“तुम क्या हो, इसका सबूत देते रहो”
“तुम क्या हो, इसका सबूत देते रहो”
“अपने आप को परखते रहो कि विश्वास में हो या नहीं, तुम क्या हो, इसका सबूत देते रहो।”—2 कुरिन्थियों 13:5, NW.
1, 2. (क) विश्वासों के बारे में हम किस बात को सही मानें, किसे गलत इस उलझन का हम पर क्या असर हो सकता है? (ख) पहली सदी में कुरिन्थ की कलीसिया में क्या हो रहा था जिसकी वजह से लोग उलझन में थे?
एक मुसाफिर चलते-चलते एक दोराहे पर आता है। उसे सही-सही नहीं मालूम कि दोनों रास्तों में से कौन-सा उसे अपनी मंज़िल तक पहुँचाएगा। वह आने-जानेवालों से पूछता है, मगर हर कोई उसे अलग-अलग जवाब देता है। अब वह बड़ी उलझन में है कि किस रास्ते पर जाए, इसलिए वह वहीं रुक जाता है और आगे नहीं बढ़ पाता। ऐसी ही उलझन में हम पड़ जाते हैं जब हमें पता नहीं होता कि हमें क्या विश्वास करना चाहिए और क्या नहीं। इस कशमकश की वजह से हम सही फैसले नहीं कर पाते और यह तय नहीं कर पाते कि किस राह पर जाना सही होगा।
2 पहली सदी में, यूनान के कुरिन्थ शहर की मसीही कलीसिया के कुछ लोगों का हाल भी इस मुसाफिर जैसा था। वे उलझन में थे कि कौन सही है, कौन गलत। क्योंकि उनकी कलीसिया में कुछ लोग ऐसे थे जो ‘बड़े से बड़े प्रेरित’ होने का दावा करते थे। और ये लोग प्रेरित पौलुस के अधिकार पर सवाल उठा रहे थे और कहते थे: “उस की पत्रियां तो गम्भीर और प्रभावशाली हैं; परन्तु जब देखते हैं, तो वह देह का निर्बल और वक्तव्य में हल्का जान पड़ता है।” (2 कुरिन्थियों 10:7-12; 11:5, 6) ऐसी बातें सुनकर कलीसिया में कुछ लोग उलझन में पड़ गए होंगे कि किसकी बात को सही मानें और किस राह पर चलें।
3, 4. पौलुस ने कुरिन्थियों को जो सलाह दी, उस पर हमें भी क्यों ध्यान देना चाहिए?
3 प्रेरित पौलुस सा.यु. 50 में कुरिन्थ गया था और वहाँ उसने एक कलीसिया शुरू की थी। वह “उन में परमेश्वर का वचन सिखाते हुए डेढ़ वर्ष तक रहा।” दरअसल, “बहुत से कुरिन्थी सुनकर विश्वास लाए और बपतिस्मा लिया।” (प्रेरितों 18:5-11) पौलुस को कुरिन्थ के संगी विश्वासियों की आध्यात्मिक सलामती की बहुत फिक्र थी। यही नहीं, खुद कुरिन्थियों ने कुछ मामलों पर पौलुस से सलाह पाने के लिए उसे लिखा भी था। (1 कुरिन्थियों 7:1) ऐसे में, पौलुस ने उन्हें बहुत ही बढ़िया सलाह दी जो उनके बहुत काम आयी।
4 पौलुस ने लिखा: “अपने आप को परखते रहो कि विश्वास में हो या नहीं, तुम क्या हो, इसका सबूत देते रहो।” (2 कुरिन्थियों 13:5, NW) यह सलाह कुरिन्थ के भाइयों को इस उलझन से बचाती कि किस राह पर चलना उनके लिए सही है। इसी तरह, आज यह सलाह हमें भी ऐसी उलझन से बचा सकती है। तो फिर, पौलुस की इस सलाह पर हम अमल कैसे कर सकते हैं? हम कैसे परख सकते हैं कि हम विश्वास में हैं या नहीं? और हम असल में जो हैं, उसका सबूत देने के लिए हमें क्या करना होगा?
