“मनभावने शब्दों” से अपने परिवार का हौसला बढ़ाइए
“मनभावने शब्दों” से अपने परिवार का हौसला बढ़ाइए
एक-एक मिनट के साथ-साथ दीपक का गुस्सा भी बढ़ता जा रहा था। वह कार में बैठा अपनी पत्नी, शेफाली का इंतज़ार कर रहा था और बार-बार अपनी घड़ी देख रहा था। जैसे ही शेफाली घर से बाहर आयी, वह अपने गुस्से पर काबू न रख सका और ज्वालामुखी की तरह उस पर फूट पड़ा।
“तुम हमेशा देर करती हो! हद हो गयी इंतज़ार करने की। क्या तुम कभी समय पर तैयार नहीं हो सकती?”
दीपक की बात सुनकर शेफाली का दिल टूट गया। वह फूट-फूटकर रोने लगी और दौड़कर घर के अंदर चली गयी। तभी दीपक को अपनी गलती का एहसास हुआ। गुस्से में आकर उसने जो कुछ कहा, उससे मामला और भी बिगड़ गया। मगर अब वह क्या करता? उसने गाड़ी बंद की, गहरी साँस ली और शेफाली के पीछे-पीछे घर के अंदर गया।
इस उदाहरण से शायद आपको लगे कि यह बिलकुल मेरे घर की कहानी है। क्या कभी आपके साथ ऐसा हुआ है कि आपने कुछ बात कह दी, फिर आपको लगा कि मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था? जब हम बिना सोचे-समझे कोई बात कह देते हैं, तो अकसर हमें बाद में अफसोस होता है। इसलिए बाइबल कहती है: “धर्मी मन में सोचता है कि क्या उत्तर दूं।”—नीतिवचन 15:28.
लेकिन सोच-समझकर बोलना इतना आसान नहीं होता। खासकर तब जब हम गुस्से में या डरे हुए होते हैं या जब कोई हमारा दिल दुखाता है। और अगर इसकी वजह हमारे परिवार के सदस्य हों, तो उनके साथ सोच-समझकर बोलना तो और भी मुश्किल होता है। क्योंकि जब हम उन्हें बताने की कोशिश करते हैं कि हम कैसा महूसस कर रहे हैं, तो हम बड़ी आसानी से उनको दोषी ठहरा सकते हैं या उनमें मीनमेख निकाल सकते हैं। नतीजा, हम एक-दूसरे के दिल को चोट पहुँचा सकते हैं या हमारे बीच झगड़ा खड़ा हो सकता है।
ऐसी नौबत न आए, इसके लिए हम क्या कर सकते हैं? हम अपनी भावनाओं को कैसे काबू में रख सकते हैं? इस मामले में हमें बाइबल के एक लेखक सुलैमान की बढ़िया सलाह से मदद मिल सकती है।
सोचिए कि आप क्या कहेंगे और कैसे कहेंगे
सुलैमान ने बाइबल की सभोपदेशक नाम की किताब लिखी थी। उसमें उसने जीवन की व्यर्थता के बारे में खुल्लम-खुल्ला बताया और ज़बरदस्त शब्दों में अपनी भावनाएँ ज़ाहिर की। उसने कहा: “मैं ने अपने जीवन से घृणा की।” एक दूसरे मौके पर उसने ज़िंदगी के बारे में कहा: “सब व्यर्थ ही व्यर्थ” है। (सभोपदेशक 2:17; 12:8) मगर सभोपदेशक किताब, सुलैमान की निराशाओं का लेखा-जोखा नहीं है। उसने इन निराशाओं के बारे में यूँ ही बताना उचित नहीं समझा। मगर सभोपदेशक किताब के आखिर में सुलैमान बताता है कि उसने ‘मनभावने शब्द खोजे और सीधाई से सच्ची बातें लिख दीं।’ (सभोपदेशक 12:10) इस आयत का एक दूसरा अनुवाद कहता है कि उसने “इन बातों को सबसे अच्छे और सही तरीके से समझाने की कोशिश की।”—कॉन्टेम्प्ररी इंग्लिश वर्शन।
सुलैमान को शायद एहसास हुआ होगा कि उसे अपनी भावनाओं को काबू में रखना है। हो सकता है, उसने बार-बार खुद से पूछा हो: ‘मैं जो कहने जा रहा हूँ, क्या वह सच है? अगर मैं इन शब्दों को इस्तेमाल करूँ, तो क्या ये दूसरों को मनभावने
