क्या आप इंसानों की कमज़ोरियों को यहोवा की नज़र से देखते हैं?
“शरीर के जो अंग दूसरों से कमज़ोर लगते हैं, वे असल में बहुत ज़रूरी हैं।”—1 कुरिं. 12:22.
1, 2. पौलुस कमज़ोरों को हमदर्दी क्यों दिखा सका?
हम सभी कभी-कभी कमज़ोर महसूस करते हैं। जब हमारी तबियत खराब होती है, तो हममें ताकत नहीं होती और हमें रोज़मर्रा के काम करना बहुत मुश्किल लगता है। अब एक पल के लिए सोचिए कि आप लंबे समय से बीमार हैं। ऐसे में, आप दूसरों से अपने साथ किस तरह पेश आने की उम्मीद करेंगे? क्या आप नहीं चाहेंगे कि वे आपको हमदर्दी दिखाएँ?
2 कई बार प्रेषित पौलुस ने भी, मंडली के अंदर और बाहर से आनेवाले दबाव की वजह से खुद को कमज़ोर महसूस किया था। कुछ मौकों पर पौलुस अपनी हिम्मत हार बैठा था। (2 कुरिं. 1:8; 7:5) अपने अनुभव से पौलुस समझ सकता था कि कमज़ोर महसूस करना कैसा होता है। उसने पूछा: “किसकी कमज़ोरी से मैं खुद को कमज़ोर महसूस नहीं करता?” (2 कुरिं. 11:29) जब उसने मसीही मंडली के सदस्यों की तुलना शरीर के अंगों से की, तो उसने कहा कि जो “कमज़ोर लगते हैं, वे असल में बहुत ज़रूरी हैं।” (1 कुरिं. 12:22) इन शब्दों से पौलुस का क्या मतलब था? यहोवा उनके बारे में कैसा महसूस करता है, जो कमज़ोर लगते हैं? हम अपने भाइयों के बारे में यहोवा जैसा नज़रिया कैसे अपना सकते हैं? इससे हमें क्या फायदा होगा?
इंसानों की कमज़ोरी के बारे में यहोवा का नज़रिया
3. भाइयों के बारे में हमारे नज़रिए पर किस बात का असर पड़ सकता है?
3 आज की दुनिया में, बहुत-से लोग अपना काम निकलवाने के लिए कमज़ोरों का फायदा उठाते हैं। उनका मानना है कि कामयाब होने के लिए एक इंसान को जवान और ताकतवर होना चाहिए। दुनिया के इस रवैए का हम पर भी असर हो सकता है। हो सकता है हम भी उन भाइयों के बारे में गलत नज़रिया रखने लगें, जिन्हें अकसर मदद की ज़रूरत पड़ती है। हम मंडली के हरेक सदस्य को उस नज़र से कैसे देख सकते हैं, जैसे यहोवा देखता है?
4, 5. (क) पौलुस की मिसाल से हम इस बारे में क्या सीखते हैं कि यहोवा हमें किस नज़र से देखता है? (ख) कमज़ोरों की मदद करने से हमें क्या फायदा हो सकता है?
4 यहोवा की नज़र में मंडली का हर सदस्य अहमियत रखता है। कुरिंथियों को लिखी अपनी पहली चिट्ठी के 12वें अध्याय में, पौलुस हमें याद दिलाता है कि इंसानी शरीर का सबसे कमज़ोर अंग भी बहुत ज़रूरी होता है। (1 कुरिंथियों 12:12, 18, 21-23 पढ़िए।) विकासवाद को माननेवाले कुछ लोगों का कहना है कि शरीर के कुछ अंगों की ज़रूरत नहीं है। a मिसाल के लिए, एक वक्त पर माना जाता था कि पैर की सबसे छोटी उँगली किसी काम की नहीं है। मगर अब वैज्ञानिकों ने अध्ययन करने पर पाया है कि पैर की सबसे छोटी उँगली, हमारे पूरे शरीर को संतुलन बनाए रखने में मदद देती है।
5 शरीर के बारे में दी पौलुस की मिसाल दिखाती है कि मंडली का हरेक सदस्य अहमियत रखता है। शैतान चाहता है कि हम खुद को बेकार समझें। मगर यहोवा की नज़र में हरेक सेवक “ज़रूरी” है, वह भी जो शायद हमें कमज़ोर नज़र आए। (अय्यू. 4:18, 19) इसका मतलब है कि हम इस बात से खुश हो सकते हैं कि मंडली को और दुनिया-भर में हमारे भाई-बहनों को हमारी ज़रूरत है। मिसाल के लिए, उस वक्त को याद कीजिए जब आपने वक्त निकालकर किसी बुज़ुर्ग व्यक्ति की मदद की थी। इससे उस बुज़ुर्ग व्यक्ति को तो मदद मिली ही, लेकिन क्या आपको भी कुछ फायदा हुआ? बेशक। जब हम दूसरों की मदद करते हैं, तो हमें खुशी मिलती है, हम ज़्यादा सब्र रखना सीखते हैं, अपने भाइयों के लिए हमारा प्यार बढ़ जाता है, और हम बेहतर मसीही बन जाते हैं। (इफि. 4:15, 16) यहोवा चाहता है कि हम अपने भाई-बहनों को ज़रूरी समझें, उन्हें भी जो कमज़ोर नज़र आते हैं। जब हम इस तरह का नज़रिया रखेंगे, तो हम अपने भाइयों से हद-से-ज़्यादा की उम्मीद नहीं करेंगे, और मंडली में एक-दूसरे के लिए प्यार बढ़ जाएगा।
6. जब पौलुस ने ‘कमज़ोर’ और “मज़बूत” जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया, तो उसका क्या मतलब था?