“अपने आप को परखते रहो कि विश्वास में हो या नहीं”
5, 6. हम विश्वास में हैं या नहीं यह परखने के लिए हमारे पास कौन-सी कसौटी है, और यह कसौटी क्यों सबसे बेहतरीन है?
5 आम तौर पर, किसी चीज़ या किसी शख्स को परखा जाता है और इन्हें परखने के लिए कोई कसौटी या मापदंड की ज़रूरत होती है। हमें अपने विश्वास की यानी जिन शिक्षाओं को हम मानते हैं उनकी परख नहीं करनी, बल्कि हमें खुद अपनी परीक्षा करनी है। इस परीक्षा के लिए हमारे पास एक उम्दा कसौटी है। भजनहार दाऊद के लिखे एक गीत में कहा गया है: “यहोवा की व्यवस्था खरी है, वह प्राण को बहाल कर देती है; यहोवा के नियम विश्वासयोग्य हैं, साधारण लोगों को बुद्धिमान बना देते हैं; यहोवा के उपदेश सिद्ध हैं, हृदय को आनन्दित कर देते हैं; यहोवा की आज्ञा निर्मल है, वह आंखों में ज्योति ले आती है।” (भजन 19:7, 8) बाइबल में यहोवा की खरी व्यवस्था, सिद्ध उपदेश, विश्वासयोग्य नियम और निर्मल आज्ञाएँ पायी जाती हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि बाइबल में पाया जानेवाला संदेश ही वह बेहतरीन कसौटी है जिस पर कसकर हमें अपनी जाँच करनी चाहिए।
6 बाइबल के इस ईश्वर-प्रेरित संदेश के बारे में प्रेरित पौलुस कहता है: “परमेश्वर का वचन जीवित, और प्रबल, और हर एक दोधारी तलवार से भी बहुत चोखा है, और जीव, और आत्मा को, और गांठ गांठ, और गूदे गूदे को अलग करके, वार पार छेदता है; और मन की भावनाओं और विचारों को जांचता है।” (इब्रानियों 4:12) जी हाँ, परमेश्वर का वचन हमारे मन को, हमारे अंदर के इंसान को जाँच सकता है। इंसान के अंदर गहराई तक जाकर असर करनेवाला यह ज़बरदस्त संदेश, कैसे हम पर भी असर कर सकता है? भजनहार साफ शब्दों में बताता है कि हम परमेश्वर के वचन को अपने दिल की जाँच कैसे करने दे सकते हैं? उसने गीत में कहा: “क्या ही धन्य है वह पुरुष जो . . . यहोवा की व्यवस्था से प्रसन्न रहता; और उसकी व्यवस्था पर रात दिन ध्यान करता रहता है।” (भजन 1:1, 2) “यहोवा की व्यवस्था” परमेश्वर के लिखित वचन बाइबल में पायी जाती है। यहोवा का वचन पढ़ने से हमें खुशी मिलनी चाहिए। जी हाँ, हमें इसे पढ़ने के लिए वक्त तय करना चाहिए और इस पर रात-दिन ध्यान लगाए रहना चाहिए या मनन करना चाहिए। ऐसा करते वक्त परमेश्वर के वचन में जो लिखा है, उसके हिसाब से हमें खुद की जाँच-परख करनी चाहिए।
7. हम विश्वास में हैं या नहीं, यह परखने का सबसे खास और पहला तरीका क्या है?
7 हम विश्वास में हैं या नहीं, यह जाँचने का सबसे खास और पहला तरीका है कि हम परमेश्वर का वचन पढ़ें, उस पर मनन करें और यह जाँचें कि हमने जो सीखा है, क्या उसके मुताबिक चल रहे हैं। हमारे लिए खुशी की बात यह है कि परमेश्वर का वचन समझने के लिए हमारे पास काफी मदद मौजूद है।
8. “विश्वासयोग्य और बुद्धिमान दास” के साहित्य की मदद से हमें कैसे यह परखने में मदद मिलती है कि हम विश्वास में हैं या नहीं?
