यीशु की बातों के मुताबिक ढालिए अपनी सोच
यीशु की बातों के मुताबिक ढालिए अपनी सोच
“जिसे परमेश्वर ने भेजा है, वह परमेश्वर की बातें कहता है।”—यूह. 3:34.
1, 2. पहाड़ी उपदेश के बारे में क्या कहा जा सकता है? हम कैसे कह सकते हैं कि यीशु ने जो उपदेश दिया, वह ‘परमेश्वर की बातों’ पर आधारित था?
स्टार ऑफ अफ्रीका। 530 कैरट का यह हीरा दुनिया के सबसे बड़े हीरों में से एक है। यह वाकई एक अनमोल रत्न है! मगर एक खज़ाना इससे भी बेशकीमती है। जानते हैं वह क्या है? यीशु का पहाड़ी उपदेश। इस उपदेश में कही उसकी एक-एक बात अनमोल रत्न के जैसी है। और क्यों न हो, आखिर यीशु ने वही बातें बतायीं जो उसने परमेश्वर से सीखी थीं। यीशु के बारे में बाइबल कहती है: “जिसे परमेश्वर ने भेजा है, वह परमेश्वर की बातें कहता है।”—यूह. 3:34-36.
2 हम कैसे कह सकते हैं कि यीशु ने जो सिखाया, वह “परमेश्वर की बातें” थी? पहाड़ी उपदेश पर गौर करें तो इसे देने में यीशु को करीब आधा घंटा लगा होगा, लेकिन इस दौरान उसने इब्रानी शास्त्र की आठ किताबों से 21 हवाले दिए। इसलिए यह कहना सही होगा कि उसने जो भी सिखाया, वह ‘परमेश्वर की बातों’ पर आधारित था। आइए हम इस बेमिसाल उपदेश की कुछ बेशकीमती बातों पर गौर करें और सीखें कि हम कैसे उन्हें अपनी ज़िंदगी में उतार सकते हैं।
“पहिले अपने भाई से मेल मिलाप कर”
3. क्रोध करने के बुरे अंजाम के बारे में खबरदार करने के बाद यीशु ने क्या सलाह दी?
3 मेल और आनंद परमेश्वर की पवित्र शक्ति के फल हैं। हम मसीहियों को यह शक्ति मिली है इसलिए हम खुश रहते हैं और शांति कायम करते हैं। (गल. 5:22, 23) यीशु नहीं चाहता था कि उसके चेले अपनी शांति और खुशी खो दें। इसलिए उसने उन्हें खबरदार किया कि लंबे समय तक क्रोध पालकर रखने का अंजाम मौत हो सकता है। (मत्ती 5:21, 22 पढ़िए।) फिर उसने कहा: “यदि तू अपनी भेंट बेदी पर लाए, और वहां तू स्मरण करे, कि मेरे भाई के मन में मेरी ओर से कुछ विरोध है, तो अपनी भेंट वहीं बेदी के साम्हने छोड़ दे। और जाकर पहिले अपने भाई से मेल मिलाप कर; तब आकर अपनी भेंट चढ़ा।”—मत्ती 5:23, 24.
4, 5. (क) मत्ती 5:23, 24 में बतायी “भेंट” का क्या मतलब था? (ख) अगर कोई भाई हमसे नाराज़ है, तो उसके साथ मेल-मिलाप करना कितना ज़रूरी है?
