क्या आपका विश्वास आपको कदम उठाने के लिए उकसाता है?
क्या आपका विश्वास आपको कदम उठाने के लिए उकसाता है?
सूबेदार को पूरा विश्वास था कि यीशु उसके सेवक को चंगा कर सकता है, जिसे लकवा मार गया था। मगर सूबेदार यीशु को अपने घर में आने का न्यौता नहीं देता। शायद इसलिए कि वह खुद को इस लायक नहीं समझता था या फिर वह एक गैर-यहूदी था। इसके बजाय, वह कुछ यहूदी पुरनियों के ज़रिए यीशु से कहता है: “हे प्रभु मैं इस योग्य नहीं, कि तू मेरी छत के तले आए, पर केवल मुख से कह दे तो मेरा सेवक चंगा हो जाएगा।” जब यीशु ने देखा कि सूबेदार को इतना यकीन है कि वह दूर से ही सेवक को चंगा कर सकता है तब उसने पीछे चल रही भीड़ से कहा: “मैं तुम से सच कहता हूं, कि मैं ने इस्राएल में भी ऐसा विश्वास नहीं पाया।”—मत्ती 8:5-10; लूका 7:1-10.
यह उदाहरण विश्वास के एक अहम पहलू को समझने में हमारी मदद करता है। वह यह है कि सच्चा विश्वास सिर्फ बातों से नहीं बल्कि कामों से दिखाया जाता है। बाइबल लेखक याकूब इस बारे में बताता है: “विश्वास भी, यदि कर्म सहित न हो तो अपने स्वभाव में मरा हुआ है।” (याकूब 2:17) आइए इस बात की सच्चाई को और भी अच्छी तरह से समझने के लिए एक असल मिसाल पर ध्यान दें, जो दिखाती है कि विश्वास अगर मर जाए तो क्या हो सकता है।
निर्गमन 19:3-6) जी हाँ, इस्राएलियों का पवित्र ठहराया जाना यहोवा की आज्ञा मानने पर निर्भर था।
सामान्य युग पूर्व 1513 में इस्राएल जाति, व्यवस्था वाचा के ज़रिए यहोवा के साथ एक रिश्ते में बंधी। व्यवस्था के बिचवई, मूसा ने इस्राएलियों को परमेश्वर के वचन बताते हुए कहा: “यदि तुम निश्चय मेरी मानोगे, और मेरी वाचा को पालन करोगे, तो सब लोगों में से तुम . . . पवित्र जाति ठहरोगे।” (लेकिन कई सदियों बाद यहूदी, व्यवस्था के सिद्धांतों को लागू करने के बजाय व्यवस्था का अध्ययन करने पर ज़्यादा ज़ोर देने लगे। अपनी किताब मसीहा यीशु का जीवन और युग (अँग्रेज़ी) में, अलफ्रॆड इडरशाइम बताता है: “[रब्बियों]—‘दुनिया के दिग्गजों’ ने बहुत पहले ही यह तय कर दिया था कि अध्ययन करना, काम करने से ज़्यादा ज़रूरी है।”
यह सच है कि प्राचीन इस्राएलियों को आज्ञा दी गयी थी कि वे परमेश्वर की माँगों का मन लगाकर अध्ययन करें। परमेश्वर ने खुद कहा था: “ये आज्ञाएं जो मैं आज तुझ को सुनाता हूं वे तेरे मन में बनी रहें; और तू इन्हें अपने बालबच्चों को समझाकर सिखाया करना, और घर में बैठे, मार्ग पर चलते, लेटते, उठते, इनकी चर्चा किया करना।” (व्यवस्थाविवरण 6:6, 7) लेकिन क्या यहोवा ने कभी ऐसा कहा कि व्यवस्था की बातों का अध्ययन करना, उनके मुताबिक जीने से ज़्यादा ज़रूरी है? आइए देखें।
विद्वानों की तरह अध्ययन करना
यहूदी परंपरा के मुताबिक माना जाता था कि परमेश्वर खुद हर दिन तीन घंटे व्यवस्था का अध्ययन करता है, इसलिए इस्राएलियों को व्यवस्था का हद-से-ज़्यादा अध्ययन करना एकदम सही लगता था। तो आप समझ सकते हैं कि क्यों कुछ यहूदी ऐसा सोचते थे कि ‘जब परमेश्वर खुद रोज़ व्यवस्था का अध्ययन करता है, तो क्या उसके हाथ के बनाए इंसानों को इस अध्ययन में और भी तल्लीन नहीं हो जाना चाहिए?’