8 यहोवा ने “विश्वासयोग्य और बुद्धिमान दास” की तरफ से आनेवाले साहित्य से हमें अपनी शिक्षाएँ सिखायी और उपदेश दिया है। (मत्ती 24:45) एक मिसाल लीजिए। यहोवा के करीब आओ * किताब के ज़्यादातर अध्यायों के आखिर में एक बक्स दिया है, जिसका शीर्षक है “मनन के लिए सवाल।” इस किताब का यह पहलू हमें अपनी जाँच करने का क्या ही बढ़िया मौके देता है! हमारी प्रहरीदुर्ग और सजग होइए! पत्रिकाओं में भी ऐसे ढेरों विषयों पर चर्चा की जाती है जिनकी मदद से हम यह परख सकते हैं कि हम विश्वास में हैं या नहीं। प्रहरीदुर्ग के हाल के अंकों में नीतिवचन की किताब पर आए लेखों के बारे में एक मसीही बहन ने कहा: “मुझे ये लेख बहुत ही व्यावहारिक लगते हैं। इनकी मदद से मैं यह जाँच पाती हूँ कि मेरी बोली, व्यवहार और रवैया वाकई यहोवा के धर्मी स्तरों के मुताबिक है या नहीं।”
9, 10. यहोवा के किन इंतज़ामों की मदद से हम खुद की जाँच-परख करते रह सकते हैं कि हम विश्वास में हैं या नहीं?
9 हमें कलीसिया की सभाओं, सम्मेलनों और अधिवेशनों के ज़रिए भी ढेर सारी हिदायतें और सलाह मिलती है। ये सारे आध्यात्मिक इंतज़ाम यहोवा ने उन लोगों के लिए किए हैं जिनके बारे में यशायाह ने भविष्यवाणी की थी: “अन्त के दिनों में ऐसा होगा कि यहोवा के भवन का पर्वत सब पहाड़ों पर दृढ़ किया जाएगा, और सब पहाड़ियों से अधिक ऊंचा किया जाएगा; और हर जाति के लोग धारा की नाईं उसकी ओर चलेंगे। और बहुत देशों के लोग आएंगे, और आपस में कहेंगे: आओ, हम यहोवा के पर्वत पर चढ़कर, . . . जाएं; तब वह हमको अपने मार्ग सिखाएगा, और हम उसके पथों पर चलेंगे।” (यशायाह 2:2, 3) यहोवा के मार्गों के बारे में ऐसी शिक्षा पाना वाकई बहुत बड़ी आशीष है!
10 अपनी जाँच-परख करने का एक और तरीका है, आध्यात्मिक काबिलीयत रखनेवाले भाइयों की सलाह पर ध्यान देना। इन भाइयों में मसीही प्राचीन भी शामिल हैं। बाइबल उनके बारे में कहती है: “हे भाइयो, यदि कोई मनुष्य किसी अपराध में पकड़ा भी जाए, तो तुम जो आत्मिक हो, नम्रता के साथ ऐसे को संभालो, और अपनी भी चौकसी रखो, कि तुम भी परीक्षा में न पड़ो।” (गलतियों ) हमें सँभालने के लिए किए गए इस इंतज़ाम के लिए हम कितने एहसानमंद हो सकते हैं! 6:1
11. हम विश्वास में हैं या नहीं, यह परखने के लिए क्या ज़रूरी है?
11 हमारा साहित्य, मसीही सभाएँ और प्राचीन—ये सारे लाजवाब तोहफे हमें यहोवा की तरफ से मिले हैं। इनकी मदद से हम खुद की जाँच कर सकते हैं कि हम विश्वास में हैं या नहीं। इसके लिए हमें अपने अंदर देखना होगा। इसलिए जब हम साहित्य पढ़ते हैं या बाइबल से हमें कोई सलाह देता है, तो हमें खुद से पूछना चाहिए: ‘क्या मैं ऐसा हूँ? क्या मैं यह करता हूँ? क्या मैं तमाम मसीही शिक्षाओं को मानता हूँ?’ परमेश्वर के इन इंतज़ामों से मिलनेवाली सलाह और जानकारी के बारे में हम कैसा महसूस करते हैं, उससे भी हमारी आध्यात्मिक हालत पर काफी फर्क पड़ेगा। बाइबल कहती है: “शारीरिक मनुष्य परमेश्वर के आत्मा की बातें ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वे उस की दृष्टि में मूर्खता की बातें हैं, . . . आत्मिक जन सब कुछ जांचता है।” (1 कुरिन्थियों 2:14, 15) हम अपने साहित्य, अपनी सभाओं और प्राचीनों से जो सीखते-सुनते हैं, उस तमाम जानकारी के लिए क्या हमें एहसानमंद नहीं होना चाहिए और इसे यहोवा की तरफ से आनेवाली सलाह मानकर कबूल नहीं करना चाहिए?