6 यह सच है कि पौलुस ने मंडली में कुछ मसीहियों के बारे में बात करते वक्त, ‘कमज़ोर’ और “कमज़ोरी” जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया। उसने ऐसा इसलिए किया क्योंकि कुछ अविश्वासी लोग मसीहियों को उस नज़र से देखते थे। मगर पौलुस यह नहीं कह रहा था कि कुछ मसीही दूसरों से बेहतर हैं। कई बार उसने खुद को भी कमज़ोर कहा। (1 कुरिं. 1:26, 27; 2:3) और जब उसने कुछ मसीहियों को “मज़बूत” कहा, तो वह यह नहीं कह रहा था कि वे दूसरों से बेहतर हैं। (रोमि. 15:1) उसके कहने का मतलब यह था कि जिन्हें ज़्यादा तजुरबा है, उन्हें कम तजुरबा रखनेवालों के साथ सब्र से पेश आना चाहिए।
क्या हमें अपनी सोच बदलने की ज़रूरत है?
7. कमज़ोरों की मदद करना हमारे लिए हमेशा आसान क्यों नहीं होता?
7 यहोवा कमज़ोरों की मदद करता है, और जब हम भी ऐसा ही करते हैं, तो उसे खुशी होती है। (भज. 41:1; इफि. 5:1) मगर ऐसा करना हमेशा हमारे लिए आसान नहीं होता। क्यों? क्योंकि हो सकता है हमें लगता हो कि हमारे भाई को अपनी समस्याओं के लिए खुद ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए। या फिर शायद हम उससे दूरी बनाए रखें, क्योंकि हमें समझ न आ रहा हो कि हम उससे क्या कहें। मिसाल के लिए, गौर कीजिए कि सिंथिया b नाम की एक बहन के साथ क्या हुआ। जब उसका पति उसे छोड़कर चला गया, तो उसे मदद की ज़रूरत पड़ी। वह बताती है: “अगर भाई आपसे दूरी बनाए रखें, या उस तरह पेश न आएँ, जिस तरह आप अपने करीबी दोस्तों से उम्मीद करते हैं, तो आपको बहुत दुख पहुँच सकता है। जब आप किसी परीक्षा से गुज़र रहे हों, तो आप चाहेंगे कि आपके दोस्त आपके साथ हों।” राजा दाविद को भी उस वक्त बहुत दुख पहुँचा था, जब उसके दोस्तों ने उससे दूरियाँ बना ली थीं।—भज. 31:12.
8. क्या बात हमें अपने भाइयों को हमदर्दी दिखाने में मदद दे सकती है?
8 क्या बात हमारी मदद करेगी कि हम अपने उन भाइयों को हमदर्दी दिखाएँ, जिन्हें मदद की ज़रूरत है? याद रखिए कि उनमें से बहुत-से भाई-बहन तकलीफ में हैं क्योंकि वे किसी बीमारी या निराशा से जूझ रहे हैं, या फिर इसलिए कि उनके परिवार के कुछ सदस्य सच्चाई में नहीं हैं। अगर हम उनकी जगह होते, तो हम भी यही चाहते कि दूसरे हमसे हमदर्दी जताएँ। ज़रा इसराएलियों के बारे में सोचिए। उन्होंने मिस्र में बहुत-सी तकलीफें झेली थीं, लेकिन उनके वादा किए गए देश में कदम रखने से पहले, यहोवा ने उन्हें याद दिलाया था कि उन्हें “अपना हृदय कठोर” नहीं करना है। यहोवा चाहता था कि इसराएली अपने गरीब और कमज़ोर भाइयों की मदद करें।—व्यव. 15:7, 11; लैव्य. 25:35-38.
