“मैंने विश्वास किया है”
उनके विश्वास की मिसाल पर चलिए
“मैंने विश्वास किया है”
मारथा अपने मन की आँखों से वह गुफा अब भी देख सकती थी जिसमें उसके भाई की लाश रखी गयी थी। उस गुफा का मुँह एक बड़े-से पत्थर से बंद कर दिया गया था। उसे ऐसा लग रहा था मानो वह पत्थर गुफा के मुँह पर नहीं, उसके दिल पर रखा गया हो। उसे अब भी यकीन नहीं हो रहा था कि उसका प्यारा भाई लाज़र नहीं रहा। लाज़र को मरे चार दिन हो चुके थे। इस बीच कई लोग उसके घर शोक मनाने आए, उन्होंने उसे दिलासा दिया, लेकिन इन चार दिनों में जो कुछ हुआ, उसकी बस एक धुँधली-सी तसवीर ही उसके मन में थी।
अब मारथा के सामने वह शख्स खड़ा था जो उसके भाई के दिल के बहुत करीब था। यीशु को देखकर उसके आँसुओं का बाँध टूट पड़ा। वह जानती थी कि अगर यीशु पहले आ गया होता, तो शायद आज उसका भाई ज़िंदा होता। यीशु से मिलकर उसका दिल हल्का हो गया। यीशु की आँखों में वह अपने लिए हमदर्दी और करुणा के भाव साफ पढ़ सकती थी, आखिर इसी से तो उसे हमेशा हौसला मिला था। इन कुछ पलों में उसकी हिम्मत फिर लौट आयी। यीशु ने उससे ऐसे सवाल पूछे जिनसे वह अपने विश्वास और मरे हुओं के जी उठने की आशा के बारे में सोचने पर मजबूर हो गयी। बातचीत के दौरान, मारथा की ज़बान से एक ऐसी बात निकली जिससे उसके गहरे विश्वास का सबूत मिला। उसने कहा: “हाँ प्रभु, मैंने विश्वास किया है कि तू ही परमेश्वर का बेटा मसीह है, जो दुनिया में आनेवाला था।”—यूहन्ना 11:27.
मारथा का विश्वास वाकई काबिले-तारीफ था। बाइबल उसके बारे में ज़्यादा तो नहीं बताती लेकिन जितना भी बताती है उससे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं और अपना विश्वास मज़बूत कर सकते हैं। कैसे? आइए मारथा के बारे में बाइबल में दिए सबसे पहले वाकये की जाँच करें।
‘चिंतित और परेशान’
महीनों पहले की बात है। पहाड़ी पर बसे बैतनिय्याह गाँव में लाज़र के घर एक बहुत ही खास मेहमान आनेवाला था। यह मेहमान कोई और नहीं यीशु मसीह था। उस वक्त लाज़र भला-चंगा था। लाज़र के परिवार में उसकी दो बहनें थीं, मारथा और मरियम। तीनों भाई-बहन जवान थे और एक साथ, एक ही छत के नीचे रहते थे। कुछ बाइबल विद्वान कहते हैं कि शायद मारथा उन तीनों में सबसे बड़ी थी क्योंकि मेहमान-नवाज़ी दिखाने में अकसर वही पहल करती थी और कुछ किस्सों में उसका नाम बाकी दोनों से पहले आता है। (यूहन्ना 11:5) हम नहीं जानते कि उनमें से किसी की शादी कभी हुई या नहीं, मगर यह ज़रूर जानते हैं कि वे यीशु के जिगरी दोस्त थे। यीशु जब भी यहूदिया इलाके में प्रचार करता, वह लाज़र के घर ही ठहरता। हालाँकि उस इलाके में यीशु को काफी विरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन वह जानता था कि उस एक घर में उसे ज़रूर सुकून और शांति मिलेगी।