“तुम क्या हो, इसका सबूत देते रहो”
12. हम क्या हैं, इसका सबूत देने के लिए हमें क्या करना होगा?
12 हम क्या हैं, इसका सबूत देने के लिए हमें अपनी असली हालत को पहचानना होगा। हम सच्चाई में तो हैं, मगर क्या हम सच्चाई के मुताबिक पूरी तरह जी रहे हैं? हम क्या हैं इसका सबूत देने के लिए हमें यह दिखाना होगा कि हम प्रौढ़ मसीही हैं और परमेश्वर के सभी इंतज़ामों की दिल से कदर करते हैं।
13. इब्रानियों 5:14 के मुताबिक, किस बात से हमारे प्रौढ़ होने का सबूत मिलता है?
13 हम प्रौढ़ मसीही हैं, इसका कौन-सा सबूत हम अपने आपमें ढूँढ़ सकते हैं? प्रेरित पौलुस ने लिखा: “अन्न सयानों से लिये है, जिन के ज्ञानेन्द्रिय अभ्यास करते करते, भले बुरे में भेद करने के लिये पक्के हो गए हैं।” (इब्रानियों 5:14) जब हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों को पक्का करते हैं तब हम प्रौढ़ होने का सबूत देते हैं। जैसे एक खिलाड़ी अपने खेल में माहिर होने के लिए शरीर की कुछ मांस-पेशियों की कसरत करके इन्हें मज़बूत करता है, उसी तरह हमारी ज्ञानेन्द्रियों को बाइबल के सिद्धांतों पर अमल करने की तालीम देकर पक्का करना ज़रूरी है।
14, 15. हमें परमेश्वर के वचन की गूढ़ बातों का अध्ययन करने के लिए क्यों जी-जान से मेहनत करनी चाहिए?
14 लेकिन ज्ञानेन्द्रियों को पक्का करने से पहले ज़रूरी है कि हम ज्ञान हासिल करें। इसके लिए, दिल लगाकर निजी अध्ययन करना ज़रूरी है। जब हम बिना नागा निजी अध्ययन करेंगे, और खासकर परमेश्वर के वचन की गूढ़ बातों का अध्ययन करेंगे, तो हमारी ज्ञानेन्द्रियों का धीरे-धीरे विकास होता जाएगा। बरसों से, प्रहरीदुर्ग पत्रिका कई गूढ़ विषयों पर चर्चा करती आ रही है। जब हम ऐसे लेख देखते हैं जिनमें गूढ़ सच्चाइयों पर चर्चा की गयी है, तब हम क्या करते हैं? क्या हम इन लेखों को सिर्फ इसलिए नहीं पढ़ते, क्योंकि इनमें कुछ ‘बातें ऐसी हैं जिन्हें समझना कठिन है’? (2 पतरस 3:16) इसके उलट, हम इन लेखों में लिखी एक-एक बात को समझने के लिए और भी ज़्यादा कोशिश करते हैं।—इफिसियों 3:18.