और अच्छे लगेंगे?’ सच्चाई के “मनभावने शब्द” ढूँढ़ने की वजह से सुलैमान ने जज़्बात में बहकर नहीं, बल्कि सोच-समझकर अपनी किताब लिखी।नतीजा यह हुआ कि उसकी किताब न सिर्फ साहित्य की एक बेहतरीन रचना है, बल्कि इसमें ज़िंदगी के मतलब के बारे में परमेश्वर की बुद्धि-भरी बातों का खज़ाना भी पाया जाता है। (2 तीमुथियुस 3:16, 17) जब हम किसी नाज़ुक मामले पर अपने अज़ीज़ों से बात करते हैं और हम उन्हें अपने दिल की बात ठीक-ठीक बताना चाहते हैं, तो क्या सुलैमान की सलाह हमारी मदद कर सकती है? इसकी एक मिसाल पर गौर कीजिए।
अपनी भावनाओं को काबू में रखना सीखिए
मान लीजिए, एक लड़का स्कूल से घर लौटता है। उसके हाथ में रिपोर्ट कार्ड है और उसका चेहरा उतरा हुआ है। जब पिता उसका रिपोर्ट कार्ड देखता है, तो गौर करता है कि वह एक सब्जेक्ट में फेल हो गया है। पिता का पारा चढ़ जाता है और वह याद करता है कि उसका बेटा कई बार होमवर्क करने से कैसे जी चुराता था। पिता का मन यह कहने को करता है: “तुम एक नंबर के आलसी हो! अगर यही हाल रहा, तो तुम ज़िंदगी में कुछ नहीं बन पाओगे।”
गुस्से में आकर कुछ कहने से पहले पिता को खुद से पूछना चाहिए, ‘जो मैं सोच रहा हूँ, क्या वह सच है?’ इस तरह के सवाल पूछने से वह अपनी भावनाओं को काबू में रख पाएगा और मामले को सही नज़र से देख पाएगा। (नीतिवचन 17:27) क्या उसका बेटा सचमुच ज़िंदगी में कुछ नहीं बन पाएगा, क्योंकि वह एक सब्जेक्ट में फेल हो गया है? क्या वह स्वभाव से आलसी है या क्या वह इसलिए होमवर्क करने से जी चुराता है, क्योंकि उसके लिए वह सब्जेक्ट मुश्किल है? बाइबल बार-बार ज़ोर देती है कि हमें ज़रूरत-से-ज़्यादा सख्ती नहीं बरतनी चाहिए, बल्कि मामलों के बारे में सही नज़रिया रखना चाहिए। (तीतुस 3:2; याकूब 3:17) बच्चों का हौसला बढ़ाने के लिए ज़रूरी है कि माता-पिता ‘सीधाई से सच्ची बातें’ कहें।
सही शब्द ढूँढ़िए
जब पिता तय कर लेता है कि उसे क्या कहना है, तो वह खुद से यह सवाल पूछ सकता है, ‘मैं किन शब्दों में यह बात कह सकता हूँ, ताकि वह मेरे बेटे को अच्छी और मनभावनी लगे?’ माना कि सही शब्द ढूँढ़ना इतना आसान नहीं होता। मगर माता-पिताओं को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किशोरों में यह फितरत होती है कि वे खुद को या तो लायक समझते हैं या नालायक। अपनी एक नाकामी या कमज़ोरी को लेकर वे हद-से-ज़्यादा परेशान हो जाते हैं और उन्हें लगने लगता है कि वे किसी काम को ठीक से नहीं कर पाते हैं। ऐसे में, अगर एक माँ या बाप अपने बच्चे की कमज़ोरी या नाकामी पर भड़क उठें, तो बच्चे में यह भावना और भी जड़ पकड़ सकती है कि वह नालायक है। कुलुस्सियों 3:21 (बुल्के बाइबिल) बताता है: ‘अपने बच्चों को खिझाया न करो। कहीं ऐसा न हो कि उनका दिल टूट जाये।’
“हमेशा” और “कभी नहीं” जैसे शब्दों से या तो मामले की सही तसवीर पेश नहीं की जाती या उसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है। जब एक माँ या पिता अपने बच्चे से कहते हैं कि “तुम ज़िंदगी में कभी कुछ नहीं बन पाओगे,” तो बच्चा अपनी ही नज़रों में गिर जाता है। और अगर दिन-रात बच्चे को यही बात सुनायी जाए, तो धीरे-धीरे उसे यकीन हो जाएगा कि वह ज़िंदगी में कभी कुछ नहीं बन सकता। और इस बात से न सिर्फ बच्चे का हौसला टूटता है, बल्कि यह बात सच भी नहीं होती।