4 यहाँ बतायी “भेंट” का मतलब ऐसा कोई भी बलिदान था, जो यरूशलेम के मंदिर में चढ़ाया जाता था। उनमें से एक था जानवरों का बलिदान और यह यहोवा की उपासना का एक अहम हिस्सा था। मगर यीशु ने बताया कि परमेश्वर को भेंट चढ़ाने से पहले उस भाई से मेल-मिलाप करना ज़्यादा ज़रूरी है, जो हमसे नाराज़ है।
5 ‘मेल मिलाप करने’ का मतलब है, ‘सुलह करना।’ हम यीशु की कही इस बात से क्या सबक सीखते हैं? यही कि हम दूसरों के साथ जिस तरह पेश आते हैं, उसका सीधा असर यहोवा के साथ हमारे रिश्ते पर पड़ता है। (1 यूह. 4:20) जी हाँ, प्राचीन समय में जो व्यक्ति दूसरों के साथ अच्छा बर्ताव नहीं करता था, परमेश्वर को चढ़ाए उसके सारे बलिदान बेमतलब ठहरते थे।—मीका 6:6-8 पढ़िए।
नम्रता होना बेहद ज़रूरी है
6, 7. हमने जिस भाई का दिल दुखाया है, उसके साथ दोबारा शांति कायम करने के लिए हममें नम्रता क्यों होनी चाहिए?
6 जो भाई हमसे नाराज़ है, उससे सुलह करने के लिए हममें नम्रता होनी चाहिए। नम्र लोग खुद को सही साबित करने के लिए अपने मसीही भाइयों के साथ बहस नहीं करते। इस तरह के लड़ाई-झगड़े से आपसी माहौल खराब होता है। प्राचीन समय में कुरिन्थुस के मसीहियों के बीच कुछ ऐसा ही माहौल बन गया था। उस हालात के बारे में प्रेरित पौलुस ने एक ज़बरदस्त बात कही: “वास्तव में तुम्हारी पराजय तो इसी में हो चुकी कि तुम्हारे बीच आपस में कानूनी मुकदमे हैं। इसके स्थान पर तुम आपस में अन्याय ही क्यों नहीं सह लेते? अपने आप को क्यों नहीं लुट जाने देते”?—1 कुरि. 6:7, ईज़ी-टू-रीड वर्शन।
7 यीशु ने यह नहीं कहा कि हमें खुद को सही और अपने भाई को गलत साबित करने के मकसद से उसके पास जाना चाहिए। इसके बजाय, हमारा मकसद होना चाहिए, हमारे बीच भंग हुई शांति को दोबारा कायम करना। इसके लिए हमें अपने भाई को सच-सच बताना चाहिए कि हम इस मसले के बारे में कैसा महसूस करते हैं। हमें यह भी कबूल करना चाहिए कि हमारे भाई की भावनाओं को ठेस पहुँची है। और अगर गलती हमारी है, तो हमें ज़रूर नम्र होकर उससे माफी माँगनी चाहिए।
“यदि तेरी दहिनी आंख तुझे ठोकर खिलाए”
8. चंद शब्दों में बताइए कि मत्ती 5:29, 30 में यीशु ने क्या कहा?
8 अपने पहाड़ी उपदेश में यीशु ने नैतिकता के बारे में बढ़िया सलाह दी। वह जानता था कि असिद्ध होने की वजह से हमारे अंगों का हम पर कितना खतरनाक असर हो सकता है। इसलिए उसने कहा: “यदि तेरी दहिनी आंख तुझे ठोकर खिलाए, तो उसे निकालकर अपने पास से फेंक दे; क्योंकि तेरे लिये यही भला है कि तेरे अंगों में से एक नाश हो जाए और तेरा सारा शरीर नरक में न डाला जाए। और यदि तेरा दहिना हाथ तुझे ठोकर खिलाए, तो उस को काटकर अपने पास से फेंक दे, क्योंकि तेरे लिये यही भला है, कि तेरे अंगों में से एक नाश हो जाए और तेरा सारा शरीर नरक में न डाला जाए।”—मत्ती 5:29, 30.
9. हमारी “आँख” और “हाथ” कैसे हमें “ठोकर” खिला सकते हैं?