मारथा अपने घर आए मेहमानों का अच्छा खयाल रखती थी। वह उनकी खातिरदारी में कोई कसर नहीं छोड़ती थी। यह मेहनती स्त्री हर दम घर के कामकाज में व्यस्त रहती थी। जब यीशु और उसके साथ सफर कर रहे दोस्त, मारथा के घर आए तो वह बिना देर किए उनकी मेज़बानी में लग गयी। उसने फौरन छत्तीसों पकवान की एक दावत तैयार करने की सोची। उस ज़माने में, मेहमान-नवाज़ी को बहुत अहमियत दी जाती थी। जब कोई मेहमान घर आता तो चुंबन देकर उसका स्वागत किया जाता था, उसकी जूतियाँ उतारी जाती थीं और उसके पैर धोए जाते थे। फिर उसके सिर पर खुशबूदार तेल मला जाता था। (लूका 7:44-47) मेहमान के रहने और खाने-पीने का पूरा-पूरा खयाल रखा जाता था।
अपने इस खास मेहमान की खातिरदारी करने के लिए मारथा और मरियम के पास ढेर सारा काम था। माना जाता है कि उन दोनों में मरियम ज़्यादा भावुक थी और वह मामलों के बारे बहुत ज़्यादा सोचा करती थी। मरियम ने शुरू-शुरू में तो अपनी बहन की मदद ज़रूर की होगी, लेकिन जब यीशु उनके घर आया तो वह मारथा को छोड़ यीशु के पास जा बैठी। यीशु वहाँ मौजूद लोगों को परमेश्वर के राज के बारे में सिखा रहा था, जो उसकी शिक्षाओं का मुख्य विषय था। वह उस ज़माने के धर्म-गुरुओं की तरह नहीं था। वह स्त्रियों की इज़्ज़त करता था और उन्हें खुशी-खुशी राज का संदेश सुनाता था। मरियम, यीशु से सीखने का यह मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहती थी, इसलिए वह यीशु के शब्दों को सुनने के लिए उसके पैरों के पास बैठ गयी।
ज़रा सोचिए, यह देखकर मारथा को कैसा लगा होगा। मेहमानों के लिए इतने सारे पकवान बनाने थे, उनका खयाल रखना था, और भी ढेरों काम पड़े थे। जैसे-जैसे वक्त बीतता जा रहा था उसकी चिंता और परेशानी बढ़ती जा रही थी। आते-जाते वह देखती कि मरियम उसका हाथ बँटाने के बजाय आराम से बैठकर यीशु की बातें सुन रही है। क्या यह देखकर उसका पारा चढ़ गया, उसका मुँह बन गया, वह बड़बड़ाने लगी या क्या उसकी भौंहे तन गयीं? अगर उसने ऐसा किया भी होगा, तो कोई ताज्जुब की बात नहीं। एक अकेली जान इतना सारा काम कैसे कर पाती!
अब पानी सिर से ऊपर जा चुका था। मारथा से और बरदाश्त नहीं हुआ, वह यीशु के पास गयी और उसे बीच में ही टोककर उससे शिकायत की: “प्रभु, क्या तुझे खयाल नहीं कि लूका 10:40) ये शब्द बहुत तीखे थे। कई बाइबलों में मारथा के सवाल का इस तरह अनुवाद किया गया है: “प्रभु, क्या तुझे चिंता नहीं . . . ?” फिर उसने यीशु से कहा कि वह मरियम को समझाए और उसे हुक्म दे कि वह उसका हाथ बँटाए।
मेरी बहन ने सारा काम मुझ अकेली पर छोड़ दिया है? इसलिए उससे कह कि वह काम में मेरा हाथ बँटाए।” (यीशु का जवाब सुनकर शायद मारथा को ताज्जुब हुआ होगा जैसे कि इसे पढ़नेवाले बहुत-से लोगों को होता है। यीशु ने बड़ी नर्मी से कहा: “मारथा, मारथा, तू बहुत बातों को लेकर चिंता कर रही है और परेशान हो रही है। असल में थोड़ी ही चीज़ों की ज़रूरत है या बस एक ही काफी है। लेकिन मरियम ने अच्छा भाग चुना है और वह उससे छीना नहीं जाएगा।” (लूका 10:41, 42) यीशु क्या कहना चाहता था? क्या उसका मतलब था कि मारथा गैर-ज़रूरी चीज़ों को लेकर बेकार परेशान हो रही है? एक बढ़िया दावत तैयार करने में मारथा जो मेहनत कर रही थी, क्या यीशु उसे फिज़ूल बता रहा था?
