अय्यूब 30:1-31
30 अब वे लोग ही मेरी हँसी उड़ाते हैं,+जो उम्र में मुझसे छोटे हैं,जिनके पिताओं को मैं अपने कुत्तों के साथ भी न रखूँकि वे मेरी भेड़ों की रखवाली करें।
2 उनके हाथ की ताकत मेरे किस काम की?
उनका दमखम तो खत्म हो गया है,
3 भूख और तंगी से उनकी हालत खस्ता है,वीरान और उजाड़ हो चुकी ज़मीन परवे धूल खाते फिरते हैं।
4 वे झुरमुटों से लोनी साग तोड़कर खाते हैं,झाड़ियों की जड़ों से अपना पेट भरते हैं।
5 उन्हें बिरादरी से बाहर कर दिया जाता है,+लोग उन पर ऐसे चिल्लाते हैं, जैसे चोर पर चिल्ला रहे हों।
6 तंग घाटियों की ढलान पर उनका बसेरा है,ज़मीन और चट्टानों में वे गड्ढे खोदकर रहते हैं।
7 झाड़ियों के बीच से वे पुकार लगाते हैं,बिच्छू-बूटी के पौधों में सटकर बैठते हैं।
8 मूर्ख और नीच की इन औलादों कोदेश से भगा* दिया जाता है।
9 पर अब वे अपने गानों में भी मुझ पर ताने कसते हैं,+मज़ाक* बन गया हूँ मैं उनके लिए!+
10 वे मुझसे घिन करते हैं, दूर-दूर रहते हैं,+मेरे मुँह पर थूकने से भी नहीं डरते।+
11 परमेश्वर ने ही मुझे निहत्था किया है,* बेबस कर दिया है,इसीलिए वे मेरे सामने बेलगाम हो गए हैं।
12 झुंड बनाकर दायीं तरफ से मुझ पर चढ़ आते हैं,मुझे भागने पर मजबूर कर देते हैं,फिर मुझे खत्म करने के लिए मेरे रास्ते में मोरचा बाँधते हैं,
13 भागने के सारे रास्ते बंद कर देते हैं,मेरी मुश्किलों को और बढ़ा देते हैं,+उन्हें रोकनेवाला* कोई नहीं।
14 वे मानो शहरपनाह की चौड़ी दरार से घुस आते हैं,मुसीबतों के साथ-साथ वे भी मुझ पर टूट पड़ते हैं।
15 खौफ मुझे घेर लेता है,मेरे मान-सम्मान को हवा में उड़ा दिया जाता है।मेरे बचने की सारी उम्मीदें बादल की तरह गायब हो गयी हैं।
16 ज़िंदगी हाथ से फिसलती जा रही है,+दुख-भरे दिन+ हाथ धोकर पीछे पड़े हैं।
17 रात को मेरी हड्डियों में ऐसा दर्द उठता है,+ जैसे कोई उन्हें छेद रहा होऔर दर्द है कि जाता नहीं।+
18 मेरे कपड़े को कसकर खींचा गया है,*गले पर इतना कस रहा है कि मेरा दम घुट रहा है।
19 परमेश्वर ने मुझे कीचड़ में पटक दिया है,मैं धूल और राख हो गया हूँ।
20 मदद के लिए मैं तुझे पुकारता हूँ, पर तू जवाब नहीं देता।+जब मैं उठकर खड़ा होता हूँ तो तू बस देखता रहता है।
21 तू मेरे खिलाफ हो गया है,+तुझे ज़रा भी रहम नहीं आता,मुझे मारने के लिए तू पूरा ज़ोर लगा रहा है।
22 मुझे हवा के साथ उड़ा ले जाता है,फिर तूफान में इधर-उधर उछालता है।*
23 मैं जानता हूँ तू मुझे मौत की ओर ले जा रहा है,उस घर की तरफ, जहाँ एक दिन हर किसी को जाना है।
24 मगर जो इंसान अंदर से टूट चुका हो,*जो मुसीबत में दुहाई दे रहा हो, उसे कौन मारेगा?+
25 क्या मैंने दुखियारों* के लिए आँसू नहीं बहाए?
क्या गरीबों के लिए मेरा मन दुखी नहीं हुआ?+
26 मैंने अच्छे की आस लगायी पर मेरे साथ बुरा हुआ,उजाले का इंतज़ार किया पर अँधेरा मिला।
27 मेरे अंदर उथल-पुथल मची है, ज़रा भी चैन नहीं,मुझ पर दुख-भरे दिन आ पड़े हैं।
28 मैं उदासी के अँधेरे में चल रहा हूँ+ और सवेरा नज़र नहीं आता,
मैं मंडली के बीच खड़ा मदद के लिए भीख माँगता हूँ।
29 यह हाल हो गया है कि अब मैं गीदड़ों का भाईऔर शुतुरमुर्ग की बेटियों का साथी बन गया हूँ।+
30 मेरी चमड़ी काली पड़कर उतर गयी है,+मेरी हड्डियाँ जल रही हैं।*
31 मेरे सुरमंडल पर सिर्फ मातम की धुन बजती है,मेरी बाँसुरी से सिर्फ रोने का सुर निकलता है।
कई फुटनोट
^ शा., “मार-मारकर भगा।”
^ शा., “कहावत।”
^ शा., “मेरे धनुष की रस्सी ढीली कर दी है।”
^ या शायद, “उनकी मदद करनेवाला।”
^ या शायद, “घिनौनी बीमारी ने मेरा हुलिया बिगाड़ दिया है।”
^ या शायद, “फिर भयानक आँधी में मुझे घुला देता है।”
^ शा., “जो मलबे का ढेर है।”
^ या “मुश्किल दौर से गुज़रनेवालों।”
^ या शायद, “बुखार से जल रही हैं।”