9. जब हमारा कोई भाई कमज़ोर हो, तो उसे सबसे ज़्यादा किस चीज़ की ज़रूरत होती है? एक मिसाल देकर समझाइए।
9 हमें अपने भाइयों पर उनकी समस्याओं की वजह से दोष नहीं लगाना चाहिए, न ही ऐसा सोचना चाहिए कि हम उनसे बेहतर हैं। जब हमारे भाई कमज़ोर महसूस करते हैं, तब हमें उनकी मदद करनी चाहिए। (अय्यू. 33:6, 7; मत्ती 7:1) मिसाल के लिए, कल्पना कीजिए कि एक दुर्घटना में कोई ज़ख्मी हो जाता है और उसे फौरन अस्पताल ले जाया जाता है। जब वह वहाँ पहुँचता है, तो क्या डॉक्टर और नर्स यह चर्चा करने में समय बरबाद करेंगे कि इस दुर्घटना के लिए कौन ज़िम्मेदार है? बिलकुल नहीं। इसके बजाय, वे फौरन उसका इलाज करेंगे। हमारे साथ भी ऐसा ही है। जब हमारा कोई भाई कमज़ोर हो, तो उस वक्त उसे जिस चीज़ की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, वह है आध्यात्मिक मदद।—1 थिस्सलुनीकियों 5:14 पढ़िए।
10. कुछ भाई-बहन शायद हमें कमज़ोर नज़र आएँ, लेकिन वे किस तरह “विश्वास में धनी” हैं?
10 कुछ भाई-बहनों को देखकर लग सकता है कि वे कमज़ोर हैं। मगर एक पल के लिए अगर हम उनके हालात के बारे में सोचें, तो हो सकता है हम पाएँ कि वे बिलकुल भी कमज़ोर नहीं हैं। ज़रा कल्पना कीजिए कि उस बहन को कितनी मुश्किलें उठानी पड़ती होंगी, जिसका पति यहोवा की सेवा नहीं करता। और उस माँ के बारे में क्या, जो अकेले ही अपने बच्चों की परवरिश करने में कड़ी मेहनत करती है और फिर भी लगातार सभाओं में हाज़िर होती है? या स्कूल में पढ़नेवाले उन नौजवानों के बारे में सोचिए जो रोज़ सच्चाई से समझौता करने के दबाव का सामना करते हैं। ये सभी यहोवा से सच्चे दिल से प्यार करते हैं और उन्होंने ठान लिया है कि वे उसके वफादार बने रहेंगे। जब हम इस बारे में सोचते हैं कि हमारे भाई-बहन यहोवा की सेवा करने के लिए कितना कुछ कर रहे हैं, तो इससे हमें यह याद रखने में मदद मिलती है कि वे “विश्वास में धनी” हैं, फिर भले ही वे हमें कमज़ोर क्यों न नज़र आएँ।—याकू. 2:5.
यहोवा का नज़रिया अपनाइए
11, 12. (क) जब हमारे भाई गलतियाँ करते हैं, तो क्या बात हमें यहोवा का नज़रिया अपनाने में मदद देगी? (ख) यहोवा ने हारून को क्यों माफ किया? (ग) हम इससे क्या सीखते हैं?
11 हम सभी को अपने भाइयों के बारे में यहोवा का नज़रिया अपनाना चाहिए, तब भी जब वे इंसानी कमज़ोरी की वजह से गलतियाँ करते हैं। बाइबल में दी मिसालें हमें यह समझने में मदद दे सकती हैं कि यहोवा अपने सेवकों के बारे में कैसा नज़रिया रखता है। (भजन 130:3 पढ़िए।) मिसाल के लिए, कल्पना कीजिए कि अगर आप उस वक्त मूसा के साथ होते, जब वह हारून को बहाने बनाते हुए सुन रहा था कि क्यों उसने सोने का बछड़ा बनाया, तो आप हारून के बारे में क्या सोचते? (निर्ग. 32:21-24) आपको तब कैसा महसूस होता जब मरियम की सुनकर, हारून ने मूसा की निंदा की क्योंकि मूसा ने एक विदेशी स्त्री से शादी की थी? (गिन. 12:1, 2) और उस वक्त के बारे में क्या जब हारून और मूसा ने यहोवा का आदर नहीं किया, जब यहोवा ने मरीबा में चमत्कार करके चट्टान से पानी निकाला था?—गिन. 20:10-13.