सामान्य युग पहली सदी तक, रब्बियों पर व्यवस्था की एक-एक बात की जाँच करने और उसका अर्थ समझाने का जुनून सवार हो गया था। इस वजह से उनकी सोच पूरी तरह बिगड़ चुकी थी। यीशु ने कहा: “शास्त्री और फरीसी . . . कहते तो हैं पर करते नहीं। वे एक ऐसे भारी बोझ को जिन को उठाना कठिन है, बान्धकर उन्हें मनुष्यों के कन्धों मत्ती 23:2-4) उन धर्म-गुरुओं ने आम इंसानों के सिर पर ढेरों कायदे-कानूनों की पोथियाँ लाद रखी थीं। लेकिन जब इन्हीं कानूनों को मानने की उनकी बारी आती, तो वे बड़ी चालाकी से उनसे बचने का कोई-न-कोई रास्ता ढूँढ़ लेते थे। इसके अलावा, गहराई से अध्ययन करनेवाले इन लोगों ने ‘व्यवस्था की गम्भीर बातों को अर्थात् न्याय, और दया, और विश्वास को छोड़ दिया था।’—मत्ती 23:16-24.
पर रखते हैं; परन्तु आप उन्हें अपनी उंगली से भी सरकाना नहीं चाहते।” (वाकई, यह कितनी अजीब बात है कि धार्मिकता के अपने स्तर कायम करने की कोशिश में, ये शास्त्री और फरीसी उसी व्यवस्था के खिलाफ जा रहे थे जिसे मानने का वे दावा करते थे! सदियों से व्यवस्था के एक-एक शब्द और उसकी छोटी-छोटी बातों पर वाद-विवाद, उन्हें परमेश्वर के करीब नहीं ला सका। इसके बजाय, इसका बुरा अंजाम हुआ—वे विश्वास से दूर हो गए। पौलुस ने भी ऐसे ही अंजाम का ज़िक्र किया था जब उसने कहा कि “अशुद्ध बकवाद”, “विरोध की बातों” और झूठे “ज्ञान” से लोग विश्वास से भटक जाएँगे। (1 तीमुथियुस 6:20, 21) व्यवस्था की बेहिसाब खोजबीन से एक और गंभीर समस्या खड़ी हुई। यह अध्ययन उनमें ऐसा विश्वास पैदा नहीं कर सका जो उन्हें सही कदम उठाने के लिए उकसाता।
दिमाग ज्ञान से भरा, मगर दिल में विश्वास नहीं
यहूदी धर्म-गुरुओं की सोच और परमेश्वर की सोच में ज़मीन-आसमान का फर्क था! वादा किए गए देश में कदम रखने के कुछ ही समय पहले मूसा ने इस्राएलियों से कहा: “जितनी बातें मैं आज तुम से चिताकर कहता हूं उन सब पर अपना अपना मन लगाओ, और उनके अर्थात् इस व्यवस्था की सारी बातों के मानने में चौकसी करने की आज्ञा अपने लड़केबालों को दो।” (व्यवस्थाविवरण 32:46) इससे साफ पता चलता है कि परमेश्वर के लोगों को सिर्फ व्यवस्था का गहरा अध्ययन ही नहीं करना था, बल्कि उसे मानना भी था।
लेकिन इस्राएलियों ने बार-बार यहोवा के साथ विश्वासघात किया। इस्राएल की संतान को दरअसल सही काम करना चाहिए था, मगर उन्होंने ‘न तो परमेश्वर का विश्वास किया, और न उसकी बात मानी।’ (व्यवस्थाविवरण 9:23; न्यायियों 2:15, 16; 2 इतिहास 24:18, 19; यिर्मयाह 25:4-7) आखिर में जब यहूदियों ने यीशु को मसीहा मानने से इनकार कर दिया, तब उन्होंने विश्वासघात का सबसे बड़ा सबूत दिया। (यूहन्ना 19:14-16) इस वजह से यहोवा ने उन्हें ठुकराकर अन्यजातियों पर ध्यान दिया।—प्रेरितों 13:46.
