जिन्हें आप सिखा रहे हैं क्या उनमें सच्चाई फल ला रही है?
जिन्हें आप सिखा रहे हैं क्या उनमें सच्चाई फल ला रही है?
एक दिन जवान ऐरिक ने अपने मम्मी-डैडी से साफ कह दिया कि अब से मैं एक यहोवा का साक्षी नहीं कहलाना चाहता। यह सुनकर उनका कलेजा फट गया। वे ऐरिक के स्वभाव में आए बदलाव को नहीं देख पाए थे। लड़कपन से ही वह पारिवारिक अध्ययन में हिस्सा लेता, मसीही सभाओं में हाज़िर होता और कलीसिया के साथ प्रचार में जाता था। उसे देखकर लगता था कि वह सच्चाई में अच्छा-खासा मज़बूत है। लेकिन जब ऐरिक घर छोड़कर चला गया, तब जाकर उसके मम्मी-डैडी को एहसास हुआ कि उसने सच्चाई को कभी अपना बनाया ही नहीं था। इससे उन्हें बड़ा धक्का लगा, और उनकी सारी आशाओं पर पानी फिर गया।
निराशा की ऐसी भावना उन लोगों को भी आ घेरती है जिनका कोई बाइबल विद्यार्थी अचानक अध्ययन करना बंद कर देता है। ऐसे में अकसर लोग अपने आपसे पूछते हैं, ‘मुझे यह पहले से क्यों नहीं पता चला कि ऐसा होगा?’ लेकिन क्या इस तरह की आध्यात्मिक विपत्ति के आने से पहले यह तय करना मुमकिन है कि जिन्हें हम सिखा रहे हैं उनमें सच्चाई फल ला रही है या नहीं? हम कैसे यकीन रख सकते हैं कि सच्चाई हममें और जिन्हें हम सिखाते है, उनमें भी काम कर रही है? बीज बोनेवाले के बारे में यीशु के जाने-माने दृष्टांत से हमें इन सवालों का जवाब पाने में मदद मिलती है।
सच्चाई की जड़ दिल तक पहुँचनी चाहिए
यीशु ने कहा: “बीज तो परमेश्वर का वचन है। पर अच्छी भूमि में के वे हैं, जो वचन सुनकर भले और उत्तम मन में सम्भाले रहते हैं, और धीरज से फल लाते हैं।” (लूका 8:11, 15) तो इससे पहले कि राज्य की सच्चाई हमारे विद्यार्थी में फल पैदा करे, यह ज़रूरी है कि सच्चाई उसके लाक्षणिक दिल में जड़ पकड़े। यीशु हमें यकीन दिलाता है कि जिस तरह बढ़िया किस्म का बीज अच्छी भूमि में पनपने लगता है और अच्छी फसल पैदा करता है, उसी तरह परमेश्वर की सच्चाई एक बार अगर उत्तम मन यानी सच्चे दिल को छू जाए तो वह फौरन काम करने और फल लाने लगती है। हमें विद्यार्थी में कौन-से फल देखने चाहिए?
हमें विद्यार्थी के गुणों पर गौर करना चाहिए, ना कि उसके ऊपरी कामों पर। एक इंसान का उपासना के सभी कामों में हिस्सा लेना हमेशा यह ज़ाहिर नहीं करता कि उसके दिल में क्या चल रहा है। (यिर्मयाह 17:9, 10; मत्ती 15:7-9) हमें दिल की गहराई में झाँकने की ज़रूरत है। विद्यार्थी पहले जिन बातों को अहमियत देता था, उसकी जो ख्वाहिशें और इरादे थे, इन सबमें ज़रूर बदलाव आना चाहिए। उसे दिन-ब-दिन नया मनुष्यत्व पहनना चाहिए, जो परमेश्वर की इच्छा के अनुसार है। (इफिसियों 4:20-24) इसे समझने के लिए एक मिसाल लीजिए: पौलुस कहता है कि जब थिस्सलुनीकियों को सुसमाचार सुनाया गया, तो उन्होंने उसे परमेश्वर का वचन समझकर खुशी-खुशी स्वीकार किया। लेकिन बाद में जब उन्होंने अपने धीरज, प्रेम और वफादारी का सबूत दिया, तब जाकर पौलुस को पक्का यकीन हुआ कि सच्चाई ‘उनमें कार्य कर रही है।’ (NHT)—1 थिस्सलुनीकियों 2:13, 14; 3:6.