किसी भी हालात में अच्छे पहलुओं पर ध्यान देना बेहतर होता है। ऊपर बतायी मिसाल में पिता शायद अपने बेटे से कहे, “मैं समझ सकता हूँ कि एक सब्जेक्ट में फेल होने की वजह से तुम बहुत उदास हो। मैं जानता हूँ कि तुम अपना ज़्यादातर होमवर्क करने में बहुत मेहनत करते हो। चलो हम उस सब्जेक्ट पर बात करें, जिसमें तुम फेल हुए हो और देखें कि तुम्हें इसमें जो मुश्किलें आ रही हैं, उसे कैसे दूर किया जा सकता है।” अपने बेटे को बढ़िया किस्म की मदद देने के लिए पिता उससे कुछ खास सवाल भी पूछ सकता है। इससे पिता ठीक-ठीक जान सकेगा कि क्या उसके बेटे को दूसरी मुश्किलें हैं, जिसे शायद वह साफ-साफ नहीं देख पा रहा।
इस तरह प्यार से और सोच-समझकर बातें करना ज़्यादा फायदेमंद होता है, बजाय अपने बच्चे पर गुस्सा उतारने के। बाइबल हमें यकीन दिलाती है, “मनभावने वचन मधुभरे छत्ते की नाईं प्राणों को मीठे लगते, और हड्डियों को हरी-भरी करते हैं।” (नीतिवचन 16:24) बच्चे ऐसे माहौल में खुशी-खुशी बढ़ते हैं, जहाँ शांति और प्यार होता है। और यह बात सिर्फ बच्चों के लिए ही नहीं, बल्कि परिवार के सभी सदस्यों के लिए सच साबित होती है।
“जो मन में भरा है”
इस लेख की शुरूआत में जिस पति का ज़िक्र किया गया है, उस पर ध्यान दीजिए। कितना अच्छा होता अगर वह अपनी नीतिवचन 29:11.
पत्नी पर गुस्सा करने के बजाय सच्चाई के “मनभावने शब्द” खोजता। ऐसे हालात में एक पति को खुद से ये सवाल पूछने चाहिए: ‘हालाँकि मेरी पत्नी समय की इतनी पाबंद नहीं है, मगर क्या यह सच है कि वह हमेशा देर करती है? यह मामला उठाने का क्या यही सही मौका है? अगर मैं उस पर अपना गुस्सा उतारूँ या उसमें मीनमेख निकालूँ, तो क्या उसका मन उसे अपनी आदत बदलने के लिए उकसाएगा?’ खुद से इस तरह के सवाल पूछने से हम अनजाने में अपने अज़ीज़ों का दिल दुखाने से बच सकेंगे।—लेकिन तब क्या, अगर परिवार के साथ बातचीत करते वक्त हमेशा झगड़ा खड़ा हो जाता है? ऐसे में, शायद हमें अपने मन में झाँकने की ज़रूरत है और हमारे शब्दों के पीछे छिपी भावनाओं पर ध्यान देने की ज़रूरत है। हम क्या बोलते हैं, खासकर जब हम दुःखी या किसी तनाव में होते हैं, उससे काफी हद तक ज़ाहिर होता है कि हम अंदर से कैसे इंसान है। यीशु ने कहा था: “जो मन में भरा है, वही मुंह पर आता है।” (मत्ती 12:34) दूसरे शब्दों में कहें तो हमारी बातों से अकसर पता चलता है कि हमारी सोच, इच्छाएँ और हमारा रवैया क्या है।
क्या हम ज़िंदगी के बारे में सही नज़रिया रखते हैं और आशावादी हैं? अगर हाँ, तो यह हमारी बातचीत और हमारे बात करने के अंदाज़ से साफ ज़ाहिर होगा। क्या हम कठोर, निराशावादी या हर बात में दूसरों में नुक्स निकालनेवाले हैं? अगर ऐसा है तो हम शायद अपनी बातों और कहने के तरीके से दूसरों की हिम्मत तोड़ सकते हैं। हमें शायद एहसास भी न हो कि हमारी सोच या बातचीत हौसला बढ़ानेवाली नहीं है। हमें शायद यह भी लगे कि हमारा नज़रिया एकदम सही है। लेकिन हमें इस भुलावे में आने से खबरदार रहना चाहिए।—नीतिवचन 14:12.
