पास के प्रचारकों के साथ प्रचार करना हमें बहुत अच्छा लगता था, और हमारे सामने हमेशा यहोवा के “आश्‍चर्य कर्मों” का नज़ारा होता था। ये थे, बर्नीस आल्पस्‌ पहाड़ जिनकी ऊँची-ऊँची चोटियाँ बर्फ से ढकी रहती थीं और ऐसा लगता था मानो आसमान छू रही हों।—भजन 9:1.

एक और सफर

हमने अपना अगला सफर 1986 की शुरूआत में किया। स्विट्‌ज़रलैंड के पूर्वी भाग में बुख्स कलीसिया को प्रचार के लिए बहुत बड़ा इलाका दिया गया था। हमें स्पेशल पायनियर बनकर उस कलीसिया में जाना था। एक बार फिर हमें फेर-बदल करके अलग किस्म की ज़िंदगी जीने का आदी होना था। हमारी ख्वाहिश थी कि यहोवा हमें वहाँ भेजे जहाँ हम सबसे बढ़िया तरीके से इस्तेमाल हो सकें। इसी ख्वाहिश के साथ और यहोवा की आशीष से हमने यह नयी ज़िम्मेदारी ली। कई बार मैं सबस्टिट्यूट सर्किट ओवरसियर के नाते कलीसियाओं में भेंट करने और उन्हें मज़बूत करने गया हूँ। अठारह साल बीत चुके हैं, और हमें इस इलाके में प्रचार करने के बहुत-से अच्छे अनुभव मिले हैं, जिससे हमें खुशी मिली है। बुख्स की कलीसिया में अच्छी बढ़ोतरी हुई। पाँच साल पहले यहाँ एक खूबसूरत किंगडम हॉल यहोवा को समर्पित किया गया और सभाओं के लिए यहाँ इकट्ठा होने में हमें बड़ी खुशी होती है।

यहोवा ने हमारी देखभाल करने में बड़ी दरियादिली दिखायी है। हमारी ज़िंदगी के ज़्यादातर साल पूरे समय की सेवा में गुज़रे हैं, फिर भी हमने कभी किसी चीज़ की कमी महसूस नहीं की। हमने अपने बेटे, बहू और पोते-पोतियों को और उनके भी परिवारों को यहोवा के मार्ग पर वफादारी से चलते देखने की खुशी और संतोष पाया है।

जब अपनी ज़िंदगी पर एक नज़र डालता हूँ, तो खुद से कहता हूँ कि वाकई हमने यहोवा की सेवा “समय और असमय” हर वक्‍त की है। मसीही प्रचारक के नाते मेरा काम मुझे कम्युनिस्ट जेलों की काल-कोठरियों से लेकर स्विट्‌ज़रलैंड के शानदार आल्पस्‌ तक ले आया। मेरी ज़िंदगी का एक भी पल ऐसा नहीं गुज़रा, जिस पर मुझे और मेरे परिवार को अफसोस हो।

[पेज 28 पर बक्स]

“दोहरे शिकार” ज़ुल्म सहकर भी डटे रहते हैं

जर्मन लोकतंत्र गणराज्य में, जिसे पूर्वी जर्मनी भी कहा जाता है, यहोवा के साक्षियों का नामो-निशान मिटाने के लिए दुश्‍मन हाथ धोकर उनके पीछे पड़ गए। रिकॉर्ड दिखाते हैं कि 5,000 से ज़्यादा साक्षियों को उनके मसीही प्रचार और निष्पक्षता की वजह से जेलों और ऐसे शिविरों में भेजा गया जहाँ उनसे दिन-रात कोल्हू के बैल की तरह काम करवाया जाता था।—यशायाह 2:4.

इनमें से कुछ साक्षियों को “दोहरे शिकार” कहा गया है। इनमें से लगभग 325 ऐसे साक्षी थे जिन्हें नात्ज़ी यातना शिविरों या जेलों में कैद रखा गया। फिर 1950 के बाद के दशक में, श्‍टाज़ी यानी पूर्वी जर्मनी की खुफिया पुलिस ने उनका पीछा करके उन्हें कैद किया। कई जेलखाने भी ऐसे थे जिन्हें पहले नात्ज़ियों ने और फिर श्‍टाज़ी ने इस्तेमाल किया।

ज़बरदस्त ज़ुल्मों के पहले दशक, यानी 1950 से 1961 के बीच, कुल मिलाकर 60 साक्षियों ने जिनमें स्त्री-पुरुष दोनों शामिल थे, अत्याचार, भूख, बीमारी और बुढ़ापे की वजह से जेल में दम तोड़ दिया। बारह साक्षियों को उम्र कैद की सज़ा सुनायी गयी थी, जिसे बाद में घटाकर 15 साल किया गया।

बर्लिन में जहाँ एक ज़माने में श्‍टाज़ी का मुख्यालय हुआ करता था, आज वहाँ रखी गयी एक प्रदर्शनी दिखाती है कि 40 साल तक सरकार ने कैसे पूर्वी जर्मनी में यहोवा के साक्षियों पर ज़ुल्म ढाए। वहाँ लगायी गयी तसवीरें और उनकी आप-बीती खामोश रहकर भी यह गवाही देती है कि ज़ुल्मों की आग, इन साक्षियों के हौसले, वफादारी और आध्यात्मिक ताकत को झुलसा न सकी।

[पेज 24, 25 पर नक्शा]

(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)

पूर्वी जर्मनी

रूडलश्‍टाट

बॆल्तसिख

तोरगाउ

केमनिट्‌स

ज़्विकाउ

[पेज 25 पर तसवीर]

ज़्विकाउ में ओस्टरश्‍टाइन किला

[चित्र का श्रेय]

Fotosammlung des Stadtarchiv Zwickau, Deutschland

[पेज 26 पर तसवीर]

अपनी पत्नी एरीका के साथ