नहीं, ऐसी बात नहीं है। यीशु जानता था कि मारथा के इरादे नेक हैं और वह इतनी मेहनत इसलिए कर रही है क्योंकि वह उनसे प्यार करती है। और यीशु की नज़र में एक शानदार दावत देना अपने-आप में गलत नहीं था। आखिर कुछ समय पहले ही तो वह मत्ती के यहाँ अपने स्वागत में रखी “एक बड़ी दावत” में गया था। (लूका 5:29) यानी, बात मारथा की दावत की नहीं, बल्कि यह थी कि वह किन चीज़ों को ज़्यादा ज़रूरी समझती है। उसे एक बढ़िया दावत देने की इतनी फिक्र थी कि वह भूल गयी कि किस बात को ज़्यादा अहमियत देनी चाहिए। किस बात को?
यहोवा परमेश्वर का एकलौता बेटा यीशु उसके यहाँ सच्चाई सिखा रहा था। यीशु की बात सुनने से ज़्यादा ज़रूरी कुछ नहीं था, न तो मारथा की बेहतरीन दावत, न ही उसमें लगी सारी मेहनत। यीशु को यह देखकर वाकई दुख हुआ होगा कि मारथा अपने विश्वास को मज़बूत करने का एक सुनहरा मौका गँवा रही है। फिर भी, उसने फैसला मारथा पर छोड़ दिया। लेकिन मारथा को अपनी बहन के लिए फैसला लेने का हक नहीं था। उसका यह कहना गलत था कि मरियम भी उसकी तरह यीशु की बात सुनना छोड़कर घर के काम में लग जाए।
यीशु ने बड़े प्यार से मारथा की गलत सोच को सुधारा। उसने मारथा को शांत करने के लिए दो बार प्यार से उसका नाम लिया और उसे यकीन दिलाया कि उसे ‘बहुत बातों को लेकर चिंता करने और परेशान होने की’ ज़रूरत नहीं। सादा भोजन, यानी एक या दो चीज़ें काफी थीं। खासकर तब जब सामने आध्यात्मिक दावत बिछी हो। मरियम ने “अच्छा भाग” चुना, यानी उसने यीशु से सीखने का मौका नहीं गँवाया और इसे यीशु किसी भी हाल में नहीं छीनता।
मारथा के घर के इस किस्से से मसीह के चेले बहुत कुछ सीख सकते हैं। हमारे लिए सबसे ज़रूरी है “परमेश्वर से मार्गदर्शन पाने की भूख” मिटाना और हमें किसी भी बात को इसके आड़े नहीं आने देना चाहिए। (मत्ती 5:3) यह सच है कि हम भी मारथा की तरह दरियादिल और मेहनती बनना चाहते हैं। लेकिन हमें खाने-पीने को लेकर इस कदर ‘चिंतित और परेशान’ नहीं होना चाहिए कि हम ज़्यादा ज़रूरी बातों को भूल जाएँ। हम अपने संगी विश्वासियों के साथ इसलिए इकट्ठा नहीं होते कि हम बढ़िया-से-बढ़िया खाना खा सकें बल्कि इसलिए कि उनका हौसला बढ़ा सकें और उन्हें आध्यात्मिक तोहफे दे सकें। (रोमियों 1:11, 12) सादे भोजन के साथ भी बेहतरीन संगति का मज़ा लिया जा सकता है।
प्यारा भाई फिर मिल गया
यीशु के प्यार से समझाने का मारथा पर क्या असर हुआ? क्या उसने यीशु की बात मानी और उससे सबक सीखा? इसका जवाब हमें प्रेषित यूहन्ना की किताब में मिलता है। मारथा के घर हुई दावत के कई महीनों बाद घटी एक घटना के बारे में लिखते वक्त यूहन्ना ने कहा: “यीशु को मारथा और उसकी बहन और लाज़र से प्यार था।” (यूहन्ना 11:5) इससे ज़ाहिर है कि यीशु से प्यार-भरी सलाह पाकर मारथा न तो मुँह फुलाकर बैठी रही, न ही उससे नाराज़ हुई। उसने पूरे दिल से यीशु की सलाह मानी। इस मामले में भी मारथा ने हमारे लिए विश्वास की एक बेहतरीन मिसाल कायम की है। आखिर हममें से ऐसा कौन है जो गलती नहीं करता और जिसे सुधार की ज़रूरत नहीं पड़ती?