12 यहोवा चाहता तो हारून को उसकी गलतियों के लिए उसी वक्त सज़ा दे सकता था। मगर यहोवा जानता था कि हालाँकि कुछ मौकों पर हारून कमज़ोर पड़ गया था, लेकिन वह बुरा इंसान नहीं था। ऐसा मालूम होता है कि उसने इसलिए गलतियाँ की थीं, क्योंकि वह मुश्किल हालात में था और क्योंकि उसने बुरे लोगों की सुनी थी। मगर हारून अपनी गलतियाँ कबूल करने के लिए तैयार था और उसने यहोवा की ताड़ना भी कबूल की। (निर्ग. 32:26; गिन. 12:11; 20:23-27) हारून यहोवा से बहुत प्यार करता था और उसने सच्चा पश्चाताप किया। इसलिए यहोवा ने उसे माफ कर दिया। यही वजह थी कि सालों बाद भी, हारून और उसके परिवार को यहोवा के वफादार सेवकों के तौर पर याद किया गया।—भज. 115:10-12; 135:19, 20.
13. हम अपने भाई-बहनों के बारे में अपना नज़रिया कैसे बदल सकते हैं? एक मिसाल देकर समझाइए।
13 हारून की तरह, हमारे भाई-बहनों से भी गलतियाँ हो सकती हैं। जब ऐसा होता है, तो आपको उन्हें किस नज़र से देखना चाहिए? क्या आपको अपना नज़रिया बदलने की ज़रूरत है? (1 शमू. 16:7) मिसाल के लिए, एक नौजवान के बारे में सोचिए जिसे देखकर लगता है कि उसका रवैया ठीक नहीं है। शायद वह मनोरंजन के मामले में सही चुनाव नहीं करता। ऐसे में झट-से यह मत मान बैठिए कि वह एक बुरा इंसान है। इसके बजाय, सोचिए कि आप कैसे उसकी मदद कर सकते हैं। वक्त निकालकर उसे सिखाइए कि वह कैसे सही फैसले ले सकता है। जब आप इस तरह अपने भाइयों की मदद करेंगे, तो आप उनके साथ और भी सब्र से पेश आ पाएँगे और आपके दिल में उनके लिए प्यार बढ़ेगा।
14, 15. (क) जब एलिय्याह डर गया, तो यहोवा को उसके बारे में कैसा महसूस हुआ? (ख) यहोवा ने जिस तरह एलिय्याह की मदद की, उससे हम क्या सीख सकते हैं?
14 यहोवा उन लोगों के बारे में कैसा महसूस करता है, जो निराशा से गुज़र रहे हैं? गौर कीजिए कि निराशा से गुज़र रहे अपने एक सेवक की यहोवा ने कैसे मदद की। एलिय्याह यहोवा का एक नबी था, जिसने हिम्मत दिखाते हुए बाल के 450 भविष्यवक्ताओं को चुनौती दी थी। लेकिन फिर एलिय्याह को खबर मिली कि रानी ईज़ेबेल उसकी जान लेना चाहती है। वह इतना डर गया कि वह 150 किलोमीटर दौड़कर बेर्शेबा गया और फिर वहाँ से भी काफी दूर वीराने में गया। चिलचिलाती धूप में सफर तय करके वह इतना थक गया था और इस कदर निराश हो गया था कि उसने “अपनी मृत्यु मांगी।”—1 राजा 18:19; 19:1-4.
15 जब यहोवा ने देखा कि एलिय्याह किस हद तक निराश हो गया है और कितना डर गया है, तो यहोवा ने क्या किया? क्या उसने एलिय्याह को त्याग दिया? बिलकुल नहीं। यहोवा ने उसकी मदद करने के लिए एक स्वर्गदूत को भेजा। दो बार स्वर्गदूत ने एलिय्याह को खाने के लिए कुछ दिया, ताकि उसे अपना सफर जारी रखने की ताकत मिले। (1 राजा 19:5-8 पढ़िए।) एलिय्याह को कोई भी हिदायत देने से पहले, यहोवा ने उसकी सुनी और उसे वह मदद दी जिसकी उसे ज़रूरत थी।
16, 17. यहोवा की तरह, हम अपने भाइयों की मदद कैसे कर सकते हैं?