हम कितने शुक्रगुज़ार है कि हमारे पास परमेश्वर का वचन, बाइबल है। बाइबल की मदद से हम अपने विचारों को जाँच सकते हैं और पता कर सकते हैं कि कौन-से विचार सही हैं और किन विचारों को सुधारने की ज़रूरत है। (इब्रानियों 4:12; याकूब 1:25) चाहे हमें जैसा भी स्वभाव विरासत में मिला हो या हमारी परवरिश कैसे भी माहौल में क्यों न हुई हो, लेकिन हम सब अपनी सोच और अपने व्यवहार को बदल सकते हैं, बशर्ते हम ऐसा करना चाहें।—इफिसियों 4:23, 24.
हमारे बात करने का तरीका कैसा है, यह जाँचने में बाइबल के अलावा हमारे पास एक और मदद मौजूद है। वह है, दूसरों से पूछना। मिसाल के लिए, अपने जीवन-साथी या अपने बच्चों को सच-सच बताने के लिए कहिए कि आपके बात करने का तरीका कैसा है। अपने किसी समझदार दोस्त से भी पूछिए, जो आपको अच्छी तरह जानता हो। याद रखिए कि वे जो कुछ बताते हैं, उसे मानने और ज़रूरी बदलाव करने के लिए नम्रता की ज़रूरत होगी।
बोलने से पहले सोचिए!
एक आखिरी बात: अगर हम सचमुच चाहते हैं कि हमारी बातों से दूसरों को ठेस न पहुँचे, तो हमें नीतिवचन 16:23 की सलाह माननी होगी। यह कहता है, “बुद्धिमान [यानी समझदार] लोग बोलने से पहले सोचते हैं; फिर उनकी बातें ज़्यादा कायल करनेवाली होती हैं।” (टूडेज़ इंग्लिश वर्शन) अपनी भावनाओं को काबू में रखना हमेशा आसान नहीं होता। लेकिन, अगर हम दूसरों में दोष निकालने या उन्हें नीचा दिखाने के बजाय उन्हें समझने की कोशिश करें, तो हमारे लिए सही शब्द ढूँढ़कर बात करना आसान होगा।
यह सच है कि हममें से कोई भी सिद्ध नहीं। (याकूब 3:2) हम सब कभी-कभी बिना सोचे-समझे बात कह देते हैं। (नीतिवचन 12:18) लेकिन परमेश्वर के वचन की मदद से हम बोलने से पहले सोचना और दूसरों की भावनाओं और भलाई को अहमियत देना सीख सकते हैं। (फिलिप्पियों 2:4) तो आइए, हम सच्चाई के “मनभावने शब्दों” को ढूँढ़ें, खासकर तब जब हम अपने परिवारवालों से बात करते हैं। अगर हम ऐसा करेंगे, तो हम दूसरों का दिल नहीं दुखाएँगे और उन्हें अपनी बातों से ज़ख्मी नहीं करेंगे। इसके बजाय, हम अपनी बातों से अपने अज़ीज़ों के ज़ख्मों पर मरहम लगाएँगे और उनका हौसला बढ़ाएँगे।—रोमियों 14:19. (w 08 1/1)
[पेज 12 पर तसवीर]
आप ऐसी बात कहने से कैसे दूर रह सकते हैं, जिससे आपको बाद में पछताना न पड़े?