बेशक, विद्यार्थी के दिल में क्या है, यह आज नहीं तो कल उसके व्यवहार से ज़ाहिर हो ही जाएगा, जैसे ऐरिक का उदाहरण दिखाता है। (मरकुस 7:21, 22; याकूब 1:14, 15) लेकिन अफसोस कि बुरे गुणों के ज़ाहिर होने तक शायद बहुत देर हो जाए। तो हमारे सामने चुनौती यह है कि हम विद्यार्थी की खास कमज़ोरियों को कैसे पहचानें, इससे पहले कि वे उसके लिए आध्यात्मिक मायने में रोड़ा बन जाएँ। इसके लिए हमें विद्यार्थी के दिल को जाँचने का एक तरीका अपनाना होगा। वह तरीका क्या है?
यीशु से सीखिए
यीशु लोगों के दिल को सही-सही पढ़ सकता था। (मत्ती 12:25) हममें से किसी के पास भी यह काबिलीयत नहीं है। मगर यीशु ने दिखाया कि हम भी कैसे पता लगा सकते हैं कि एक व्यक्ति की ख्वाहिशें और उसके इरादे क्या हैं, और वह किन बातों को ज़िंदगी में पहली जगह देता है। एक काबिल डॉक्टर मरीज़ के दिल में क्या खराबी है, यह देखने के लिए उस पर तरह-तरह की जाँच करता है। उसी तरह, यीशु ने परमेश्वर के वचन का इस्तेमाल करके लोगों के “मन की [उन] भावनाओं और विचारों” का खुलासा किया और बाहर ‘निकाला’ जो दूसरों की नज़रों से छिपे हुए थे।—इब्रानियों 4:12; नीतिवचन 20:5.
मसलन, एक मौके पर यीशु ने पतरस को उसकी एक ऐसी कमज़ोरी का एहसास दिलाया, जो बाद में चलकर ठोकर का कारण बनी। यीशु जानता था कि पतरस उससे प्यार करता है। दरअसल, यीशु ने अभी-अभी उसे “राज्य की कुंजियां” सौंपी थी। (मत्ती 16:13-19) मगर यीशु यह भी जानता था कि शैतान की नज़रें उसके प्रेरितों पर हैं। आगे चलकर उन पर सच्चाई से समझौता करने का ज़बरदस्त दबाव आनेवाला था। यीशु साफ देख सकता था कि उसके कुछ चेलों के विश्वास में खामियाँ हैं। इसलिए वह उन्हें यह बताने से पीछे नहीं हटा कि उन्हें क्या सुधार करने की ज़रूरत है। गौर कीजिए कि यीशु ने चेलों के सामने यह बात कैसे पेश की।
मत्ती 16:21 (हिन्दुस्तानी बाइबल) बताता है: “उस वक़्त यीशु अपने चेलों पर ज़ाहिर करने लगा कि मुझे ज़रूर है कि . . . बहुत दु:ख उठाऊं और क़त्ल किया जाऊं।” ध्यान दीजिए कि यीशु ने उन्हें सिर्फ बताया ही नहीं, पर खुलकर ज़ाहिर किया कि उसके साथ क्या होगा। हो सकता है, यीशु ने भजन 22:14-18 या यशायाह 53:10-12 जैसी आयतों का इस्तेमाल किया हो, जिनमें बताया गया है कि मसीहा को दुःख उठाना पड़ेगा और वह मार डाला जाएगा। यीशु ने चाहे जो भी आयतें इस्तेमाल की हों लेकिन एक बात तो पक्की है कि उसने शास्त्र से सीधे पढ़कर या उसका हवाला देकर पतरस और दूसरे प्रेरितों को अपने दिल की बात ज़ाहिर करने का मौका दिया। यह जानने पर कि यीशु पर ज़ुल्म ढाए जाएँगे, प्रेरितों ने कैसा रवैया दिखाया?