15 लेकिन अगर हमें निजी अध्ययन करना मुश्किल लगता है, तब क्या? यह बेहद ज़रूरी है कि हम निजी अध्ययन करने की अपने अंदर ख्वाहिश पैदा करें और अध्ययन का पूरा मज़ा लेना सीखें। * (1 पतरस 2:2) प्रौढ़ता हासिल करने के लिए ज़रूरी है कि हम परमेश्वर के वचन का अन्न खाएँ यानी गूढ़ सच्चाइयों के बारे में सीखकर उनसे ताकत पाएँ। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे, तो हमारी ज्ञानेन्द्रियों का पूरी तरह विकास नहीं होगा, न ही ये पक्की होंगी। और अगर हमारी ज्ञानेन्द्रियों का विकास हो भी गया, तब भी प्रौढ़ मसीही होने का सबूत देने के लिए यह काफी नहीं है। हमारे लिए यह ज़रूरी है कि निजी अध्ययन से हमने जो सीखा है, अपनी रोज़ की ज़िंदगी में उस पर चलें भी।
16, 17. शिष्य याकूब ने “वचन पर चलनेवाले” बनने के बारे में क्या सलाह दी?
16 हम क्या हैं, इसका सबूत हमारे विश्वास के कामों से भी देखा जा सकता है। इन कामों से हम दिखाते हैं कि सच्चाई के लिए हमारे दिल में गहरी कदर है। अपनी जाँच-परख करने के इस पहलू के बारे में शिष्य याकूब ने एक ज़बरदस्त दृष्टांत दिया। उसने कहा: “वचन पर चलनेवाले बनो, और केवल सुननेवाले ही नहीं जो अपने आप को धोखा देते हैं। क्योंकि जो कोई वचन का सुननेवाला हो, और उस पर चलनेवाला न हो, तो वह उस मनुष्य के समान है जो अपना स्वाभाविक मुंह दर्पण में देखता है। इसलिये कि वह अपने आप को देखकर चला जाता, और तुरन्त भूल जाता है कि मैं कैसा था। पर जो व्यक्ति स्वतंत्रता की सिद्ध व्यवस्था पर ध्यान करता रहता है, वह अपने काम में इसलिये आशीष पाएगा कि सुनकर भूलता नहीं, पर वैसा ही काम करता है।”—याकूब 1:22-25.
17 याकूब असल में कह रहा है: ‘परमेश्वर के वचन के आइने में झाँककर देखो और अपनी जाँच करो। ऐसा करते रहो, और परमेश्वर के वचन से जो सीखते हो उसकी मदद से खुद को जाँचते रहो। और फिर, जो खामी नज़र आती है उसे फौरन भुला मत दो। जहाँ ज़रूरत है, वहाँ सुधार करो।’ इस सलाह पर चलना कभी-कभी काफी मुश्किल हो सकता है।
18. याकूब की सलाह पर चलना क्यों मुश्किल हो सकता है?
18 मिसाल के लिए, राज्य का प्रचार करने की माँग को ही ले लीजिए। पौलुस ने लिखा: “धार्मिकता के लिये मन से विश्वास किया जाता है, और उद्धार के लिये मुंह से अंगीकार किया जाता है।” (रोमियों 10:10) उद्धार के लिए मुँह से अंगीकार करने यानी प्रचार के लायक बनने के लिए हमें बहुत सारे बदलाव करने की ज़रूरत होती है। हममें से ज़्यादातर लोगों के लिए प्रचार का काम करना वैसे ही आसान नहीं होता। उस पर पूरे जोश से यह काम करने और इसे अपनी ज़िंदगी में पहला स्थान देने के लिए हमें अपनी ज़िंदगी में और भी ज़्यादा बदलाव और त्याग करने की ज़रूरत होती है। (मत्ती 6:33) लेकिन जब एक बार हम परमेश्वर की तरफ से मिला यह काम करनेवाले बन जाते हैं, तो हमें खुशी हासिल होने लगती है क्योंकि इससे यहोवा की महिमा होती है। तो अब सवाल उठता है, क्या हम पूरे जोश से राज्य का प्रचार कर रहे हैं?
19. हमारे विश्वास के कामों में क्या शामिल होना चाहिए?
19 हमारे विश्वास के कामों में कैसे-कैसे काम शामिल होने चाहिए? पौलुस कहता है: “जो बातें तुम ने मुझ से सीखीं, और ग्रहण की, और सुनीं, और मुझ में देखीं, उन्हीं का पालन किया करो, तब परमेश्वर जो शान्ति का सोता है तुम्हारे साथ रहेगा।” (फिलिप्पियों 4:9) हम क्या हैं, उसका सबूत देने के लिए जो बातें हमने सीखीं, कबूल कीं, सुनीं और देखीं उन सबका पालन करना ज़रूरी है। जी हाँ, मसीही समर्पण के हिसाब से और यीशु के चेले बनकर जीने के लिए जो-जो ज़रूरी है वह सब करना ज़रूरी है। यहोवा, यशायाह नबी के ज़रिए हमें हिदायत देता है: “मार्ग यही है, इसी पर चलो।”—यशायाह 30:21.