9 “आंख” से यीशु का मतलब है, किसी चीज़ पर पूरा ध्यान लगाने की हमारी काबिलीयत। और “हाथ” का मतलब है, वे काम जो हम अपने हाथों से करते हैं। अगर हम सावधान न रहें, तो शरीर के ये अंग हमें “ठोकर” खिला सकते हैं और हम ‘परमेश्वर के साथ साथ चलना’ छोड़ सकते हैं। (उत्प. 5:22; 6:9) इसलिए जब हमें यहोवा की आज्ञा तोड़ने के लिए लुभाया जाता है, तो हमें ऐसे ठोस कदम उठाने चाहिए जो एक आँख निकालने या एक हाथ काटकर फेंकने के बराबर हो।
10, 11. लैंगिक अनैतिकता से दूर रहने में क्या बात हमारी मदद कर सकती है?
10 हम अपनी आँखों को अनैतिक चीज़ें देखने से कैसे रोक सकते हैं? गौर कीजिए, परमेश्वर का भय माननेवाले अय्यूब ने क्या किया। उसने कहा: “मैं ने अपनी आंखों के विषय वाचा बान्धी है, फिर मैं किसी कुंवारी पर क्योंकर आंखें लगाऊं?” (अय्यू. 31:1) शादीशुदा अय्यूब ने ठान लिया था कि वह किसी भी हाल में परमेश्वर के नैतिक नियमों का उल्लंघन नहीं करेगा। हमें भी यही ठान लेना चाहिए फिर चाहे हम शादीशुदा हों या कुँवारे। लैंगिक अनैतिकता से बचने के लिए हमें परमेश्वर की पवित्र शक्ति के मार्गदर्शन में चलना चाहिए। क्योंकि यह शक्ति परमेश्वर से प्यार करनेवालों में संयम पैदा करती है।—गल. 5:22-25.
11 लैंगिक अनैतिकता से दूर रहने के लिए हमें खुद से यह सवाल पूछना चाहिए, ‘क्या मैं ऐसी किताबें पढ़ता हूँ या फिर इंटरनेट या टी.वी. पर ऐसे कार्यक्रम देखता हूँ, जिससे मेरे अंदर अश्लील बातों के लिए भूख पैदा होती है?’ सवाल पूछने के अलावा हमें शिष्य याकूब की यह बात गांठ बाँध लेनी चाहिए: “प्रत्येक व्यक्ति अपनी ही अभिलाषा से खिंचकर, और फंसकर परीक्षा में पड़ता है। फिर अभिलाषा गर्भवती होकर पाप को जनता है और पाप जब बढ़ जाता है तो मृत्यु को उत्पन्न करता है।” (याकू. 1:14, 15) अगर परमेश्वर का कोई समर्पित सेवक किसी विपरीत लिंग के व्यक्ति को बुरी नज़र से “देखता रहता” है, तो उसे अपने अंदर इतने भारी बदलाव लाने की ज़रूरत है, मानो वह अपनी आँख निकालकर फेंक रहा हो।—मत्ती 5:27, 28 पढ़िए। *
12. पौलुस की कौन-सी सलाह हमें अनैतिक इच्छाओं से लड़ने में मदद दे सकती है?
12 अपने हाथों का गलत इस्तेमाल करने से भी हम यहोवा के नैतिक स्तरों के खिलाफ जा सकते हैं। इसलिए हमें नैतिक रूप से शुद्ध बने रहने का पक्का इरादा कर लेना चाहिए। हमें पौलुस की यह सलाह माननी चाहिए: “अपने उन अंगों को मार डालो, जो पृथ्वी पर हैं, अर्थात् व्यभिचार, अशुद्धता, दुष्कामना, बुरी लालसा और लोभ को जो मूर्त्ति पूजा के बराबर है।” (कुलु. 3:5) शब्द, “मार डालो” से पता चलता है कि हमें अनैतिक इच्छाओं से लड़ने के लिए खुद के साथ कितनी सख्ती बरतनी चाहिए।
13, 14. अनैतिक सोच और कामों से दूर रहना क्यों ज़रूरी है?