पतरस स्वभाव से एक जोशीला और निडर इंसान था। मगर ताज्जुब की बात है कि इस बार उतावला होकर उसने जो जवाब दिया, उससे ज़ाहिर हुआ कि उसके सोच-विचार में एक बड़ी खामी थी। पतरस ने कहा: “हे प्रभु, परमेश्वर न करे; तुझ पर ऐसा कभी न होगा।” पतरस की सोच कितनी गलत थी, इसका हमें यीशु की बातों से साफ पता चलता है। यीशु ने कहा कि वह ‘परमेश्वर की बातें नहीं, पर मनुष्यों की बातें’ सोच रहा था। ऐसी सोच के बुरे अंजाम हो सकते थे। इसलिए यीशु ने क्या किया? पहले तो उसने पतरस को फटकारा, फिर उससे और दूसरे चेलों से कहा: “यदि कोई मेरे पीछे आना चाहे, तो अपने आप का इन्कार करे और अपना क्रूस उठाए, और मेरे पीछे हो ले।” भजन 49:8 और 62:12 में दी गयी बातों पर उनका ध्यान खींचते हुए, यीशु ने प्यार से याद दिलाया कि उन्हें हमेशा की ज़िंदगी सिर्फ परमेश्वर दे सकता है, ना कि इंसान जिसके पास उद्धार करने की शक्ति नहीं है।—मत्ती 16:22-28.
हालाँकि बाद में पतरस कुछ समय के लिए डर गया और तीन बार उसने यीशु को जानने से इनकार कर दिया, मगर ऊपर बतायी चर्चा और दूसरे समय पर हुई बातचीत से पतरस को आध्यात्मिक तौर पर जल्द-से-जल्द दुरुस्त होने में मदद मिली। (यूहन्ना 21:15-19) इसके सिर्फ पचास दिन बाद, पतरस ने यरूशलेम में निडर होकर लोगों की भीड़ के सामने यीशु के पुनरुत्थान की गवाही दी। इसके बाद के हफ्तों, महीनों और सालों में, पतरस को कई बार गिरफ्तार किया गया, पीटा गया और कैद में डाला गया, लेकिन उसने इन सारी तकलीफों का हिम्मत से सामना किया। इस तरह उसने निडरता से खराई बनाए रखने में एक बढ़िया मिसाल कायम की।—प्रेरितों 2:14-36; 4:18-21; 5:29-32, 40-42; 12:3-5.
हम इससे क्या सीख सकते हैं? क्या आपने ध्यान दिया कि यीशु ने पतरस के दिल की बात बाहर निकालने और उसका खुलासा करने के लिए क्या किया? पहले तो, यीशु ने शास्त्र की उन आयतों की तरफ पतरस का ध्यान खींचा जो उसके हालात पर लागू होते थे। इसके बाद, उसने पतरस को अपने दिल की बात ज़ाहिर करने का मौका दिया। आखिर में, यीशु ने
दूसरी आयतों का इस्तेमाल करके पतरस को सलाह दी ताकि वह अपने सोच-विचार और अपनी भावनाओं में फेरबदल कर सके। आप शायद सोचें कि यीशु की तरह इतने बढ़िया तरीके से सिखाना मेरे बस के बाहर है। मगर आइए ऐसे दो अनुभवों पर गौर करें जो दिखाते हैं कि तैयारी करने और यहोवा पर भरोसा रखने से हममें से हरेक जन कैसे यीशु की मिसाल पर चल सकता है।दिल में जो है, उसे बाहर निकालना
एक मसीही पिता के दो बेटे, पहली और दूसरी क्लास में पढ़ते थे। एक दिन पिता को मालूम पड़ा कि बच्चों ने टीचर की मेज़ से टॉफी उठा ली। उसने बच्चों को बिठाकर उन्हें दलीलें देकर समझाया कि उन्होंने जो किया वह गलत है। पिता ने यह सोचकर मामले को नज़रअंदाज़ नहीं किया कि आखिर बच्चे हैं और शरारत करना उनकी फितरत होती है। इसके बजाय, पिता कहता है: “उनके दिल में जो है, मैंने उसे बाहर निकालने की कोशिश की ताकि जान सकूँ कि किस बात ने उन्हें यह गलत काम करने को उकसाया।”