बेशक हमें भी इस गलत सोच से खबरदार रहना चाहिए कि भले ही हमारे दिल में विश्वास न हो, मगर हम ढेर सारा ज्ञान हासिल करके परमेश्वर की उपासना कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो हमें बाइबल का अध्ययन सिर्फ दिमाग में ज्ञान भरने के लिए नहीं करना चाहिए। इसके बजाय सही ज्ञान हमारे दिल तक पहुँचना चाहिए ताकि हमारी ज़िंदगी पर उसका अच्छा असर हो। ज़रा सोचिए, अगर हम बागवानी का अध्ययन करें मगर एक भी बीज ना बोएँ तो क्या हमारी पढ़ाई का कोई फायदा होगा? माना हम सीख लेंगे कि पेड़-पौधे कैसे लगाने हैं, लेकिन जब तक हम असल में कुछ बोएँगे नहीं, तो काटेंगे कैसे? ठीक इसी तरह, जो लोग बाइबल अध्ययन के ज़रिए परमेश्वर की माँगों के बारे में सीखते हैं, उन्हें सच्चाई के बीज को अपने दिल में जड़ पकड़ने देना चाहिए ताकि उसमें अंकुर फूटे और वह उन्हें सही कदम उठाने के लिए उकसा सके।—मत्ती 13:3-9, 19-23.
“वचन पर चलनेवाले बनो”
प्रेरित पौलुस ने कहा कि “विश्वास सुनने से” आता है। (रोमियों 10:17) यह स्वाभाविक है कि परमेश्वर के वचन सुनने के बाद ही हम उसके बेटे, यीशु मसीह पर विश्वास ज़ाहिर करते हैं, जिससे हमें हमेशा की ज़िंदगी की आशा मिलती है। लेकिन सिर्फ यह कहना काफी नहीं कि ‘मैं परमेश्वर और मसीह पर विश्वास करता हूँ।’ कुछ और भी करने की ज़रूरत है।
यीशु ने अपने चेलों को ऐसा विश्वास पैदा करने के लिए उकसाया जो उन्हें कदम उठाने को प्रेरित करता। उसने कहा: “मेरे पिता की महिमा इसी से होती है, कि तुम बहुत सा फल लाओ, तब ही तुम मेरे चेले ठहरोगे।” (यूहन्ना 15:8) बाद में, यीशु के सौतेले भाई याकूब ने लिखा: “वचन पर चलनेवाले बनो, और केवल सुननेवाले ही नहीं।” (याकूब 1:22) हम वचन पर चलनेवाले कैसे बन सकते हैं? यीशु ने अपनी बातों और मिसाल से दिखाया कि परमेश्वर को खुश करने के लिए हमें क्या करने की ज़रूरत है।
यूहन्ना 17:4-8) किन तरीकों से? कई लोग शायद यीशु के चमत्कारों को याद करें कि उसने कैसे बीमारों और अपाहिजों को चंगा किया था। मगर सुसमाचार की किताब मत्ती, एक सबसे अहम तरीका बताती है: “यीशु सब नगरों और गांवों में फिरता रहा और उन की सभाओं में उपदेश करता, और राज्य का सुसमाचार प्रचार करता [रहा]।” यह ध्यान देने लायक बात है कि यीशु ने सिर्फ अपने दोस्तों, जान-पहचानवालों और अपने इलाके में रहनेवालों को ही मौका मिलने पर गवाही नहीं दी। इसके बजाय, उसने “सारे गलील” के लोगों को प्रचार करने के लिए जी-तोड़ मेहनत की और हर मुमकिन तरीका अपनाया।—मत्ती 4:23, 24; 9:35.
यीशु जब धरती पर था, तब उसने राज्य के काम को बढ़ाने और अपने पिता का नाम रोशन करने में कड़ी मेहनत की। (यीशु ने अपने शिष्यों को भी चेला बनाने के काम में हिस्सा लेने की आज्ञा दी। दरअसल, वह खुद उनके लिए एक बढ़िया आदर्श था। (1 पतरस 2:21) यीशु ने अपने वफादार चेलों से कहा: “इसलिये तुम जाकर सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ और उन्हें पिता और पुत्र और पवित्रात्मा के नाम से बपतिस्मा दो। और उन्हें सब बातें जो मैं ने तुम्हें आज्ञा दी है, मानना सिखाओ।”—मत्ती 28:19, 20.