जब लाज़र बीमार पड़ा तो मारथा ने उसकी देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी। उसकी तकलीफ कम करने और उसका इलाज करने के लिए मारथा से जो भी बन पड़ा उसने किया। लेकिन लाज़र की हालत बिगड़ती गयी। उसकी बहनें दिन-रात उसकी सेवा में लगी रहीं। मारथा ने कितनी ही बार लाज़र का मुरझाया चेहरा देखकर सुख-दुख के उन लमहों को याद किया होगा जो उन्होंने साथ बिताए थे।
जब उन्हें लगा कि इतना सब करने के बाद भी लाज़र यूहन्ना 11:1, 3) वे जानती थीं कि यीशु को उनके भाई से बहुत प्यार है और उन्हें विश्वास था कि यीशु अपने दोस्त की बीमारी ठीक करने के लिए हर मुमकिन कोशिश करेगा। शायद उन्हें आशा थी कि यीशु जल्द-से-जल्द आ जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। लाज़र की मौत हो गयी।
की तबियत सँभल नहीं रही है, तो उन्होंने यीशु के लिए संदेश भिजवाया। यीशु जहाँ प्रचार कर रहा था वहाँ से बैतनिय्याह पहुँचने में दो दिन लगते थे। उन्होंने कहलवाया: “प्रभु, आकर देख! जिससे तुझे गहरा लगाव है वह बीमार है।” (उनके घर में मातम का माहौल छा गया। मारथा और मरियम ने अपने भाई को दफनाने का इंतज़ाम किया। अफसोस जताने के लिए बैतनिय्याह और आस-पास से कई लोग आए। लेकिन यीशु की कोई खबर नहीं थी। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था, इस बात को लेकर मारथा की हैरानी बढ़ती जा रही थी। चार दिन बाद मारथा को खबर मिली कि यीशु उसके गाँव के पास पहुँच गया है। वह किसी काम में देर नहीं करती थी। इस दुख की घड़ी में भी जैसे ही उसने सुना कि यीशु आ रहा है, वह मरियम को बताए बगैर तुरंत उससे मिलने के लिए दौड़ी चली गयी।—यूहन्ना 11:20.
यीशु को देखते ही उसकी ज़ुबान पर वह बात आ गयी, जो इतने दिनों से उनके दिल में चल रही थी। उसने कहा: “प्रभु, अगर तू यहाँ होता तो मेरा भाई न मरता”। लेकिन मारथा में आशा और विश्वास का दिया अब भी जल रहा था। उसने आगे कहा: “और मैं अब भी यह जानती हूँ कि तू परमेश्वर से जो कुछ माँगेगा, परमेश्वर तुझे दे देगा।” उसकी आशा पक्की करने के लिए यीशु ने फौरन उससे कहा: “तेरा भाई जी उठेगा।”—यूहन्ना 11:21-23.