16 जिस तरह यहोवा ने एलिय्याह की मदद की, उसी तरह हम अपने भाई की मदद कैसे कर सकते हैं? अपने भाई को सलाह देने में जल्दबाज़ी मत कीजिए कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं। (नीति. 18:13) अगर वह निराश है या खुद को “कम आदर के लायक” समझता है, तो बेहतर होगा कि सबसे पहले आप उससे हमदर्दी जताएँ। (1 कुरिं. 12:23) तब आप जान पाएँगे कि असल में उसे किस चीज़ की ज़रूरत है और आप उसे वह मदद दे पाएँगे।
17 सिंथिया की मिसाल याद कीजिए। जब उसका पति उसे और उसकी दो बेटियों को अकेला छोड़कर चला गया, तो उन्हें ऐसा महसूस हो रहा था जैसे अब उनका कोई नहीं रहा। मंडली के कुछ भाई-बहनों ने उनकी मदद कैसे की? सिंथिया कहती है: “जब हमने उन्हें फोन करके बताया कि हमारे साथ क्या हुआ है, तो वे 45 मिनट के अंदर हमारे घर पहुँच गए। उनकी आँखों में आँसू थे। अगले दो-तीन दिन तक उन्होंने हमें अकेला नहीं छोड़ा। हम ठीक से खाना नहीं खा रहे थे और बहुत जज़्बाती हो रहे थे, इसलिए कुछ वक्त के लिए वे हमें अपने घर ले गए।” यह अनुभव हमें उस बात की याद दिलाता है, जो याकूब की किताब में लिखी है: “अगर किसी भाई या बहन के पास कपड़े न हों और उसके पास दो वक्त की रोटी भी न हो, और तुममें से कोई उससे यह कहे: ‘ठीक-ठाक रहो, अच्छा खाओ और अच्छा पहनो,’ मगर तुम उसे तन ढकने के लिए कपड़ा और पेट भरने के लिए कुछ न दो, तो इसका क्या फायदा? उसी तरह, जिस विश्वास के साथ काम न हों, ऐसा विश्वास मरा हुआ है।” (याकू. 2:15-17) भाई-बहनों ने सिंथिया और उसकी बेटियों को ठीक वही मदद दी, जिसकी उन्हें ज़रूरत थी। इससे उन्हें इतनी हिम्मत मिली कि सिर्फ 6 महीनों में वे सहयोगी पायनियर सेवा करने लगीं।—2 कुरिं. 12:10.
बहुतों को फायदा
18, 19. (क) हम उन लोगों की मदद कैसे कर सकते हैं, जो कमज़ोर हैं? (ख) जब हम कमज़ोरों की मदद करते हैं, तो किन्हें फायदा होता है?
18 जब हम लंबे समय से बीमार होते हैं, तो ठीक होने में वक्त लगता है। उसी तरह, जब हमारा भाई कोई गलती करता है या किसी मुश्किल हालात में होता है, तो शायद उसे आध्यात्मिक तौर पर दोबारा मज़बूत होने में वक्त लगे। यह सच है कि अपना विश्वास मज़बूत करने के लिए उसे निजी अध्ययन करना होगा, यहोवा से प्रार्थना करनी होगी और मसीही सभाओं में हाज़िर होना होगा। लेकिन उसे हमारी मदद की भी ज़रूरत है। जब तक वह पूरी तरह मज़बूत नहीं हो जाता, हमें उसके साथ सब्र से पेश आना होगा। हमें लगातार उसे यह ज़ाहिर करने की ज़रूरत है कि हम उससे प्यार करते हैं और वह मंडली का एक ज़रूरी हिस्सा है।—2 कुरिं. 8:8.
19 दूसरों की मदद करने से हमें खुशी मिलती है। इससे हम हमदर्दी जताना और सब्र दिखाना भी सीखते हैं। लेकिन ऐसा करने से सिर्फ हमें ही फायदा नहीं होता। पूरी मंडली में प्यार और भी बढ़ता है। सबसे बढ़कर, जब हम ‘उन लोगों की मदद करते हैं जो कमज़ोर हैं,’ तब हम दिखाते हैं कि हम यहोवा की तरह बनना चाहते हैं। हमारे प्यारे पिता की नज़र में हर इंसान अनमोल है।—प्रेषि. 20:35.