20. किस तरह के इंसान कलीसिया के लिए एक बड़ी आशीष होते हैं?
20 ऐसे स्त्री-पुरुष जो परमेश्वर के वचन का दिल लगाकर अध्ययन करते हैं, पूरे जोश से सुसमाचार प्रचार करते हैं, अपनी खराई पर अटल बने रहते हैं और पूरी वफादारी से राज्य की हिमायत करते हैं, वे कलीसिया के लिए एक बड़ी आशीष हैं। उनकी मौजूदगी से कलीसिया मज़बूत होती है। ऐसे लोग दूसरों की बड़ी मदद करते हैं, क्योंकि कितने ही नए लोग ऐसे हैं जिन्हें वे सँभालते हैं और उनकी हिम्मत बँधाते हैं। हम भी जब पौलुस की इस सलाह पर दिल से अमल करते हैं कि ‘खुद को परखते रहें कि विश्वास में हैं या नहीं, हम क्या हैं, उसका सबूत देते रहें,’ तो हमारा दूसरों की ज़िंदगी पर अच्छा असर होता है।
परमेश्वर की इच्छा पूरी करने से खुशी पाना
21, 22. हम परमेश्वर की इच्छा पूरी करने से कैसे खुशी पा सकते हैं?
21 प्राचीन इस्राएल के राजा दाऊद ने गीत गाया: “हे मेरे परमेश्वर मैं तेरी इच्छा पूरी करने से प्रसन्न हूं; और तेरी व्यवस्था मेरे अन्त:करण में बसी है।” (भजन 40:8) परमेश्वर की इच्छा पूरी करने से दाऊद को सुख मिलता था। क्यों? क्योंकि यहोवा की व्यवस्था दाऊद के दिल में थी। दाऊद इस उलझन में नहीं था कि उसे किस राह पर चलना चाहिए।
22 उसी तरह, जब परमेश्वर की व्यवस्था हमारे दिल में होगी, तो हमें भी अच्छी तरह पता होगा कि हमें किस राह पर चलना चाहिए। और परमेश्वर की मरज़ी पूरी करने में हमें खुशी मिलेगी। इसलिए, आइए हम जी-जान लगाकर ‘यत्न करें’ और यहोवा की सेवा दिल से करें।—लूका 13:24.
[फुटनोट]
^ इसे यहोवा के साक्षियों ने प्रकाशित किया है।
^ अध्ययन कैसे करना चाहिए, इस बारे में बढ़िया सलाह पाने के लिए परमेश्वर की सेवा स्कूल से फायदा उठाइए किताब के पेज 27-32 देखिए। इसे यहोवा के साक्षियों ने प्रकाशित किया है।
क्या आपको याद है?
• हम विश्वास में हैं या नहीं, यह हम कैसे जाँच सकते हैं?
• हम क्या हैं, उसका सबूत देने में क्या शामिल है?
• हम प्रौढ़ मसीही हैं, इसका क्या सबूत दे सकते हैं?
• हम क्या हैं यह जाँचने में, हमारे विश्वास के काम कैसे हमारी मदद करते हैं?
[अध्ययन के लिए सवाल]
[पेज 23 पर तसवीर]
क्या आप जानते हैं कि आप विश्वास में हैं या नहीं, यह परखने का सबसे खास और पहला तरीका क्या है?
[पेज 24 पर तसवीर]
हम मसीही प्रौढ़ता का सबूत देते हैं, जब हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों का इस्तेमाल करते हैं
[पेज 25 पर तसवीरें]
हम क्या हैं, हम उसका सबूत देते हैं जब हम ‘सुनकर भूलनेवाले नहीं, बल्कि वचन के माननेवाले’ बनते हैं