13 अगर एक इंसान के हाथ या पैर में जानलेवा रोग हो जाए, तो वह अपनी जान बचाने के लिए उस अंग को कटवा देगा। उसी तरह, अनैतिक सोच और कामों से दूर रहने के लिए ज़रूरी है कि हम लाक्षणिक मायने में अपनी आँख निकालकर या हाथ काटकर ‘फेंक दें।’ ऐसा न करने पर हम यहोवा की मंज़ूरी खो सकते हैं। जी हाँ, अपनी सोच में, अपने व्यवहार में और यहोवा की नज़र में शुद्ध बने रहने पर ही हम गेहन्ना, यानी हमेशा के विनाश से बच सकते हैं।
14 नैतिक शुद्धता बनाए रखना आसान नहीं, क्योंकि हम पैदाइशी पापी और असिद्ध हैं। पौलुस ने खुद कहा: “मैं अपनी देह को मारता कूटता, और वश में लाता हूं; ऐसा न हो कि औरों को प्रचार करके, मैं आप ही किसी रीति से निकम्मा ठहरूं।” (1 कुरि. 9:27) इसलिए आइए हम नैतिकता के बारे में यीशु की सलाह मानने की ठान लें और ऐसा कुछ न करें, जिससे लगे कि हमें उसकी छुड़ौती बलिदान की कोई कदर नहीं।—मत्ती 20:28; इब्रा. 6:4-6.
“दिया करो”
15, 16. (क) दरियादिली दिखाने में यीशु ने क्या मिसाल रखी? (ख) लूका 6:38 में दर्ज़ यीशु के शब्दों का क्या मतलब है?
15 यीशु ने अपनी बातों और बेमिसाल उदाहरण से देने की भावना का बढ़ावा दिया। उसने दरियादिली तब दिखायी, जब वह असिद्ध इंसानों की खातिर धरती पर आया। (2 कुरिन्थियों 8:9 पढ़िए।) जी हाँ, यीशु खुशी-खुशी अपनी स्वर्गीय महिमा त्यागकर इंसान बना और पापी इंसानों के लिए अपनी जान कुरबान कर दी। इनमें से कुछ लोगों को स्वर्ग में उसके साथ राज करने का अनोखा सम्मान मिलेगा। (रोमि. 8:16, 17) यीशु ने अपनी बातों से भी दरियादिल होने का बढ़ावा दिया। उसने कहा:
16 “दिया करो, तो तुम्हें भी दिया जाएगा: लोग पूरा नाप दबा दबाकर और हिला हिलाकर और उभरता हुआ तुम्हारी गोद में डालेंगे, क्योंकि जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिये भी नापा जाएगा।” (लूका 6:38) ‘गोद में डालना,’ इन शब्दों से पता चलता है कि पुराने समय में कुछ दुकानदार क्या करते थे। वे सामान तौलकर उसे खरीदार के लबादे की तह में डालते थे। लबादा कपड़े के ऊपर पहना जाता था और इसे कमरबंध से बाँधा जाता था। लबादे की तह, सामान रखने के लिए एक थैली का काम करती थी। अगर हम दिल से उभारे जाकर दरियादिली दिखाएँ, तो हमारी ज़रूरत की घड़ी में हमें भी दरियादिली दिखायी जाएगी।—सभो. 11:2.
17. उदारता दिखाने में यहोवा ने कैसे सबसे बढ़िया मिसाल रखी है? कैसी उदारता दिखाने से हम खुशी पा सकते हैं?