मारथा को लगा कि यीशु आनेवाले उस वक्त की बात कर रहा है जब मरे हुओं को ज़िंदा किया जाएगा। इसलिए उसने जवाब दिया: “मैं जानती हूँ कि वह आखिरी दिन मरे हुओं में से जी उठेगा।” (यूहन्ना 11:24) पुनरुत्थान यानी मरे हुओं के जी उठने के बारे में उसका यह यकीन वाकई लाजवाब था। सदूकी नाम के कुछ यहूदी धर्म-गुरू इस शिक्षा पर यकीन नहीं करते थे, जबकि परमेश्वर के वचन में यह शिक्षा साफ-साफ दी गयी थी। (दानिय्येल 12:13; मरकुस 12:18) मारथा को पता था कि यीशु ने पुनरुत्थान की आशा के बारे में सिखाया है और कई पुनरुत्थान किए भी हैं। लेकिन यीशु ने जितने भी लोगों को ज़िंदा किया था, उनमें से किसी को भी मरे इतने दिन नहीं हुए थे। इसलिए उसे अंदाज़ा नहीं था कि आगे क्या होनेवाला है।
तब यीशु ने एक यादगार बात कही: “मरे हुओं का जी उठना और जीवन मैं ही हूँ।” जी हाँ, यहोवा परमेश्वर ने अपने बेटे को अधिकार दिया है कि वह आनेवाले समय में पूरी दुनिया में पुनरुत्थान करे। यीशु ने मारथा से पूछा: “क्या तू इस पर विश्वास करती है?” इस सवाल के जवाब में मारथा ने वह कहा जो इस लेख की शुरूआत में बताया गया है। उसे विश्वास था कि यीशु ही मसीहा है, वही यहोवा परमेश्वर का बेटा है और उसी के आने के बारे में भविष्यवक्ताओं ने पहले से बताया था।—यूहन्ना 5:28, 29; 11:25-27.
क्या यहोवा परमेश्वर और उसका बेटा यीशु मसीह ऐसे विश्वास की कदर करते हैं? इसके बाद जो घटनाएँ घटीं वे हमें इस सवाल का साफ-साफ जवाब देती हैं। मारथा भागकर अपनी बहन को बुला लायी। उसने देखा कि किस तरह मरियम और वहाँ इकट्ठी भीड़ से बात करते-करते यीशु का दिल भर आया। उसने यीशु की आँखों में छलकते आँसुओं को भी देखा। यीशु ने यह छिपाने की बिलकुल कोशिश नहीं की कि किसी के मरने पर कितना गम होता है। इसके बाद मारथा ने यीशु को यह कहते सुना कि उसके भाई की कब्र पर से पत्थर हटाया जाए।—यूहन्ना 11:28-39.
मारथा हमेशा दिमाग से काम लेती थी, दिल से नहीं। उसने यीशु की बात पर एतराज़ करते हुए कहा कि लाज़र को मरे चार दिन हो चुके हैं इसलिए उसकी लाश से दुर्गंध आ रही होगी। यीशु ने उसे याद दिलाया: “क्या मैंने तुझसे यह न कहा था कि अगर तू विश्वास करेगी, तो परमेश्वर की महिमा देखेगी?” उसने विश्वास किया और सच में उसने यहोवा परमेश्वर की महिमा देखी। उसी वक्त परमेश्वर ने अपने बेटे को लाज़र को ज़िंदा करने की ताकत दी। इसके बाद जो हुआ वह सब मारथा के दिल में मीठी यादें बनकर बस गया: यीशु की वह पुकार, “लाज़र, बाहर आ जा!”; गुफा के अंदर से लाज़र के उठने की आहट; कफन की पट्टियों में लिपटे लाज़र का धीरे-धीरे बाहर आना; यीशु की यह आज्ञा कि “इसे खोल दो और जाने दो”; और वह पल जब दोनों बहनें खुशी के मारे अपने भाई से लिपट गयीं। (यूहन्ना 11:40-44) उसे लगा मानो उसके दिल पर रखा वह भारी पत्थर हट गया।