पिता ने उन्हें आकान की कहानी याद करने के लिए कहा, जो यहोशू की किताब के 7वें अध्याय में दी गयी है। बच्चे झट-से समझ गए कि पिता क्या कहना चाहते हैं, और उन्होंने अपनी गलती कबूल की। उनका विवेक उन्हें पहले से ही कचोट रहा था। इसलिए पिता ने उन्हें इफिसियों 4:28 पढ़ने के लिए कहा, जो कहता है: “चोरी करनेवाला फिर चोरी न करे; बरन . . . अपने हाथों से परिश्रम करे; इसलिये कि जिसे प्रयोजन हो, उसे देने को उसके पास कुछ हो।” इतना ही नहीं, पिता ने बच्चों से टॉफी खरीदवाकर टीचर को लौटाने के लिए कहा। इससे बाइबल की सलाह उनके दिलो-दिमाग में और भी अच्छी तरह बैठ गयी।
पिता आगे कहता है: “जब भी हमें बच्चों में गलत इरादे नज़र आते, तो हम उन्हें दलीलें देकर समझाते और उन गलत इरादों को जड़ से निकाल फेंकने की कोशिश करते। और उनकी जगह सही और नेक इरादे पैदा करते।” इस माता-पिता ने यीशु के उदाहरण के मुताबिक बच्चों को जो तालीम दी, उससे समय के चलते अच्छे नतीजे मिले। जब उनके दोनों बेटे बड़े हुए तो उन्हें यहोवा के साक्षियों के मुख्यालय, ब्रुकलिन बेथेल में सेवा करने के लिए बुलाया गया। एक बेटा आज 25 साल बाद भी वहीं सेवा कर रहा है।
एक और मिसाल पर गौर कीजिए कि एक मसीही ने अपनी एक बाइबल विद्यार्थी की कैसे मदद की। यह विद्यार्थी, कलीसिया की सभाओं में हाज़िर होती और प्रचार में भी हिस्सा लेती थी। उसने बपतिस्मा लेने की इच्छा भी ज़ाहिर की थी। मगर ऐसा लगता था कि उसे यहोवा के बजाय खुद पर हद-से-ज़्यादा भरोसा था। साक्षी कहती है: “वह कुँआरी थी और अकेली रहती थी, इसलिए वह खुद पर इतना ज़्यादा भरोसा रखने लगी जितना कि उसे एहसास भी नहीं था। लेकिन मुझे डर था कि कहीं उसे नर्वस ब्रेकडाउन न हो जाए या वह आध्यात्मिक रूप से गिर न जाए।”
इसलिए साक्षी ने अपनी विद्यार्थी की मदद करने की पहल की। उसने मत्ती 6:33 पर विद्यार्थी के साथ तर्क किया और उसे उकसाया कि वह ज़िंदगी में जिन बातों को अहमियत दे रही थी उनमें फेरबदल करे, राज्य को पहली जगह दे और यहोवा पर भरोसा रखे कि वह उसकी खातिर भला करेगा। साक्षी ने बेझिझक उससे पूछा: “क्या अपने बलबूते जीने की आदत कभी-कभी आपको दूसरों पर भरोसा रखना मुश्किल बना देती है, यहाँ तक कि यहोवा पर भी?” विद्यार्थी ने कबूल किया कि उसने प्रार्थना करना करीब-करीब बंद कर दिया था। फिर साक्षी ने उसे बढ़ावा दिया कि वह भजन 55:22 की सलाह को मानकर अपना पूरा बोझ यहोवा पर डाल दे, क्योंकि जैसे 1 पतरस 5:7 (NHT) हमें यकीन दिलाता है, “वह तुम्हारी चिन्ता करता है।” ये शब्द उसके दिल को छू गए। साक्षी कहती है, “यह उन चंद वाकयों में से एक था जब मैंने उसकी आँखों में आँसू देखे।”
सच्चाई को अपने अंदर काम करते रहने दीजिए
जिन्हें हम बाइबल की सच्चाई सिखाते हैं, उन्हें उन्नति करते देख हमें बेहद खुशी होती है। लेकिन अगर हम चाहते हैं कि दूसरों की मदद करने में हमारी मेहनत रंग लाए, तो हमें यहूदा 22, 23) यह ज़रूरी है कि हम सभी “डरते और कांपते हुए अपने अपने उद्धार का कार्य्य पूरा करते” जाएँ। (फिलिप्पियों 2:12) ऐसा करने का एक तरीका है, लगातार बाइबल की सच्चाई का प्रकाश अपने दिल में चमकाते रहें और देखें कि क्या हमारे अंदर ऐसे रवैए, ऐसी ख्वाहिशें और हसरतें हैं जिन्हें बदलने की ज़रूरत है।—2 पतरस 1:19.