इसमें कोई शक नहीं कि प्रचार करना एक बड़ी चुनौती है। खुद यीशु ने कहा था: “देखो मैं तुम्हें भेड़ों की नाईं भेड़ियों के बीच में भेजता हूं।” (लूका 10:3) जब हम विरोध का सामना करते हैं, तो यह सोचकर प्रचार करने से पीछे हटना स्वाभाविक है कि इस काम से हम बेवजह दुःख या चिंता में पड़ सकते हैं। ऐसा हकीकत में हुआ भी था। जिस रात यीशु को गिरफ्तार किया गया, उस रात प्रेरित डर के मारे भाग गए। बाद में, उसी रात पतरस ने तीन बार यीशु को पहचानने से इनकार कर दिया।—मत्ती 26:56, 69-75.
इतना ही नहीं, आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि खुद प्रेरित पौलुस ने भी कहा कि उसके लिए सुसमाचार सुनाना इतना आसान नहीं था। उसने थिस्सलुनीकियों की कलीसिया को लिखा: “हमारे परमेश्वर ने हमें ऐसा हियाव दिया, कि हम परमेश्वर का सुसमाचार भारी विरोधों के होते हुए भी तुम्हें सुनाएं।”—1 थिस्सलुनीकियों 2:1, 2.
पौलुस और उसके साथी प्रेरितों ने दूसरों को परमेश्वर के राज्य के बारे में बताने के डर पर काबू पाया, और आप भी ऐसा कर सकते हैं। मगर कैसे? सबसे ज़रूरी है, यहोवा पर पूरा भरोसा रखना। अगर हम यहोवा पर पूरा विश्वास रखेंगे, तो यह हमें कदम उठाने के लिए उकसाएगा और हम यहोवा की इच्छा पूरी कर पाएँगे।—प्रेरितों 4:17-20; 5:18, 27-29.
आपको अपने कामों का प्रतिफल ज़रूर मिलेगा
यहोवा की सेवा में हम जो मेहनत कर रहे हैं, वह उससे अच्छी तरह वाकिफ है। मसलन, वह जानता है कि जब हम बीमार या थके-हारे होते हैं तो कैसी भावनाएँ हमें आ घेरती हैं। वह देख सकता है कि कैसे खुद पर से ही हमारा भरोसा उठने लगता है। जब पैसों की तंगी की वजह से हम चिंता में डूब जाते हैं, या सेहत हमारा साथ नहीं देती, या फिर हम हताश हो जाते हैं तो यहोवा को हमारे हालात की पूरी खबर रहती है।—2 इतिहास 16:9; 1 पतरस 3:12.
असिद्ध होने और मुश्किलों का सामना करने के बावजूद जब हमारा विश्वास हमें कदम उठाने के लिए उकसाता है, तो यह देखकर यहोवा को कितनी खुशी होती होगी! वफादार जनों के लिए यहोवा का कोमल स्नेह एक ऐसी भावना नहीं जो वह सिर्फ अपने दिल में महसूस करता है, बल्कि उसने एक वादे के ज़रिए इसे ज़ाहिर भी किया है। प्रेरित पौलुस ने परमेश्वर की प्रेरणा से लिखा: “परमेश्वर अन्यायी नहीं, कि तुम्हारे काम, और उस प्रेम को भूल जाए, जो तुम ने उसके नाम के लिये इस रीति से दिखाया, कि पवित्र लोगों की सेवा की, और कर भी रहे हो।”—इब्रानियों 6:10.