यह वाकया दिखाता है कि मरे हुओं का जी उठना कोरी कल्पना नहीं है। यह बाइबल की एक अहम शिक्षा है जिसका *
सबूत हमें इतिहास में भी मिलता है। यहोवा परमेश्वर और उसके बेटे पर दिखाया विश्वास कभी बेकार नहीं जाता, वे उसका इनाम ज़रूर देते हैं जैसे कि उन्होंने मारथा, मरियम और लाज़र को दिया। अगर आप भी मारथा जैसा मज़बूत विश्वास पैदा करेंगे, तो वे आपको भी इस तरह के ढेरों इनाम देंगे।“मारथा सेवा करने में लगी थी”
इसके बाद मारथा का ज़िक्र बाइबल में सिर्फ एक बार और आता है। यह बात यीशु की ज़िंदगी के आखिरी हफ्ते की है। यीशु को पता था कि जल्द ही उसे कई मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा। इसलिए थोड़ा सुकून पाने के लिए उसने बैतनिय्याह में अपने दोस्त लाज़र के घर रुकने का फैसला किया। वहाँ से 3 किलोमीटर पैदल चलकर वह यरूशलेम पहुँच सकता था। यीशु और लाज़र शाम का खाना खाने शमौन के घर गए, जो पहले एक कोढ़ी था। यहाँ मारथा के बारे में आखिरी बार ज़िक्र करते हुए बाइबल कहती है: “मारथा सेवा करने में लगी थी।”—यूहन्ना 12:2.
मारथा एक मेहनती औरत थी और वह बिलकुल नहीं बदली। बाइबल जब पहली बार उसका ज़िक्र करती है, तो हम पढ़ते हैं कि वह घर के कामों में व्यस्त थी और इस आखिरी मौके पर भी वह दूसरों का खयाल रखने में व्यस्त थी। आज मसीही मंडलियों के लिए यह कितनी बड़ी आशीष है कि उनके बीच मारथा जैसी स्त्रियाँ हैं, जो दिलेर और दरियादिल हैं और जो खुद को दूसरों की सेवा में लगाकर अपने विश्वास का सबूत देती हैं। ऐसा लगता है कि मारथा आगे भी अपने विश्वास पर बनी रही। यह अक्लमंदी थी क्योंकि अभी उसे और भी कई मुश्किलों का सामना करना था।
कुछ ही दिन बाद मारथा को अपने प्यारे प्रभु यीशु की दर्दनाक मौत का सदमा सहना पड़ता। इसके अलावा जिन लोगों ने यीशु मसीह को मारा डाला था वे उसके भाई के खून के प्यासे थे, क्योंकि लाज़र के जी उठने से कई लोग यीशु पर विश्वास करने लगे थे। (यूहन्ना 12:9-11) यही नहीं, एक-न-एक दिन मौत मारथा को उसके भाई-बहन से जुदा कर देती। हम यह तो नहीं जानते कि यह कैसे और कब हुआ, लेकिन हम इस बात का यकीन ज़रूर रख सकते हैं कि मारथा के अनमोल विश्वास ने उसे आखिर तक सबकुछ सहने की ताकत दी। तो फिर यह कितना ज़रूरी है कि मसीही, मारथा के विश्वास की मिसाल पर चलें। (w11-E 04/01)
[फुटनोट]
^ बाइबल में दी पुनरुत्थान की शिक्षा के बारे में और जानने के लिए बाइबल असल में क्या सिखाती है? किताब का अध्याय 7 देखिए। इसे यहोवा के साक्षियों ने प्रकाशित किया है।
[पेज 23 पर तसवीर]
अपने भाई की मौत का मातम मनाते वक्त भी मारथा ने यीशु की सुनी और अपना ध्यान विश्वास मज़बूत करनेवाली बातों पर लगाया
[पेज 24 पर तसवीर]
हालाँकि वह ‘चिंतित और परेशान’ थी फिर भी उसने नम्रता से ताड़ना स्वीकार की
[पेज 27 पर तसवीर]
मारथा को यीशु पर अपने विश्वास का इनाम तब मिला जब उसने अपने भाई का पुनरुत्थान देखा