आँख मूँदकर दुनिया की राय मत अपनाइए
आँख मूँदकर दुनिया की राय मत अपनाइए
क्या बात सही है, क्या नहीं? क्या बात तारीफ के लायक है, क्या नहीं? इस बारे में अलग-अलग जगहों में लोगों की अलग-अलग राय होती है। और समय के साथ-साथ लोगों की राय भी बदलती रहती है। इसलिए जब हम बाइबल में लिखी घटनाओं को पढ़ते हैं, जो सदियों पहले घटी थीं, तो उन पर गौर करते वक्त हमें अपनी राय और अपने स्तर थोपने के बजाय, यह ध्यान देना चाहिए कि उस ज़माने के लोगों की क्या राय और स्तर थे।
उदाहरण के लिए ऐसी दो धारणाओं पर गौर कीजिए, जिनका ज़िक्र बाइबल में बार-बार किया गया है, आदर और अपमान। बाइबल की जिन घटनाओं में इनका ज़िक्र है, उन घटनाओं की अच्छी समझ हासिल करने के लिए पहले हमें यह जानना होगा कि वे किसे आदर की बात समझते थे और किसे अपमान की।
पहली सदी के नैतिक स्तर और विश्वास
एक विद्वान कहता है: “यूनानी, रोमी और यहूदी, इन सभी संस्कृतियों में आदर और अपमान की एक खास जगह थी। . . . लोग समाज में इज़्ज़त, नाम और शोहरत पाने के लिए ही जीते थे और ज़रूरत पड़ने पर इनकी खातिर जान तक दे देते थे।” इन्हीं मूल्यों की वजह से लोग दूसरों की राय को बहुत तवज्जह देते थे।
इन संस्कृतियों में जहाँ नाम, ओहदा और इज़्ज़त ही सबकुछ होता था, वहाँ राजा से लेकर रंक तक सब जानते थे कि समाज में उनकी क्या जगह है। एक इंसान को इज़्ज़त इस बात से नहीं मिलती थी कि वह अपने बारे में कैसा सोचता है, बल्कि इससे कि दूसरे उसके बारे में कैसा सोचते हैं। अगर वह उस तरह से व्यवहार करता था, जैसा उससे उम्मीद की जाती थी तो उसे समाज में इज़्ज़तदार करार दिया जाता था। उसी तरह एक इंसान की शानो-शौकत से प्रभावित होकर भी उसे इज़्ज़त दी जाती थी, जैसे उसका पैसा और पद देखकर। इसके अलावा, भले काम करने या दूसरों से बेहतर कुछ कर दिखाने से भी इज़्ज़त पायी जाती थी। दूसरी तरफ, समाज कुछ लोगों को बेइज़्ज़त या अपमानित भी करता था, खासकर उन्हें नीचा दिखाकर या उनका मज़ाक उड़ाकर, फिर चाहे एक इंसान का ज़मीर कितना ही साफ हो या वह खुद को कितना ही अच्छा समझता हो।
एक बार यीशु ने एक मिसाल देकर कहा कि एक इंसान को दावत में “सबसे खास जगह” पर नहीं, बल्कि “सबसे नीची जगह” पर बैठना चाहिए। इससे क्या पता चलता है? यही कि यहूदी संस्कृति में इंसान के बैठने की जगह से आदर या अपमान ज़ाहिर होता था। (लूका 14:8-10) कम-से-कम दो मौकों पर यीशु के चेलों में तकरार हुई थी कि “उनमें सबसे बड़ा किसे समझा जाए।” (लूका 9:46; 22:24) वे उस वक्त के नज़रिए को दर्शा रहे थे, जिसमें बड़ा होना बहुत अहमियत रखता था। घमंडी और एक-दूसरे से होड़ लगानेवाले धार्मिक यहूदी अगुवों ने देखा कि यीशु का प्रचार काम उनकी इज़्ज़त और ओहदे पर उँगली उठाता है। तो वे भी सबके सामने खुद को यीशु से बड़ा साबित करने के लिए हर मुमकिन कोशिश करते थे, मगर वे हर बार नाकाम हुए।—लूका 13:11-17.