17 जो लोग खुशी-खुशी और दिल खोलकर देते हैं, यहोवा उनसे प्यार करता है और उन्हें आशीषें देता है। उदारता दिखाने में खुद यहोवा ने सबसे बढ़िया मिसाल रखी है। उसने अपना इकलौता बेटा दिया “ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे, वह नाश न हो, परन्तु अनन्त जीवन पाए।” (यूह. 3:16) पौलुस ने लिखा: “जो बहुत बोता है, वह बहुत काटेगा। हर एक जन जैसा मन में ठाने वैसा ही दान करे; न कुढ़ कुढ़ के, और न दबाव से, क्योंकि परमेश्वर हर्ष से देनेवाले से प्रेम रखता है।” (2 कुरि. 9:6, 7) इसमें कोई दो राय नहीं कि सच्ची उपासना को बढ़ाने के लिए अपना समय, ताकत और साधन लगाने से हमें खुशी और बेशुमार आशीषें मिलेंगी।—नीतिवचन 19:17; लूका 16:9 पढ़िए।
“अपने आगे तुरही न बजवा”
18. हमें कब अपने परमेश्वर से “कुछ भी फल न” मिलेगा?
18 “सावधान रहो! तुम मनुष्यों को दिखाने के लिये अपने धर्म के काम न करो, नहीं तो अपने स्वर्गीय पिता से कुछ भी फल न पाओगे।” (मत्ती 6:1) “धर्म के काम” से यीशु का मतलब था, ऐसे काम जो परमेश्वर के मुताबिक सही हैं। यीशु ने यह नहीं कहा कि लोगों के सामने भले काम करना गलत है, क्योंकि उसने अपने चेलों को बढ़ावा दिया कि “तुम्हारा उजियाला मनुष्यों के साम्हने चमके।” (मत्ती 5:14-16) लेकिन अगर हम रंगमंच के कलाकारों की तरह लोगों को “दिखाने के लिये” और उनसे वाह-वाही पाने के लिए काम करते हैं, तो हमें परमेश्वर से “कुछ भी फल न” मिलेगा। हम न तो उसके साथ करीबी रिश्ता बना पाएँगे और ना ही हमें उसके राज में हमेशा की आशीषें मिलेंगी।
19, 20. (क) जब यीशु ने कहा कि “दान” करते वक्त “तुरही न बजवा,” तो उसका क्या मतलब था? (ख) हम किस तरह अपने बाएँ हाथ को यह पता नहीं चलने देते कि दायाँ हाथ क्या कर रहा है?
19 अगर हम सही सोच रखते हैं, तो हम यीशु की इस सलाह को ज़रूर मानेंगे: “इसलिये जब तू दान करे, तो अपने आगे तुरही न बजवा, जैसा कपटी, सभाओं और गलियों में करते हैं, ताकि लोग उन की बड़ाई करें, मैं तुम से सच कहता हूं, कि वे अपना फल पा चुके।” (मत्ती 6:2) यहाँ यीशु उन लोगों को “दान” देने की बात कर रहा था, जो ज़रूरतमंद होते हैं। (यशायाह 58:6, 7 पढ़िए।) यीशु और उसके प्रेरित भी अपने पास पैसों की एक थैली रखते थे, जिसमें से वे गरीबों की मदद करते थे। (यूह. 12:5-8; 13:29) उस ज़माने में “दान” देते वक्त सचमुच की ‘तुरही नहीं बजायी’ जाती थी, इसलिए हो-न-हो यीशु यहाँ अतिश्योक्ति का इस्तेमाल कर रहा था। उसका मतलब था कि दान देते वक्त हमें फरीसियों की तरह ढिंढोरा नहीं पीटना चाहिए। यीशु ने फरीसियों को कपटी कहा, क्योंकि वे “सभाओं और गलियों में” बताते फिरते थे कि उन्होंने कितना दान दिया है। भले ही इसके लिए उन्हें लोगों की वाह-वाही मिलती और शायद नामी-गिरामी रब्बियों के साथ आराधनालय में सबसे आगे बैठने का मौका मिलता, लेकिन उन्हें यहोवा से कुछ नहीं मिलता। (मत्ती 23:6) क्योंकि वे “अपना फल पा चुके।” लेकिन मसीह के चेलों को कैसे दान देना चाहिए? यीशु ने उन्हें और हमें यह सलाह दी:
20 “परन्तु जब तू दान करे, तो जो तेरा दहिना हाथ करता है, उसे तेरा बांया हाथ न जानने पाए। ताकि तेरा दान गुप्त रहे; और तब तेरा पिता जो गुप्त में देखता है, तुझे प्रतिफल देगा।” (मत्ती 6:3, 4) आम तौर पर एक हाथ क्या कर रहा है, यह दूसरे को पता होता है। लेकिन यीशु ने कहा था कि हमारे बाएँ हाथ को पता नहीं चलना चाहिए कि दायाँ क्या कर रहा है। इसका मतलब है कि हम जो दान करते हैं, उसके बारे में हमारे करीबी लोगों को भी पता नहीं चलना चाहिए।
21. जो “गुप्त में” देखता है, वह हमें क्या प्रतिफल देगा?