खुद एक अच्छी मिसाल रखनी चाहिए। (मसलन, क्या कुछ समय से मसीही कामों में आपका जोश ठंडा पड़ गया है? अगर हाँ, तो क्यों? एक कारण शायद यह हो कि आप खुद पर हद-से-ज़्यादा भरोसा रख रहे हों। आप कैसे मालूम कर सकते हैं कि आपमें यह कमज़ोरी है या नहीं? हाग्गै 1:2-11 पढ़िए और ईमानदारी से इस बारे में मनन कीजिए कि यहोवा ने अपने देश वापस लौटे यहूदियों को कैसी दलीलें देकर समझाया था। फिर अपने आप से पूछिए: ‘क्या मैं आर्थिक सुरक्षा और ऐशो-आराम की चीज़ों के बारे में कुछ ज़्यादा ही चिंता पाल रहा हूँ? क्या मुझे सचमुच यहोवा पर पूरा भरोसा है कि अगर मैं आध्यात्मिक बातों को पहली जगह दूँगा तो वह मेरे परिवार की ज़रूरतें पूरी करेगा? या क्या मुझे पहले अपनी ज़िंदगी के बारे में सोचना है?’ अगर आपको अपने सोच-विचार या अपनी भावनाओं में फेरबदल करने की ज़रूरत है, तो ऐसा करने से पीछे मत हटिए। मत्ती 6:25-33; लूका 12:13-21; और 1 तीमुथियुस 6:6-12 जैसी आयतों में दी सलाह हमें रोज़मर्रा की ज़रूरतों और चीज़ों के बारे में सही नज़रिया रखने में मदद देती है, जिससे हमें लगातार यहोवा की आशीष पाने की गारंटी मिलती है।—मलाकी 3:10.
इस तरह पूरी ईमानदारी के साथ खुद की जाँच करने के लिए काफी गहराई से सोचने की ज़रूरत पड़ सकती है। जब हमारी कुछ कमज़ोरियों की तरफ हमें ध्यान दिलाया जाता है, तो शायद उन्हें मान लेना हमारे लिए बहुत मुश्किल हो। लेकिन मामला चाहे कितना ही नाज़ुक या निजी क्यों न हो, जब आप प्यार से अपने बच्चे, बाइबल विद्यार्थी या खुद की मदद करने के लिए पहल करते हैं, तो आप दरअसल दूसरे का या अपना जीवन बचाने में शुरूआती कदम उठा रहे होंगे।—गलतियों 6:1.
लेकिन तब क्या अगर आपको लगे कि आपकी कोशिश बेकार जा रही है? हार मान लेने की जल्दी मत कीजिए। असिद्ध इंसान के दिल में फेरबदल करना बड़ा नाज़ुक काम है। इसमें काफी वक्त लगता है और कभी-कभी निराशा भी हाथ लगती है। लेकिन इस काम से ढेरों आशीषें भी मिल सकती हैं।
लेख के शुरू में जिस ऐरिक का ज़िक्र किया गया, आखिरकार उसके होश ठिकाने आ गए और उसने फिर से ‘सत्य पर चलना’ शुरू कर दिया। (2 यूहन्ना 4) ऐरिक कहता है: “मैं तब जाकर यहोवा के पास लौट आया जब मुझे एहसास हुआ कि मैंने सच्चाई छोड़ने की वजह से क्या-क्या खो दिया था।” अपने मम्मी-डैडी की मदद से ऐरिक आज वफादारी से परमेश्वर की सेवा कर रहा है। पहले जब उसके मम्मी-डैडी उसे अपने दिल की जाँच करने के लिए बार-बार उकसाते थे तो उसे उनकी बात बहुत कड़वी लगती थी। मगर आज वह उनका दिल से एहसान मानता है। वह कहता है: “मेरे मम्मी-डैडी लाजवाब हैं, उन्होंने मुझे प्यार करना कभी नहीं छोड़ा।”
जिन्हें हम सिखाते हैं, उनके दिल में परमेश्वर के वचन का प्रकाश चमकाते रहना हमारी निरंतर प्रेम-कृपा का सबूत है। (भजन 141:5) आपके बच्चे और बाइबल विद्यार्थी, सचमुच नए मसीही मनुष्यत्व के गुण पैदा कर रहे हैं या नहीं, यह जानने के लिए उनके दिलों को परखते रहिए। “सत्य के वचन को ठीक रीति से काम में” लाकर, दूसरों में और खुद में सच्चाई को काम करते रहने दीजिए।—2 तीमुथियुस 2:15.
[पेज 29 पर तसवीर]
यीशु ने जो कहा, उससे पतरस की एक खामी ज़ाहिर हुई
[पेज 31 पर तसवीर]
दिल में जो है, उसे बाहर निकालने के लिए बाइबल का इस्तेमाल कीजिए