किसी को “सबके सामने पकड़कर अगर उस पर गलत काम करने का इलज़ाम लगाया जाए” तो पहली सदी के यूनानी, रोमी और यहूदी समाज में यह भी बड़े शर्म की बात समझी जाती थी। अगर किसी को गिरफ्तार या नज़रबंद किया जाता, तो यह अपमान की बात होती थी। चाहे उसका अपराध तब तक साबित ना भी किया गया हो, लेकिन परिवार, दोस्तों और समाज में उसकी इज़्ज़त घट जाती थी। इसके बाद उसके नाम पर जो कलंक लगता था, उससे वह अपनी नज़रों में गिर जाता था और दूसरों के साथ उसके रिश्ते में दरार आ जाती थी। गिरफ्तारी से भी ज़्यादा शर्मनाक बात एक इंसान के लिए तब होती थी, जब उसके कपड़े उतारे जाते या उसे कोड़े लगाए जाते थे। इस तरह उसकी
इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाती थी और लोग उसका तिरस्कार करते या खिल्ली उड़ाते थे।बेइज़्ज़ती की हद तब पार हो जाती थी, जब किसी इंसान को सूली पर चढ़ाकर मौत की सज़ा दी जाती थी। एक विद्वान मार्टीन हेनगल के मुताबिक ऐसी सज़ा “एक दास को दंड के तौर पर दी जाती थी . . . यह सज़ा उसके आत्म-सम्मान को कुचल देती थी, बेहद शर्मनाक होती थी और यातना पहुँचाती थी।” परिवारवालों और दोस्तों पर समाज से यह दबाव आता था कि वे ऐसे अपमानित व्यक्ति को धिक्कारें। यीशु मसीह ऐसी ही शर्मनाक मौत मारा गया था, इसलिए पहली सदी में जो उसकी राह अपनाकर मसीही बनना चाहते थे, उन्हें समाज से ठठ्ठों का सामना करना पड़ता था। यह बात ज़्यादातर लोगों के गले नहीं उतरती थी कि जिस इंसान को सूली पर चढ़ाकर मार डाला गया, लोग उसका चेला क्यों बनना चाहते हैं। प्रेषित पौलुस ने लिखा: “हम सूली पर चढ़ाए गए मसीह का प्रचार करते हैं जो यहूदियों के लिए ठोकर की वजह है, मगर गैर-यहूदियों के लिए मूर्खता” है। (1 कुरिं. 1:23) पहली सदी के मसीहियों ने इस चुनौती का सामना कैसे किया?
अलग तरह के नैतिक स्तर और विश्वास
पहली सदी के मसीही कायदे-कानूनों को मानते थे और बुरे कामों से दूर रहने की हर कोशिश करते थे ताकि उनकी बेइज़्ज़ती न हो। प्रेषित पतरस ने लिखा: “तुममें से कोई खूनी, चोर या बुरे काम करनेवाला या दूसरों के निजी मामलों में दखल देनेवाला होने की वजह से दुःख न उठाए।” (1 पत. 4:15) लेकिन यीशु ने पहले ही बताया था कि उसके चेलों को उसके नाम की खातिर अत्याचार सहना पड़ेगा। (यूह. 15:20) पतरस ने लिखा: “अगर कोई मसीही होने की वजह से दुःख उठाता है तो वह शर्मिंदा महसूस न करे, बल्कि इस नाम को धारण किए हुए परमेश्वर की महिमा करता रहे।” (1 पत. 4:16) मसीह का चेला होने की वजह से अत्याचार सहना और शर्मिंदा महसूस न करना, दरअसल समाज के कायदे-कानून ठुकराने जैसा था।
लेकिन मसीही दूसरों के स्तरों के मुताबिक अपनी ज़िंदगी नहीं जीते। जिस इंसान को सूली पर चढ़ाया गया है, उसे मसीहा मानना पहली सदी के लोगों के लिए मूर्खता की बात थी और उस ज़माने की सोच अपनाने का भारी दबाव मसीहियों पर भी आया होगा। लेकिन यीशु को मसीहा कबूल करने में यह माँग भी थी कि वे हर हाल में उसके रास्ते पर चलें, फिर चाहे उनकी कितनी भी खिल्ली क्यों न उड़ायी जाए। यीशु ने कहा था: “जो कोई इस विश्वासघाती और पापी पीढ़ी के सामने मेरा चेला होने और मेरे वचनों पर विश्वास करने में शर्मिंदा महसूस करता है, इंसान का बेटा भी ऐसे को उस वक्त स्वीकार करने में शर्मिंदा महसूस करेगा, जब वह अपने पिता से मिले वैभव में पवित्र स्वर्गदूतों के साथ आएगा।”—आज हम पर भी दबाव डाला जा सकता है ताकि हम मसीही राह पर चलना छोड़ दें। हमारे साथ पढ़नेवाले, काम करनेवाले या पड़ोसी शायद हमें अनैतिक, बेईमानी के या दूसरे गलत कामों में शामिल होने के लिए उकसाएँ। फिर भी, हम सच के सिद्धांत पर डटे रहते हैं, और ऐसे में वे शायद हमें शर्मिंदगी का एहसास कराएँ। तब हमारा रवैया कैसा होना चाहिए?