बाइबल कहती है कि यहोवा एक “सच्चा ईश्वर है, उस में कुटिलता नहीं” और वह “अपने खोजनेवालों को प्रतिफल देता है।” (व्यवस्थाविवरण 32:4; इब्रानियों 11:6) आप इन बातों पर पूरा भरोसा रख सकते हैं। मिसाल के तौर पर, अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य की एक महिला, बीते कल को याद करते हुए कहती है: “मेरे पिताजी ने अपना परिवार शुरू करने से पहले दस साल पूरे समय की सेवा की थी। इस दौरान यहोवा ने उनकी जिस तरह से देखभाल की, उसके किस्से सुनना मुझे बहुत अच्छा लगता था। कई बार पिताजी की जेब में सिर्फ एक डॉलर रहता था और वे उससे गाड़ी में पेट्रोल भरवाकर प्रचार में चले जाते थे। और हैरानी की बात है कि जब वे घर लौटते तो अकसर दरवाज़े पर खाने का कुछ-न-कुछ सामान रखा रहता था।”
“दया का पिता, और सब प्रकार की शान्ति का परमेश्वर” हमारी बुनियादी ज़रूरतों के अलावा, आध्यात्मिक ज़रूरतों को भी पूरा करता है। साथ ही, वह हमें अपनी भावनाओं से उबरने में भी मदद करता है। (2 कुरिन्थियों 1:3) एक साक्षी जिसने सालों से कई तकलीफों को झेला है, कहती है: “यहोवा पर निर्भर रहने से हम एक किस्म का सुकून महसूस करते हैं। तकलीफें हमें यहोवा पर भरोसा रखने का मौका देती हैं, और हम देख पाते हैं कि यहोवा किस तरह हमारी मदद करता है।” आपको जो चिंताएँ खाए जा रही हैं, आप उसके बारे में “प्रार्थना के सुननेवाले” को नम्रता से बता सकते हैं और यकीन रख सकते हैं कि वह उन पर ज़रूर ध्यान देगा।—भजन 65:2.
आध्यात्मिक कटनी काटनेवालों को बेशुमार आशीषें और प्रतिफल मिलते हैं। (मत्ती 9:37, 38) प्रचार में हिस्सा लेने से कई लोगों की सेहत पहले से बेहतर हो गयी है। ऐसा आपके साथ भी हो सकता है। इससे बढ़कर, दूसरों को गवाही देने से परमेश्वर के साथ हमारा रिश्ता और भी मज़बूत होता है।—याकूब 2:23.
अच्छे काम करते रहिए
यहोवा के किसी सेवक के लिए ऐसा सोचना सरासर गलत होगा कि वह उन लोगों से नाराज़ रहता है जो कमज़ोरी या बुढ़ापे की वजह से उतनी सेवा नहीं कर पाते जितना वे करने की इच्छा रखते हैं। यह बात उन पर भी लागू होती है जो अपनी खराब सेहत, परिवार की ज़िम्मेदारी या दूसरे हालात की वजह से ज़्यादा नहीं कर पाते।
याद कीजिए कि जब प्रेरित पौलुस अपनी कमज़ोरी या किसी बाधा की वजह से सेवा में ज़्यादा नहीं कर पा रहा था, तब उसने “प्रभु से तीन बार बिनती की, कि मुझ से यह दूर हो जाए।” अगर पौलुस की कमज़ोरी या बाधा दूर कर दी जाती तो वह यहोवा की सेवा में और भी ज़्यादा कर सकता था, मगर परमेश्वर ने ऐसा नहीं किया। इसके बजाय, परमेश्वर ने उससे कहा: “मेरा अनुग्रह तेरे लिये बहुत है; क्योंकि मेरी सामर्थ निर्बलता में सिद्ध होती है।” (2 कुरिन्थियों 12:7-10) उसी तरह अगर आप किसी मुश्किल हालात से गुज़रते हुए भी यहोवा के कामों को बढ़ाने के लिए मेहनत कर रहे हैं, तो इस बात का यकीन रखिए कि स्वर्ग में रहनेवाला आपका पिता आपके हरेक काम की बहुत कदर करता है।—इब्रानियों 13:15, 16.
हमारा प्यारा सिरजनहार हमसे हद-से-ज़्यादा की माँग नहीं करता। वह बस यह चाहता है कि हमारा विश्वास ऐसा हो, जो हमें सही कदम उठाने के लिए उकसाए।
[पेज 26 पर तसवीर]
क्या व्यवस्था का सिर्फ अध्ययन करना काफी था?
[पेज 29 पर तसवीरें]
हमें अपना विश्वास, कामों से दिखाने की ज़रूरत है