21 अगर हम अपने “दान” की शेखी न बघारें, तो हमारा दान गुप्त रहेगा। तब हमारा पिता, “जो गुप्त में देखता है” हमें इसका प्रतिफल देगा। परमेश्वर स्वर्ग में रहता है और इंसान उसे नहीं देख सकते, इसलिए वह उनके लिए “गुप्त में” है। (यूह. 1:18) यहोवा हमें क्या प्रतिफल देगा? वह हमें अपने साथ नज़दीकी रिश्ता बनाने देगा, हमारे पाप माफ करेगा और हमें अनंत जीवन देगा। (नीति. 3:32; यूह. 17:3; इफि. 1:7) सच, यहोवा से ये इनाम पाना, इंसानों की तारीफ पाने से लाख गुना बेहतर है!
दिल में संजोए रखने के लिए अनमोल बातें
22, 23. हमें यीशु की बातें क्यों दिल में संजोए रखनी चाहिए?
22 सचमुच, पहाड़ी उपदेश हमारे लिए बेशकीमती रत्नों से कम नहीं। इसकी अनमोल बातें हमें संकटों से भरी इस दुनिया में भी खुशी दे सकती हैं। जी हाँ, अगर हम यीशु की बातों को अपने दिल में संजोए रखें और उसके मुताबिक अपनी सोच और जीने का तरीका ढालें, तो हम वाकई खुश रहेंगे!
23 जो कोई यीशु की सिखायी बातें ‘सुनता’ और “मानता” है, वह आशीषें पाएगा। (मत्ती 7:24, 25 पढ़िए।) इसलिए आइए हम यीशु की सलाह पर चलने की ठान लें। यीशु ने अपने पहाड़ी उपदेश में और क्या बातें कहीं, इस पर हम इस श्रृंखला के आखिरी लेख में चर्चा करेंगे।
[फुटनोट]
^ मत्ती 5:27, 28 (ईज़ी-टू-रीड वर्शन): “तुम जानते हो कि यह कहा गया है, ‘व्यभिचार मत करो।’ किन्तु मैं तुमसे कहता हूँ कि यदि कोई किसी स्त्री को वासना की आँख से देखता [रहता] है तो वह अपने मन में पहले ही उसके साथ व्यभिचार कर चुका है।”
आप क्या जवाब देंगे?
• अगर कोई भाई हमसे नाराज़ है, तो उसके साथ मेल-मिलाप करना क्यों ज़रूरी है?
• हम अपनी “दहिनी आंख” से ठोकर खाने से कैसे बच सकते हैं?
• हमें किस मंशा से दान देना चाहिए?
[अध्ययन के लिए सवाल]
[पेज 11 पर तसवीर]
जो मसीही हमसे नाराज़ है, उससे ‘मेल मिलाप करना’ क्या ही अच्छी बात है!
[पेज 12, 13 पर तसवीरें]
यहोवा उन लोगों पर आशीषें बरसाता है जो खुशी-खुशी और दिल खोलकर देते हैं