शर्म की परवाह न करनेवालों की मिसाल पर चलिए
यहोवा के लिए अपनी खराई बनाए रखने की खातिर यीशु ने सबसे शर्मनाक मौत भी सह ली। उसने “यातना की सूली पर मौत सह ली और शर्मिंदगी की ज़रा भी परवाह न की।” (इब्रा. 12:2) यीशु के दुश्मनों ने उसे थप्पड़ मारे, उस पर थूका, उसके कपड़े उतारे, उसे कोड़े मारे, सूली पर चढ़ाया और गालियाँ दीं। (मर. 14:65; 15:29-32) उन्होंने यीशु को शर्मिंदा करने की बहुत कोशिश की, मगर उसने शर्मिंदगी महसूस नहीं की। कैसे? उसने ऐसे बुरे व्यवहार के बावजूद हार नहीं मानी। यीशु जानता था कि यहोवा की नज़र में उसकी इज़्ज़त नहीं घटी और जहाँ तक इंसानों की बात है, वह उनसे इज़्ज़त पाने की चाहत नहीं रखता था। हालाँकि यीशु एक दास की मौत मरा, यहोवा ने उसे फिर से ज़िंदा करके उसकी इज़्ज़त बढ़ायी और अपने दाहिने बिठाकर उसे सबसे बड़ा सम्मान दिया। हम फिलिप्पियों 2:8-11 में पढ़ते हैं: “[मसीह यीशु ने] खुद को नम्र किया और इस हद तक आज्ञा माननेवाला बना कि उसने मौत भी, हाँ, यातना की सूली पर मौत भी सह ली। इसी वजह से परमेश्वर ने उसे पहले से भी ऊँचा पद देकर महान किया और मेहरबान होकर उसे वह नाम दिया जो दूसरे हर नाम से महान है ताकि जो स्वर्ग में हैं और जो धरती पर हैं और जो ज़मीन के नीचे हैं, हर कोई यीशु के नाम से घुटना टेके, और हर जीभ खुलकर यह स्वीकार करे कि यीशु मसीह ही प्रभु है, जिससे परमेश्वर हमारे पिता की महिमा हो।”
ऐसा नहीं था कि मौत से जुड़ी बदनामी का यीशु पर कोई असर नहीं हुआ था। जब उसने जाना कि उस पर परमेश्वर की निंदा करने का इलज़ाम लगाया जाएगा, जिससे उसके पिता का अनादर होगा तो इस बात की चिंता उसे खाने लगी। यीशु ने यहोवा से बिनती की कि वह उसे ऐसी बदनामी से बचा ले। उसने कहा: “यह प्याला मेरे सामने से हटा दे।” (मर. 14:36) मगर फिर भी यीशु परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए तैयार था। यीशु ने अपने ऊपर आए दबाव का सामना किया और शर्म को ताक पर रख दिया। सिर्फ वे ही लोग ऐसी सज़ा से शर्मिंदगी महसूस करते, जो दुनिया के स्तरों को पूरी तरह मानते थे। मगर यीशु ने दुनिया के स्तर ठुकरा दिए।
यीशु के चेलों को भी कैद किया गया और कोड़े मारे गए। लोगों की नज़र में यह बड़ी शर्मनाक बात थी। लोग उन्हें नीचा दिखाते और उनका तिरस्कार करते थे। लेकिन वे इन सब बातों से निराश नहीं हुए। सच्चे चेलों ने लोगों की राय का खुद पर असर नहीं होने दिया और शर्म को ताक पर रख दिया। (मत्ती 10:17; प्रेषि. 5:40; 2 कुरिं. 11:23-25) वे जानते थे कि उन्हें ‘यातना की सूली उठाते हुए लगातार यीशु के पीछे चलते’ रहना है।—लूका 9:23, 26.
आज हमारे बारे में क्या कहा जा सकता है? जिन्हें दुनिया बेवकूफ, कमज़ोर और तुच्छ समझती है, उन्हें परमेश्वर बुद्धिमान, ताकतवर और इज़्ज़त के काबिल समझता है। (1 कुरिं. 1:25-28) तो फिर आँख मूँदकर दुनिया की राय अपना लेना क्या बेवकूफी और नासमझी नहीं होगी?
जो आज आदर और इज़्ज़त चाहते हैं, वे दुनिया के नज़रिए को ज़्यादा अहमियत देते हैं। मगर हम यीशु और उसके पहली सदी के चेलों की तरह यहोवा परमेश्वर को अपना दोस्त बनाना चाहते हैं। इसलिए हम उन बातों को इज़्ज़त देंगे, जिन्हें वह इज़्ज़त देता है और उन बातों को शर्मनाक समझेंगे जिन्हें वह शर्मनाक समझता है।
[पेज 4 पर तसवीर]
दुनियावाले जिसे शर्म की बात समझते थे, वह यीशु की नज़र में शर्मनाक नहीं थी